कोल्हापुर: सुभाष नगर की एक संकरी गली में एक पुराने बरामदे के नीचे बने छोटे से वर्कशॉप में 60 साल के रमेश अपनी नुकीली छुरी से भूरे चमड़े की पट्टी के किनारों को बारीकी से तराश रहे हैं. यही तो आधार है उस कोल्हापुरी चप्पल का, जिसकी पहचान कभी हर पांव से जुड़ी थी. रमेश ये काम पिछले 45 साल से कर रहे हैं — चाहे ऑर्डर आते रहें या बंद हो जाएं, चाहे बाज़ार का रुख बदले या लोगों की पसंद.
उनकी उंगलियों की लय में अब भी वही धैर्य और सधेपन की छाया है, जो बरसों के अभ्यास से आती है, लेकिन आज, उस चमड़े की भीनी महक के बीच एक और एहसास घुला है — उम्मीद का. बरसों बाद उन्हें लग रहा है कि शायद अब कुछ बदल सकता है.
हाल ही में मिलान फैशन वीक में प्राडा ने जो सैंडल दिखाया, वह बिल्कुल वैसा ही था जैसा इस गली में जिसे लोग चप्पल गली कहते हैं — बनने वाले चप्पलों जैसा दिखता है. इसके बाद जो विवाद हुआ, वह वर्षों बाद कोल्हापुर के कारीगरों को मिली सबसे बड़ी तवज्जो थी. गुस्सा अब उम्मीद में बदल रहा है.
चौथी पीढ़ी के कारीगर और व्यापारी शुभम सातपुते ने कहा, “2000 के दशक की शुरुआत में, सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक सुभाष नगर में हथौड़ों की आवाज़ें लगातार गूंजती थीं. हालांकि, अब सब शांत हो गया है. सिर्फ बुज़ुर्ग लोग ही बचे हैं.” रमेश उन्हीं की वर्कशॉप इंगा लेदर्स में चप्पल बना रहे हैं. “यह हमारे लिए बहुत बड़ा मौका है.”
सतपुते ने कहा, ज्यादातर दलित समुदाय से आने वाले इन कारीगरों के लिए यह मौका सिर्फ अच्छी कमाई या पहचान का नहीं, बल्कि उनके श्रम को समाज में इज्ज़त दिलाने का भी है.
कोल्हापुरी चप्पल बनाना एक पारंपरिक घरेलू उद्योग है जो अब खत्म होने की कगार पर है — कम मांग, कम आमदनी और पहचान के संकट की वजह से. युवा पीढ़ी अब इस काम को अपनाना नहीं चाहती, जिससे यह कला धीरे-धीरे खोती जा रही है.
लेकिन प्राडा की कोल्हापुरी से प्रेरित सैंडल के कारण शुरू हुआ विवाद अब चीज़ों को बदल रहा है. यह सैंडल प्राडा के स्प्रिंग/समर 2026 मेन्सवियर कलेक्शन का हिस्सा था जिसे मिलान में लॉन्च किया गया.

प्राडा ने सैंडल की डिजाइन का भारतीय स्रोत नहीं बताया, लेकिन समानता साफ दिख रही थी. सोशल मीडिया पर गुस्सा भड़क उठा. करीना कपूर और नीना गुप्ता जैसी हस्तियों ने भी अपनी राय दी. यह हाल के वर्षों में सबसे साफ-सुथरे संस्कृति की चोरी के मामलों में से एक बन गया.
कोल्हापुरी चप्पल, जिसे 2019 में जीआई टैग मिला था, उस लंबी सूची में जुड़ गई जिसमें भारतीय चीज़ों को पश्चिमी रैंप पर नए नामों से बेचा गया — बिंदी, दुपट्टा जो स्कार्फ बना, कंबरबंद जो कमरबंद बना, झोले और मंडी बैग जो डिज़ाइनर टोट्स बन गए. आखिरकार, प्राडा ने कारीगरों को मान्यता दी और कोल्हापुर फिर से चर्चा में आ गया.
“एक ही रात में कोल्हापुरी चप्पल आम आदमी की चीज़ से लग्ज़री ब्रांड बन गई, सिर्फ इसलिए क्योंकि उसके साथ प्राडा का नाम जुड़ गया. इससे लोगों की नज़रों में इसे नई इज्ज़त मिली”
– ललित गांधी, अध्यक्ष, महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स, इंडस्ट्री एंड एग्रीकल्चर (MACCIA)
प्राडा को इतना विरोध झेलना पड़ा कि उनकी तकनीकी टीम को कोल्हापुर आना पड़ा. उन्होंने कारीगरों से मुलाकात की और भविष्य में पार्टनरशिप के संकेत दिए. ट्रेनिंग सेंटर्स और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस कारीगरी को आगे बढ़ाने की योजनाओं पर बात चल रही है.
लंबे समय तक अनदेखे रहे कारीगरों को अब एक ऐसा भविष्य दिख रहा है, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी.
सातपुते ने कहा, “यह कोल्हापुर और कोल्हापुरी चप्पल दोनों को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिला सकता है. यह उन युवाओं को भी वापस ला सकता है जिन्होंने ‘सम्मानजनक’ कॉर्पोरेट नौकरियों के लिए इस काम को छोड़ दिया था. अब अगर कोई कहे कि वह प्राडा जैसी लग्ज़री ब्रांड के लिए चप्पल बनाता है, तो उसे तुरंत सामाजिक सम्मान मिलेगा.”
वे अपने परदादा द्वारा 1902 में शुरू की गई विरासत को बचाए रखने की कोशिश कर रहे हैं.
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केवल चर्चा नहीं, कुछ ज़्यादा
प्राडा की टीम जब कोल्हापुर आई, तो इंगा लेदर्स के कारीगरों ने उन्हें “मौजे पुडा कापशी कोल्हापुरी चप्पल” की एक जोड़ी भेंट में दी — यह एक ओपन-टो (सामने से खुली) चप्पल होती है, जिसमें टी-शेप स्ट्रैप और खास किस्म की पुडा-शैली की ब्रेडिंग (बुनाई) होती है.
शुभम सातपुते के मुताबिक, यही डिज़ाइन पीढ़ियों से कारीगर बनाते आ रहे हैं और प्राडा की विवादित सैंडल भी इसी पर आधारित थी.
उन्होंने कहा, “उन्होंने वही पुराना डिज़ाइन इस्तेमाल किया है. इसी वजह से इतना बड़ा विवाद हुआ.” डिज़ाइन की असली कहानी सबको समझाने के लिए शुभम ने इंस्टाग्राम पर एक वीडियो भी बनाया, जिसमें उन्होंने इस डिज़ाइन की विरासत को बताया. यह वीडियो 5 लाख से ज़्यादा बार देखा गया. उनके अकाउंट के बाकी वीडियो भी काफी वायरल हुए. एक रील, जिसमें प्राडा की टीम उनकी दुकान पर आई थी, उसे 16 लाख (1.6 मिलियन) व्यूज़ मिले.

पिछले कुछ हफ्तों में शुभम के इंस्टाग्राम फॉलोअर्स 4,000 से बढ़कर 10,000 से ऊपर पहुंच गए और साथ ही उनकी बिक्री भी तेज़ी से बढ़ी है.
उन्होंने हंसते हुए कहा, “सोशल मीडिया की बदौलत मेरा सारा स्टॉक खत्म हो गया है.”
लेकिन स्थानीय कारीगर और दुकानदार बस थोड़े समय की सुर्खियों से संतुष्ट नहीं हैं. वे उत्सुकता और थोड़ी बेचैनी के साथ इंतज़ार कर रहे हैं — क्या वाकई प्राडा के साथ साझेदारी आगे बढ़ेगी?
शुभम ने कहा, “जब हमने उन्हें (प्राडा की टीम को) चप्पल बनाने की पूरी प्रक्रिया समझाई, तो उनकी आंखों में हैरानी साफ दिख रही थी. वे बार-बार पूछ रहे थे कि इतनी पतली ब्रेडिंग कैसे की जाती है.”
शिवाजी चौक पर कोल्हापुरी चप्पलों की दुकान चलाने वाले प्रसाद शेते ने कहा, “यह सिर्फ मुनाफे की बात नहीं है. अगर प्राडा के साथ साझेदारी होती है, तो इससे कारीगरों की ज़िंदगी बेहतर हो सकती है और युवा पीढ़ी के लिए इस पेशे को अपनाने की संभावना भी बढ़ेगी.”
उनकी नज़र महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स, इंडस्ट्री एंड एग्रीकल्चर (MACCIA) पर भी है.
शेते ने कहा, “हमने MACCIA से निवेदन किया है कि सुभाष नगर में एक ट्रेनिंग सेंटर शुरू किया जाए, जहां युवा लोग इस कारीगरी को आधुनिक और व्यवस्थित तरीके से सीख सकें.”

MACCIA के अध्यक्ष ललित गांधी ने बताया कि उन्होंने प्राडा से इस विचार पर चर्चा की है और सुझाव दिया है कि ब्रांड को कोल्हापुर में एक ‘एक्सीलेंस लैब’ खोलनी चाहिए, जहां कारीगर पारंपरिक तरीकों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय गुणवत्ता मानकों की ट्रेनिंग ले सकें.
शुभम मानते हैं कि प्राडा का नाम इस पेशे को युवा लोगों के लिए फिर से आकर्षक बना सकता है, खासकर जब वे अपने दोस्तों को कह सकें कि वे एक इंटरनेशनल लग्ज़री ब्रांड के लिए चप्पल बनाते हैं.
लेकिन साथ ही, वे मशीनों और बड़े पैमाने पर उत्पादन पर पूरा भरोसा नहीं करते.
उन्होंने कहा, “कोल्हापुरी कारीगरी की आत्मा इंसानी हाथों के स्पर्श में छिपी है.”

शुभम बताते हैं कि इन चप्पलों को कई बार पति-पत्नी की टीम मिलकर बनाती है, जहां पति कठिन शारीरिक काम करता है, वहीं पत्नी बारीक सजावट और डिज़ाइन संभालती है.
उन्होंने कहा, “ये तालमेल मशीनें नहीं कर सकतीं. एक चप्पल पर अगर ज़्यादा हाथ लगें, तो काम बिगड़ जाता है. मशीनें आएंगी, तो असली स्वाद चला जाएगा.”
प्राडा जैसे ब्रांडों के लिए ‘युनिकनेस’ एक मार्केटिंग पॉइंट हो सकता है, लेकिन कोल्हापुर के कारीगरों के लिए यह स्वाभाविक चीज़ है.
शुभम ने मुस्कुराते हुए कहा, “कोई भी दो हस्तनिर्मित कोल्हापुरी चप्पलें बिल्कुल एक जैसी नहीं होतीं. वो अपने-आप में ही कस्टमाइज़्ड होती हैं, बिना चाहे ही.”
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रोज़ाना की चप्पल से लग्ज़री फैशन तक
MACCIA के अध्यक्ष ललित गांधी ने कहा, पिछले पांच सालों में कोल्हापुरी चप्पल का कारोबार 4,000 करोड़ रुपये तक बढ़ा है और अब इसका अनुमानित बाज़ार मूल्य 15,000 करोड़ रुपये के आसपास है.
लेकिन उन्होंने यह भी साफ कहा कि ये आंकड़े मांग में किसी तेज़ बढ़ोतरी को नहीं दिखाते.
गांधी ने कहा, “बाज़ार का मूल्य इसलिए नहीं बढ़ा क्योंकि ज़्यादा चप्पलें बिकने लगीं, बल्कि इसलिए बढ़ा क्योंकि उत्पादन घटा है और महंगाई के कारण दाम ऊपर चले गए हैं.”
कोल्हापुर, जो 51 शक्तिपीठों में से एक का घर है, यहां आस-पास के जिलों से श्रद्धालु और पर्यटक नियमित रूप से आते हैं. इनमें से कई लोग लोकल बाज़ार से कोल्हापुरी चप्पल खरीदते हैं.
लेकिन दुकानदारों के मुताबिक, कोल्हापुरी चप्पल का वो आकर्षण नहीं रह गया है जैसा कुछ दूसरी पारंपरिक चीज़ों का होता है.
शेते ने कहा, “जिस तरह लोग बनारसी साड़ी के लिए बनारस जाते हैं, वैसा कोल्हापुरी चप्पल के लिए नहीं होता.”

निर्यात का स्तर भी अभी बहुत कम है. व्यापारियों का कहना है कि कम उत्पादन क्षमता और ठोस सरकारी या संस्थागत समर्थन की कमी की वजह से कोल्हापुरी चप्पलें ज़्यादातर स्थानीय बाज़ारों तक ही सिमटी हुई हैं. कई खरीदार तो अब सस्ती मशीन से बनी नकली चप्पलों की तरफ मुड़ गए हैं.
बाज़ार में कोल्हापुरी चप्पलों की पहचान भी उलझन में है, जहां एक समय ये आम लोगों की रोज़मर्रा की चीज़ मानी जाती थीं, अब उनके दाम इतने बढ़ गए हैं कि आम खरीदारों की पहुंच से बाहर हो गई हैं. उदाहरण के लिए 2015 में जो पुरुषों की कप्शी चप्पल 1,500–2,000 रुपये में मिलती थी, आज उसकी कीमत 2,400 से ऊपर हो गई है. वहीं, जो लोग इसे खरीद सकते हैं, वे इसे कोई खास स्टाइल स्टेटमेंट नहीं मानते. अब यही सोच बदलने की संभावना बन रही है.

ललित गांधी ने कहा, “कोल्हापुरी चप्पल जो आम आदमी की पहचान थी, वो एकदम से लग्ज़री का प्रतीक बन गई, सिर्फ इसलिए क्योंकि उसका नाम ‘प्राडा’ से जुड़ गया. इसने चप्पल को लोगों की नज़रों में एक अलग सम्मान दिला दिया.”
गांधी ने पहली बार 24 जून को प्राडा की कोल्हापुरी से प्रेरित चप्पल देखी, जब उनके भतीजे ने उन्हें मिलान फैशन शो के इंस्टाग्राम रील्स दिखाए. अभी वे यह समझ ही रहे थे कि क्या हो रहा है, तब तक कुछ कारीगर और दुकानदारों का ग्रुप उनसे मिलने पहुंचा. वह लोग नाराज़ थे कि उनकी कला की नकल की गई, लेकिन कोई श्रेय नहीं दिया गया. उन्होंने गांधी से इस पर एक्शन लेने की अपील की.
गांधी ने 25 जून 2025 को प्राडा को ईमेल लिखा. इस मेल में उन्होंने ब्रांड से कहा कि — वे सार्वजनिक रूप से कोल्हापुरी डिज़ाइन की प्रेरणा को स्वीकार करें और राजस्व में से कुछ हिस्सा स्थानीय कारीगरों के साथ साझा करें क्योंकि इस चप्पल की कीमत उन्होंने करीब 1,16,000 रुपये रखी है.
प्राडा ने अपने जवाब में माना कि डिज़ाइन वास्तव में कोल्हापुरी चप्पल पर आधारित है, लेकिन कंपनी ने कहा कि डिज़ाइन का श्रेय वो तभी देंगी जब चप्पल की कमर्शियल लॉन्चिंग होगी, जिसकी तारीख अभी तय नहीं है.
गांधी ने बताया, “बाद में 11 जुलाई को ज़ूम कॉल में, हमने प्राडा से गुज़ारिश की कि वे सीधे कोल्हापुर के कारीगरों से माल खरीदें और हमने यह भरोसा भी दिलाया कि वे उनकी क्वालिटी स्टैंडर्ड्स को पूरा कर पाएंगे.”
इसके चार दिन बाद, प्राडा की टेक्निकल टीम कोल्हापुर पहुंच गई.

शुभम सातपुते ने बताया, “मैंने उनकी आंखों में हैरानी साफ देखी.” शुरुआत में प्राडा की टीम को लगा कि ये चप्पलें मशीन से बनी हैं, लेकिन जब उन्होंने वर्कशॉप में हर स्टेप को हाथ से करते हुए देखा, तो वे चौंक गए.
सातपुते ने कहा, “जैसे-जैसे हमने उन्हें पूरा प्रोसेस समझाया, उनकी आंखों में आश्चर्य झलकने लगा.” टीम ज़्यादा बोली नहीं, लेकिन उनकी रुचि और जिज्ञासा साफ दिख रही थी.
उन्होंने कारीगरों से लगातार सवाल पूछे, “उन्होंने कई तकनीकी सवाल पूछे, जैसे पतली चोटी जैसी बेल्ट कैसे बनाई जाती है.” इसके बाद, प्राडा ने एक औपचारिक पत्र में कारीगरों को लेकर अपना रुख साफ किया.
उन्होंने MACCIA को लिखे पत्र में कहा, “हम स्वीकार करते हैं कि हाल ही में प्राडा मेन्स 2026 फैशन शो में दिखाई गई चप्पलें पारंपरिक भारतीय हस्तशिल्प जूतों से प्रेरित हैं, जिनका इतिहास सदियों पुराना है. हम इस भारतीय कला की सांस्कृतिक अहमियत को गहराई से समझते हैं.”
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कोल्हापुरी चप्पल बनाने की कला
कोल्हापुरी चप्पलें बनाने की परंपरा दो हाशिए पर खड़े समुदायों पर टिकी होती है. इसकी शुरुआत होती है धोर समुदाय से, जो कोल्हापुर से करीब 30 किलोमीटर दूर इचलकरंजी में रहते हैं और कच्ची खाल को टैन (संधारित) करने का काम करते हैं.
हर इलाके की टैनिंग की अपनी खास शैली होती है. कोल्हापुर की पहचान है इसका “बैग-टैन” तरीका, जिसमें वनस्पति रंग (वेजिटेबल डाई) का इस्तेमाल होता है और पूरा प्रोसेस 15 से 22 दिन तक चलता है.
सातपुते ने बताया, “ये बिल्कुल अचार बनाने जैसा है — जैसे हम नमक, मसाले और तेल से अचार तैयार करते हैं. हम खाल को सुरक्षित रखने के लिए बबूल की छाल और हिरडा (एक फल) जैसे प्राकृतिक तत्वों का इस्तेमाल करते हैं.”

भैंस की खाल का रंग प्राकृतिक रूप से गहरा होता है, लेकिन कोल्हापुरी चप्पलों का पहचान भूरा-हल्का रंग होता है. सातपुते बताते हैं कि ये रंग प्राकृतिक टैनिंग एजेंट्स से आता है. अगर लेदर का रंग कुछ और है, तो समझिए उसमें रासायनिक ट्रीटमेंट हुआ है.
जब खाल तैयार हो जाती है, तो धोर समुदाय उसे बेच देता है चांभार समुदाय के स्थानीय कारीगरों को, जो फिर उसे कोल्हापुरी चप्पल का रूप देते हैं. ये चप्पलें आमतौर पर चप्पल गली की संकरी और कच्ची गलियों के किनारे बने छोटे-छोटे घरों में बनाई जाती हैं.
ऐसे ही एक घर में, हरी फूलों वाली साड़ी पहने, मझोली उम्र की एक महिला भारती, फर्श पर पालथी मारकर बैठी हैं और भेड़ की टैन की हुई खाल की पट्टियों की चोटी बना रही हैं.
इस समुदाय की महिलाएं बारीक कारीगरी का काम करती हैं, जैसे कि चोटी बनाना, डिज़ाइन बनाना और चप्पल में टी-स्ट्रैप को अंगूठे के छल्ले से जोड़ना.

53 साल की भारती, जिनके पास चप्पलों के कई अधबने बेस एक तरफ रखे हैं, ने कहा, “ये काम मैंने अपने पिता से सीखा था और बाद में मेरे पति ने मुझे कप्शी चप्पल की पट्टी में लगने वाली बारीक चोटी बनाना सिखाया.”
अच्छे दिन पर उन्हें 500 से 1,000 रुपये तक की कमाई हो जाती है, लेकिन मानसून में काम कम हो जाता है.
इनमें से कई दुकानें अब दूसरी, तीसरी और चौथी पीढ़ी के लोग चला रहे हैं. उनके लिए ये दुकानें सिर्फ व्यापार का ज़रिया नहीं, बल्कि एक पवित्र स्थान हैं. ग्राहक जब अंदर आते हैं, तो उनसे जूते बाहर उतारने की उम्मीद की जाती है. अंदर की हवा में गुलाब और चंदन की खुशबू महसूस होती है.

प्रसाद शेते, जो अपने पिता की 70 साल पुरानी दुकान चला रहे हैं, बताते हैं कि कोल्हापुरी चप्पलों की कई वैरायटी होती हैं, लेकिन चार मुख्य स्टाइल हैं: कप्शी, खास कोल्हापुरी, कुरुंदवाड़ी और बुवाड़ी. इन सभी के अंदर भी कई उपप्रकार होते हैं.
फर्क होता है उनके ‘कान’ (चप्पल के साइड का उठता हुआ हिस्सा), चोटी के डिज़ाइन, पत्ते, टी-स्ट्रैप, सिलाई, रंग और सजावट में.
शेते के मुताबिक, चप्पल में इस्तेमाल होने वाली चमड़े की किस्म भी अलग होती है और यही कीमत पर असर डालती है. भैंस की खाल सबसे सस्ती होती है, जबकि बैल की खाल सबसे महंगी. पहले गाय की खाल सबसे महंगी मानी जाती थी, लेकिन अब बूचड़खानों के बंद होने से वह मिलना बंद हो गई है.
समय के साथ कारीगरों ने बाज़ार की ज़रूरतों को देखते हुए रबर के सोल का इस्तेमाल भी शुरू कर दिया है. शेते की दुकान में, जानवर की खाल और रबर सोल से बनी एक जोड़ी चप्पल 600-700 रुपये में मिलती है, जबकि पूरी तरह पारंपरिक तरीके से सिर्फ चमड़े से बनी चप्पल 1,800 रुपये से शुरू होती है.
उन्होंने कहा, “अगर दुर्लभ खाल का इस्तेमाल किया जाए, तो कीमत 30,000 से 35,000 रुपये तक पहुंच सकती है.”
कोल्हापुर चप्पल एसोसिएशन के अनुसार, 20 साल पहले कोल्हापुर में 10,000 से ज़्यादा कारीगर थे. अब सिर्फ 2,000 से 3,000 कारीगर ही ये हुनर जारी रखे हुए हैं.
सातपुते की वर्कशॉप में अब 12-13 अनुभवी कारीगर काम करते हैं, जिनकी उम्र 40 साल से ज़्यादा है, लेकिन वे चाहते हैं कि इन झुर्रीदार, अनुभवी हाथों के साथ नए, उत्साही हाथ भी जुड़ें.
शुभम ने कहा, “यही एक तरीका है जिससे यह 800 साल पुरानी कला ज़िंदा रह सकती है.”
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