मेरठ: दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे ने 2021 में दिल्ली और मेरठ के बीच की दूरी का समय घटा दिया था. यह चार साल पहले की बात है. अब यही हाई-स्पीड लिंक गन्ने के खेतों के बीच उभरते बड़े-बड़े होर्डिंग्स से घिर गया है, जो सफर करने वालों को एनसीआर का अगला बड़ा हॉटस्पॉट बनने का सपना दिखा रहे हैं. एआई से बने ग्राफिक्स वाले विला और शीशे से ढंके अपार्टमेंट प्रोजेक्ट्स के विज्ञापन. उनके ठीक बगल में बड़े-बड़े अक्षरों में आसान होम लोन के वादे. राष्ट्रीय राजधानी से 80 किलोमीटर दूर स्थित मेरठ अब पहले से कहीं ज्यादा दिल्ली के करीब है. बिल्डर्स और ठेकेदार नए प्राइम नेबरहुड का सपना बेच रहे हैं और ज़मीन की कीमतें रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुकी हैं.
आज मेरठ की स्काईलाइन हर जगह नई इमारतों के कारण धूल भरी है और हवा में गारे-मोर्टार की गंध तैर रही है. हर तरफ कंस्ट्रक्शन जारी है. दो बड़े प्रोजेक्ट्स—पहले एक्सप्रेसवे और फिर नमो भारत RRTS कॉरिडोर—ने शहर की अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन की रफ्तार तेज़ कर दी है. भले ही मेरठ सेना का बड़ा ठिकाना और वर्ल्ड क्लास स्पोर्ट्स इक्विपमेंट का सप्लायर रहा हो, लेकिन एनसीआर में इसे हमेशा ‘बिखरा हुआ’ चचेरा भाई कहा जाता रहा है. यहां तक कि गाज़ियाबाद, जो 1991 में मेरठ से अलग हुआ था वह भी एनसीआर ग्रोथ स्टोरी में कहीं ज्यादा मजबूत खिलाड़ी साबित हुआ, लेकिन अब मेरठ आखिरकार सैटेलाइट शहरों की रेस में उतर आया है, खुद को नया रूप देने और फिर से गढ़ने के लिए तैयार. जैसे-जैसे नई ऊंची इमारतें स्काईलाइन को बदल रही हैं और मॉल व कैफे युवाओं की पसंद बन रहे हैं, वैसे-वैसे पुराने समय की रौनक भरी बाज़ार संस्कृति भी खुद को ढाल रही है.
नेशनल कैपिटल रीजन ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन (NCRTC) की रिपोर्ट के मुताबिक, 2023 में मेट्रो का पहला चरण शुरू होने के बाद से मेरठ में ज़मीनों की कीमतें 30% से 67% तक बढ़ी हैं. वित्त वर्ष 2020-21 में मेरठ का जीडीपी 0.51 लाख करोड़ रुपये था, जिसके वित्तीय वर्ष 2027 तक 2.06 लाख करोड़ रुपये तक पहुंचने का अनुमान है. दिल्ली-एनसीआर के प्रॉपर्टी डीलर्स यहां तेज़ी से आ रहे हैं और ग्रामीण इलाकों में भी डीलर्स की संख्या बढ़ रही है. मेरठ डिवेलपमेंट अथॉरिटी (एमडीए) भी शहर के विस्तार के लिए ट्रांजिट ओरिएंटेड डिवेलपमेंट (टीओडी) जोन पर जोर दे रही है.
मेरठ डेवलपमेंट अथॉरिटी के वाइस-चेयरमैन संजय कुमार मीणा ने कहा, “सिर्फ मेरठ ही नहीं, एनसीआर के लोग भी इस इंफ्रास्ट्रक्चर पुश से आकर्षित होंगे. दिल्ली, गुरुग्राम और नोएडा में जगह खत्म हो रही है. वहां की कीमतें मिडिल क्लास की पहुंच से बाहर हो चुकी हैं.”

मेरठ की पहचान अब भी अखबारों जैसे दैनिक जागरण और अमर उजाला पढ़ने, पकौड़ों, कुल्हड़ वाली चाय या गन्ने के जूस के साथ दिन बिताने की है. यहां ज़िंदगी स्लो लेन में चलती दिखती है, लेकिन अब यह तस्वीर बदल रही है, क्योंकि सड़कों पर प्राइवेट गाड़ियों की संख्या बढ़ रही है. पिछले कुछ सालों में TechGropse, Accentrix Technologies, Rudhra Technologies और MSSOFTPC जैसी स्टार्टअप्स ने यहां ऑफिस खोले हैं. दिल्ली की रफ्तार धीरे-धीरे मेरठ की ओर बढ़ रही है.
चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र विभाग के प्रमुख आलोक कुमार ने कहा, “इंफ्रास्ट्रक्चर रातों-रात बन सकता है, लेकिन संस्कृति को बदलने में दशकों लगते हैं. मेरठ भौतिक रूप से तो विकसित हो रहा है, लेकिन सांस्कृतिक रूप से अब भी मेट्रो सिटीज़ से पीछे है. जब कोई शहर तेज़ी से बढ़ता है, तो मिडिल क्लास आबादी को नए तौर-तरीकों, शहरी शिष्टाचार और लाइफस्टाइल में ढलने में मुश्किल होती है.”
उन्होंने कहा, “मेरठ की सर्विस क्लास अब सीधे ग्लोबल ट्रांसपोर्ट सिस्टम से जुड़ गई है—आईजीआई और जेवर एयरपोर्ट, दोनों एक घंटे की दूरी में.”
एमडीए के वाइस-चेयरमैन संजय कुमार मीणा ने शहर के भविष्य के विज़न की बात रखते हुए बताया कि मेरठ में 1992 के बाद से टाउनशिप के लिए ज़मीन अधिग्रहण नहीं हुआ था. अब महत्वाकांक्षी टाउनशिप प्रोजेक्ट के लिए करीब 30% ज़मीन का अधिग्रहण पूरा हो चुका है. अगस्त की शुरुआत में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस प्रोजेक्ट का शिलान्यास किया.
यह प्रोजेक्ट टीओडी ज़ोन के तहत आता है. इसमें कमर्शियल, रेज़िडेंशियल और इंस्टिट्यूशनल, सभी तरह की ज़मीन का इस्तेमाल हो सकता है. मीणा के मुताबिक, यह शिक्षा संस्थानों के लिए भी वरदान साबित हो रहा है. प्रधानमंत्री जन विकास कार्यक्रम के तहत यहां तीन डिग्री कॉलेज बनने की उम्मीद है. पिछले पांच सालों में आईएएमआर आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल और एनसीआर इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज जैसे संस्थान बन चुके हैं.
एमडीए ने टीओडी के तहत कुल 3,273 हेक्टेयर क्षेत्र चिन्हित किया है. एक स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी बन रही है. एक कृषि विश्वविद्यालय पहले से चल रहा है. कई निजी अस्पताल भी इस जोन में दिलचस्पी दिखा रहे हैं.
फिलहाल, मेरठ की प्रस्तावित टाउनशिप एक नींद भरे गांवों के बीच खेतों और रेत के टीलों जैसी ही नज़र आती है. भविष्य के सिर्फ कुछ निशान हैं, अधूरे फ्लाईओवर, जो अचानक खड़े हो गए हैं और अधूरे खंभे, जो आसमान की तरफ ताकते खड़े हैं.
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खेतों से फ्लैट तक
गाज़ियाबाद के पुराने गांव बसंतपुर चतली, जो चारों तरफ गन्ने के खेतों से घिरा है, वहां कच्चे-पक्के मकानों में रहने वाले लोग अब प्रॉपर्टी डीलर बन चुके हैं. बदलाव तब आया जब पड़ोसी मेरठ में ज़मीनों के सौदे बढ़ने लगे. चाहे किराना दुकान हो या मोबाइल रिपेयर शॉप—हर जगह एक लकड़ी की मेज़, प्लास्टिक की कुर्सी और दीवार पर मोटे अक्षरों में लिखा मिलता है—“प्रॉपर्टी के लिए कॉल करें.”
अपने मोहल्ले में छेनू पहलवान के नाम से मशहूर 35 साल के राहुल और उनके परिवार वाले पीढ़ियों से खेती करते आए हैं. सात साल पहले उन्होंने किराना की दुकान खोली और उसके ठीक बगल में एक छोटा कमरा खरीदकर प्रॉपर्टी डीलिंग का काम शुरू कर दिया. यही ट्रेंड अब RRTS के आसपास के गांवों में दिखाई दे रहा है. ज्यादातर चौराहों पर अब प्रॉपर्टी डीलिंग के बोर्ड लगे हैं.
इलाके में प्रॉपर्टी बूम ने धीरे-धीरे लोकल इकॉनमी का डीएनए बदल दिया. खेत सिर्फ फसल उगाने तक सीमित नहीं रहे, अब ज़मीन खरीद-फरोख्त ने रफ्तार पकड़ ली है.
20 साल पहले बसंतपुर चतली और आसपास के गांवों में एक बीघा ज़मीन 3-4 लाख रुपये में मिलती थी. आज इसकी कीमत मेट्रो की नज़दीकी की वजह से 60 लाख रुपये तक पहुंच गई है.
अपनी दुकान के दरवाजे से बाहर देखते हुए राहुल ने कहा, “पहले यहां सिर्फ गन्ने के खेत हुआ करते थे. अब उन्हीं पर मेट्रो दौड़ रही है.”
उन्होंने कहा, “कुम्हैरा, राओली, मनौली, भदोली जैसे गांवों के लोग भी अब मुरादनगर, मोहिउद्दीनपुर, गोविंदपुरी और मोदीनगर जैसे इलाकों की तरफ आ रहे हैं.”
दिल्ली की रियल एस्टेट कंपनी अल्फा कॉर्प के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर और सीएफओ संतोष अग्रवाल ने कहा, “मेरठ को अब एनसीआर का अफोर्डेबल एक्सटेंशन बनाया जा रहा है. छोटे-बड़े दोनों तरह के डेवलपर्स यहां आए हैं. डिमांड काल्पनिक नहीं है, बल्कि असली है, लोग यहां रहना चाहते हैं.”

अल्फा कॉर्प मेरठ वन, सुपरटेक ग्रीन विलेज, सिक्का क्रिश और अंसल जैसे बिल्डर्स मेरठ में आए हैं. डेवलपर्स गेटेड कम्युनिटी प्रोजेक्ट्स पेश कर रहे हैं—स्विमिंग पूल, जिम और ग्रीन स्पेस के साथ जो मेरठ की पारंपरिक हाउसिंग से अलग हैं. ‘एनसीआर की अफोर्डेबल हाउसिंग’ का दावा करने वाले बोर्ड्स पर RERA सर्टिफिकेट और पॉज़ेशन टाइमलाइन बड़े अक्षरों में लिखी होती हैं. मकसद है भरोसा जीतना. फेसबुक और व्हाट्सऐप पर प्रोजेक्ट साइट्स के ड्रोन शॉट्स साझा किए जा रहे हैं.
पारस बिल्डटेक में सीनियर वाइस प्रेसीडेंट, सेल्स प्रीतम मिश्रा ने कहा, “डिमांड अब लो-डेंसिटी हाउसिंग से बदलकर प्लॉटेड डेवलपमेंट्स, इंटीग्रेटेड गेटेड कम्युनिटीज़ और वर्टिकल लिविंग फॉर्मेट्स की ओर बढ़ रही है. RRTS कॉरिडोर अब सिर्फ ट्रांसपोर्ट लिंक नहीं है, बल्कि विकेंद्रीकृत शहरीकरण का इंजन है और भारत में रीजनल हाउसिंग ग्रोथ के लिए एक मॉडल भी.”
और यह नई डिमांड दिल्ली से भी आ रही है.
दक्षिण दिल्ली के छतरपुर में 26 साल के वरुण वत्स रात में देर तक अलग-अलग हाउसिंग ऐप्स और मेरठ डील्स/प्रॉपर्टी फेसबुक ग्रुप खंगालते रहते हैं. पिछले आठ साल से वह दिल्ली, गुरुग्राम और नोएडा में किराए के मकानों में रहे, लेकिन कभी घर जैसा एहसास नहीं हुआ.
वरुण ने कहा, “मैंने सोचा था, अब तक मुझे अपने और अपने माता-पिता के लिए प्रॉपर्टी में इन्वेस्ट करना शुरू कर देना चाहिए था.” अभी वे अपने थ्री बीएचके फ्लैट में रहते हैं, जिसके लिए उन्हें 30,000 रुपये मासिक किराया देना पड़ता है. ज्यादातर एनसीआर प्रॉपर्टीज़ उनकी पहुंच से बाहर हैं.
मेरठ में रहने वाले एक रिश्तेदार से बातचीत के बाद उन्हें एहसास हुआ कि यहां मौका हो सकता है. कई लोकल ब्रोकरों से बात करने के बाद वे मान गए कि मेरठ उन्हें घर दे सकता है. कीमतें सुनकर वह चौंक गए—5,000 रुपये प्रति वर्ग फुट. यानी दिल्ली के मुकाबले आधी.
गुरुग्राम और नोएडा में हाई-राइज़ फ्लैट्स के लिए ईएमआई उम्रभर खिंच सकती थी. गाज़ियाबाद में उन्हें सस्ते विकल्प तो मिले, लेकिन तंग गलियों में, अधूरे मकानों के साथ.
मेरठ में ज़मीन के दाम 8,000–12,000 रुपये प्रति वर्ग गज से बढ़कर 12,000–20,000 रुपये प्रति वर्ग गज तक पहुंच गए हैं. कॉरिडोर से जुड़े शहरों में कीमतों में तेज़ उछाल आया है. अभी तक सिर्फ दिल्ली, गाज़ियाबाद और मेरठ जुड़े हैं. अगले प्रोजेक्ट गुरुग्राम, अलवर, पानीपत और करनाल को जोड़ेंगे.
दो दशक पहले गाज़ियाबाद ने दिल्ली का स्पिलोवर संभाला था, सस्ती हाउसिंग, हाई-राइज़ इमारतें और शॉपिंग मॉल्स के साथ. बाद में मेट्रो से भी जुड़ा, लेकिन वक्त के साथ गाज़ियाबाद भी भर गया और नए ग्रोथ पॉकेट नहीं बना सका.
NCRTC के एक अधिकारी ने कहा, “गाज़ियाबाद मजबूत कमर्शियल अपील के साथ उभरा, जबकि मेरठ अपनी रेज़िडेंशियल आकर्षण को और मजबूत कर रहा है. इससे एक अर्बन नेटवर्क बन रहा है, जहां शहर एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं कर रहे, बल्कि एक-दूसरे को सपोर्ट कर रहे हैं.”
NCRTC के मैनेजिंग डायरेक्टर शलभ गोयल ने कहा कि जब नामो भारत प्रोजेक्ट की रूपरेखा बनी थी, तब उसका एक मकसद एनसीआर में पॉलीसेंट्रिक डिवेलपमेंट को बढ़ावा देना था.
उन्होंने कहा, “हम इस क्षेत्र में टीओडी की क्षमता का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, ताकि जीवंत, रहने योग्य कम्युनिटीज़ बन सकें और ऐसी आर्थिक वैल्यू तैयार हो सके जिसका लाभ हर वर्ग को मिले.”
मार्केट एक्सपर्ट्स का हवाला देते हुए NCRTC अधिकारियों ने कहा कि कमर्शियल इन्वेस्टमेंट, रेज़िडेंशियल डिवेलपमेंट के पीछे-पीछे आता है. इससे लोकल सर्विस सेक्टर में रोजगार पैदा होता है और बाहरी आर्थिक निर्भरता कम होती है.
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चलती-फिरती नगरी
बुधवार की किसी शाम 43 साल के सुनील शर्मा मेरठ साउथ मेट्रो स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर खड़े हैं — शहर का पहला स्टेशन. उनके काले जूते धूल से सने हैं, पास के अधखुले इंडस्ट्रियल एरिया से उठती तेज़ हवा उन पर और धूल चढा रही है. सुनील का मेरठ साउथ से आनंद विहार मेट्रो स्टेशन तक का सफर अब सिर्फ 35 मिनट का है. पहले यही सफर उन्हें साढ़े दो घंटे और चार घंटे की थकान देता था. तब वे भीड़भरी बसों से गाज़ियाबाद जाते थे, जिनका ट्रैफिक अनुमान से परे होता था.
2023 के आखिर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस रैपिड रेल के पहले 17 किलोमीटर लंबे हिस्से का उद्घाटन किया था, जो साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, गुलधर-दुहाई और दुहाई डिपो को जोड़ता है. अगस्त 2024 में मेरठ सेक्शन खोला गया. जनवरी 2025 में साहिबाबाद से न्यू अशोक नगर तक की लाइन शुरू हुई. मेरठ साउथ, मेरठ का पहला स्टेशन था, जिसका उद्घाटन किया गया.
सुनील ने कहा, “मैंने इस स्टेशन को ईंट-ईंट रखकर बनते देखा है.”
यह स्टेशन बदलाव और सपनों की कहानी कहता है. युवा बैरिकेड्स पर टिककर सिल्वर कोच के अंदर से सेल्फी ले रहे हैं. कुछ लोग इंस्टा रील शूट कर रहे हैं. कई लोगों के लिए यह उनकी पहली मेट्रो सवारी है.
मेरठ ने दिल्ली का एक टुकड़ा उधार ले लिया है. कुछ समय पहले तक यहां का सफर बिल्कुल अलग था. दिल्ली जाते समय ज़्यादातर लोग धुएं से भरी सरकारी रोडवेज़ बसों में ठुंसे होते थे. ऐसी बसें जो कभी भी खराब हो सकती थीं. बहुत से लोग MEMU ट्रेनों से जाते, जहां दो-दो घंटे खड़े होकर सफर करना आम बात थी.

मेरठ के अंदर अब भी टेम्पो और शेयरिंग ऑटो ही चलते हैं, जेब पर हल्के, लेकिन अक्सर खचाखच भरे.
82 किलोमीटर लंबे मोदिपुरम डिपो से जंगपुरा कॉरिडोर में से फिलहाल 55 किलोमीटर ही चालू है. बाकी का काम अभी बाकी है.
मेरठ साउथ नमो भारत स्टेशन पर सबसे ज़्यादा सवारियां होती हैं, जो मज़बूत दैनिक यात्री ट्रैफिक को दिखाता है. NCRTC के सर्वे के मुताबिक, मेरठ में शिफ्ट हो रहे परिवार हर साल स्थानीय अर्थव्यवस्था में 3 से 5 लाख रुपये का अतिरिक्त योगदान दे रहे हैं.
कुल आठ कॉरिडोर पहचाने गए हैं, जिनमें से पहले चरण में तीन — दिल्ली-मेरठ, दिल्ली-अलवर और दिल्ली-करनाल — बनाए जा रहे हैं. ये सभी कॉरिडोर सराय काले ख़ां पर मिलेंगे और एक-दूसरे से जुड़े होंगे, ताकि यात्रियों को ट्रेन बदलने की ज़रूरत न पड़े. दिल्ली-गाज़ियाबाद-मेरठ नमो भारत कॉरिडोर पहला है, जिसे लागू किया गया.
एक अधिकारी ने कहा, “दुनिया भर में ऐसे प्रोजेक्ट मौजूद हैं — लंदन का क्रॉसरेल, पेरिस का RER और स्पेन का सर्केनियास. जब नमो भारत पूरी तरह चालू हो जाएगा, यह एनसीआर में शहरी और क्षेत्रीय परिवहन की रीढ़ की हड्डी साबित होगा.”
यह मेट्रो सिर्फ दिल्ली को मेरठ के और करीब नहीं लाती, बल्कि बड़े शहर की एक झलक भी देती है. एसी वाले चमचमाते कोच उन प्रदूषण भरी बसों से बिल्कुल उलट हैं, जिनके लोग दशकों से आदी थे. दरवाज़े बंद होते ही सुनील नवभारत टाइम्स का गाज़ियाबाद एडिशन खोलते हैं. पहले पन्ने पर मोटे अक्षरों में लिखा है “वोट चोरी”. कांग्रेस नेता राहुल गांधी और चुनाव आयोग पर रिपोर्ट साथ-साथ छपी है. सुनील सुर्खियां पढ़ते हुए खिड़की से बाहर झांकते हैं.
रैपिड रेल की बड़ी-बड़ी खिड़कियों से मेरठ का मिला-जुला नज़ारा दिखता है. एलईडी होर्डिंग, सड़क किनारे ढाबे और नए-पुराने शॉपिंग मॉल. पुराने बाज़ार पीली रोशनी में जगमगाते हैं. रात को शटर गिरा दिए जाते हैं, लेकिन मिठाई की दुकानें देर रात तक खुली रहती हैं. बीकानेरवाला और हल्दीराम्स जैसे रेस्टोरेंट्स के बोर्ड मेट्रो की ऊंचाई तक पहुंचते हैं. वहीं, ढाबे छोटे-छोटे दुकानों में बसे हैं. आईआईटी-जेईई कोचिंग को प्रमोट करते होर्डिंग भी रास्ते भर दिखते हैं. बैंक्वेट हॉल भी RRTS कॉरिडोर के आसपास खुले हैं.
अक्टूबर 2023 से दिल्ली-मेरठ कॉरिडोर की मासिक सवारी 63,970 से बढ़कर जुलाई 2025 में 14,79,598 हो गई.
दशकों तक मेरठ की जीवनरेखा कोई मेट्रो स्टेशन नहीं बल्कि बेचैन बस अड्डे रहे, जो कामगारों को जोड़ते थे.

सोहराब गेट बस अड्डा हमेशा शोरगुल से भरा होता है. लंबी कतारों में बसें जगह के लिए धक्का-मुक्की करती हैं. कंडक्टर लगातार हॉर्न बजाकर यात्रियों को बुलाते रहते हैं. आवाज़ें दिल्ली, मुज़फ्फरनगर, हापुड़ और पश्चिमी यूपी के दूसरे शहरों के नाम पुकारती हैं.
55 साल के कुवंर पाल की नज़र बस अड्डे के प्रवेश द्वार पर टिकी है. माथा पोंछते हुए वे अलीगढ़ जाने वाली बस का इंतज़ार कर रहे हैं. इंतज़ार सामान्य से लंबा है. हर हफ्ते वे अलीगढ़ काम के लिए जाते हैं.
फूल बाग कॉलोनी में उनका परिवार 500 गज के घर में रहता है. पाल ने मेहनत करके अपने बच्चों को दिल्ली भेजा, जहां वे कमाई कर सकें और बस जाएं. उनका बेटा और बहू गुरुग्राम में विजय सेल्स में मैनेजर हैं. दिल्ली पहले दूर लगती थी, लेकिन अब गुरुग्राम का सफर मेट्रो नेटवर्क से जुड़ गया है.
पाल ने कहा, “पहले दिल्ली पहुंचने का मतलब था एक दिन का सफर. भीड़ में धक्का-मुक्की. गर्मी में बैठना. अब यह सफर तेज़ है, कम थकाने वाला और बसों से भी सस्ता है.”
क्रिकेट कनेक्शन
अगर रैपिड रेल और एक्सप्रेसवे मेरठ के बदलते चेहरे को दिखाते हैं, तो शहर की खेल इंडस्ट्री इसकी निरंतरता की याद दिलाती है. सुरजकुंड वही इलाका है जिसने मेरठ को वैश्विक नक्शे पर जगह दिलाई. पीढ़ियों से यहां के कारीगर क्रिकेट बैट, बैडमिंटन रैकेट और बॉक्सिंग ग्लव्स बना रहे हैं. दशकों तक यही शहर की आर्थिक धड़कन रहा है.
यहां की हवा ताज़ा तराशे गए बैट की बुरादे से भरी रहती है. चमड़े, गोंद और वार्निश की गंध हर तरफ फैली होती है. यही मेरठ का दिल है और कारोबार का हर भी. 50 साल से ज़्यादा पुराने छोटे-बड़े दुकानें यहां सिमटी हुई हैं.
इन्हीं दुकानों में से एक में बैठे हैं वीरेश कुमार. उनकी दुकान पर बैडमिंटन रैकेट और क्रिकेट बैट लाइन से सजाए गए हैं. यह दुकान उनके दादा ने 60 साल पहले खोली थी. काउंटर के पीछे की दीवारों पर हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरें, दादा-दादी की एक पुरानी सेपिया फोटो और हाथ से लिखे ‘शुभ लाभ’ के निशान भरे पड़े हैं. वीरेश का दिन भी काम से भरा रहता है.
दिल्ली से नज़दीकी बढ़ने के बाद, वीरेश को उम्मीद है कि कारोबार आने वाले सालों में कम से कम 30 फीसदी तक बढ़ेगा. उन्होंने कहा, “भीड़भाड़ बनी रहेगी, लेकिन हमारा शहर हमेशा हब रहेगा, बस अब और तेज़ी से आगे बढ़ेगा.”

एमएसएमई मंत्रालय और मेरठ के डिस्ट्रिक्ट इंडस्ट्रियल प्रोफाइल के अनुसार, यहां लगभग 35,200 छोटे-बड़े यूनिट्स चल रहे हैं, जिनमें करीब तीन लाख मज़दूर इस इंडस्ट्री की रीढ़ बने हुए हैं.
इस साल फरवरी में 16 सदस्यीय कमेटी बनाई गई थी, जिसमें छोटे कारीगर, निर्यातक और सरकारी अफसर शामिल हैं, मकसद है वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट योजना को मज़बूती देना. यहां की इंडस्ट्री तकनीक को भी आधुनिक बना रही है. मशीनी टूल्स अपनाए जा रहे हैं और निर्यात सर्टिफिकेशन की तैयारी भी चल रही है.
मेरठ व्यापार मंडल के महानगरीय अध्यक्ष शैंकी वर्मा आर्थिक उछाल से उत्साहित तो हैं, लेकिन सावधान भी.
वर्मा ने कहा, “मेट्रो नेटवर्क मेरठ के लिए दिल्ली के दरवाज़े खोलेगा, तो दिल्ली के लिए भी मेरठ के दरवाज़े खुलेगा और बड़े-बड़े लोग दिल्ली के बाज़ारों को ही तरजीह देंगे, लेकिन मज़दूर और हुनर यहां है, यही वजह है कि मेरठ की खेल इंडस्ट्री चलती है.”
ज़िले के उद्योग विभाग के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि रोज़गार बढ़ने वाला है. इस वक्त यहां की 60 फीसदी मज़दूर शक्ति प्रवासी है, जो आसपास के ज़िलों में रहते हैं,
उन्होंने कहा, “दिल्ली में जहां 500 वर्गमीटर के इंडस्ट्रियल प्लॉट की कीमत है, वहीं मेरठ में उतने दाम पर 4,000 वर्गमीटर मिल रहा है. उद्योग क्यों नहीं शिफ्ट होंगे? दिल्ली में ज़मीन के रेट आसमान छू रहे हैं, तो मेरठ अगला विकल्प बनना तय है.”
लेकिन मेरठ को अगली विकास लहर पकड़ने से पहले बहुत कुछ बदलना होगा. मेट्रो सेवा का उद्घाटन करते समय मोदी ने लोगों से कहा था कि इसकी देखभाल वैसी ही करें जैसे अपनी गाड़ी की करते हैं, लेकिन आज मेट्रो रेल के खंभों पर शहर की ग्रैफिटी दिखती है — नेताओं के पोस्टर, “नशा मुक्ति केंद्र…कॉल नाउ” की स्प्रे पेंटिंग और उखड़ते मोबाइल रिचार्ज के विज्ञापन.
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