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Thursday, 19 December, 2024
होमफीचर'4 दिन की वर्दी के लिए भी जान दे सकता हूं'- दो अग्निवीरों की आत्महत्या और भारत के बेरोजगारों की कहानी

‘4 दिन की वर्दी के लिए भी जान दे सकता हूं’- दो अग्निवीरों की आत्महत्या और भारत के बेरोजगारों की कहानी

जब से सेना ने अग्निपथ भर्ती प्रक्रिया शुरू की है, तब से निराशा से जूझते उम्मीदवारों द्वारा अपने जीवन को खत्म करने के कई मामले सामने आए हैं.

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सुमित कुमार अपनी पूरी ताकत के साथ दौड़ लगा रहे थे, मानो कल उनके लिए कभी आएगा ही नहीं. 23 साल की उम्र में भारत की सेवा करने का यह उनका आखिरी मौका था. उन्होंने 1.6 किलोमीटर सर्किट के आखिर तक अपने जज्बे को बनाए रखा. लेकिन जैसे ही वह लाइन पार करते, उससे पहले रिक्रूटर्स ने ‘फिनिशिंग रोप’ को जमीन पर गिरा दिया. वह हताश हो गए. कुमार जान गए थे कि भारतीय सेना के अग्निवीर फिजिकल फिटनेस टेस्ट में वह फेल हो चुके हैं और सेना के दरवाजे अब उनके लिए कभी नहीं खुलेंगे.

कुमार 24 अगस्त 2022 को उत्तराखंड की पहाड़ियों में अपने गांव लौट आए. उन्होंने अपने भाई से फोन पर बात की. रात का खाना भी नहीं खाया. अपने माता-पिता से ‘गुड नाइट’ कहा और अपने कमरे में चले गए. आधी रात को जब पूरा गांव सो रहा था, कुमार की आंखों में नींद नहीं थी. अजीब सी बैचेनी थी और दिमाग अशांत था. वह अपने बिस्तर से उठे और अपने कमरे में फांसी लगा ली.

Sumit Kumar's mother holding his passport photo which he used to attach in various recruitment forms | Jyoti Yadav, ThePrint
सुमित कुमार की मां के पास उनका पासपोर्ट फोटो है जिसे वह विभिन्न भर्ती प्रपत्रों के साथ/ज्योति यादव/दिप्रिंट

छह महीने पहले सरकार की चार साल की अग्निपथ योजना को लेकर पूरे देश में पूरे हिंसक विरोध शुरू हो गया था. हालांकि यह विरोध ज्यादा लंबे समय तक टिक नहीं पाया था, लेकिन बता गया कि देश के युवाओं के बीच नौकरी की ललक कितनी गहरी है. लेकिन अब इस चार साल की नौकरी के लिए युवाओं के बीच मारा-मारी और बढ़ती आत्महत्याएं भारत के बेरोजगार युवाओं की हताशा की कहानी को साफतौर पर बयां कर रही है.

जब से भारतीय सशस्त्र बलों ने भर्ती प्रक्रिया शुरू की है, तब से मीडिया में निराश हो चुके युवाओं के अपने जीवन को खत्म करने के कई मामले सामने आ चुके हैं. भर्ती में असफल युवाओं की आत्महत्या और उनके टूटे हुए परिवारों की सभी कहानियां एक ही जैसी हैं- ‘उत्तराखंड के 20 साल के युवक ने अग्निवीर परीक्षा में असफल होने पर आत्महत्या की’, ‘उत्तराखंड: अग्निवीर भर्ती में असफल होने पर 23 साल के युवक ने जान दी, ‘हरियाणा: जींद आर्मी के उम्मीदवार ने अग्निपथ के लिए खत्म की जिंदगी, इंतजार में गुजारे थे दो साल’.

उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, उत्तराखंड और भारत के अन्य हिस्सों में युवाओं के लिए सेना की भर्ती प्रक्रिया में फेल हो जाने का मतलब जिंदगी में उनके लिए सब कुछ खत्म होने जैसा है.

कुमार की तरह 22 साल के विक्रांत सोम ने भी सेना में शामिल होने की तैयारी में अपने कई कीमती साल लगाए थे. वह आपने आस-पास के लोगों से कहते थे, ‘चार साल भूल जाओ, मैं तो चार दिन की सेना की वर्दी के लिए भी मर सकता हूं.’

Vikrant Som's parents holding his framed photo in their verandah | Jyoti Yadav, ThePrint
विक्रांत सोम के माता-पिता अपने बरामदे में उनकी फ्रेम की हुई फोटो पकड़े हुए/ ज्योति यादव/दिप्रिंट

15 अक्टूबर को फेल हो जाने के तीन दिन बाद उन्होंने खुद को फांसी लगा ली. कुमार और सोम उन लाखों भारतीयों में से थे, जिन्होंने सेना के साथ चार साल की नौकरी ‘अग्निपथ योजना’ के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगाया हुआ था. सितंबर 2022 तक, 96 अग्निवीर भर्ती रैलियों में 40 हजार पदों के लिए 35 लाख से ज्यादा उम्मीदवारों ने प्रतिस्पर्धा की थी.

शहरी भारत कम से कम तीन दशक पहले ही सेना की नौकरियों से अपना मन हटा चुका है. आज ज्यादातर उम्मीदवार छोटे शहरों और गांवों के बेरोजगार युवा हैं. 2020 और 2021 में भर्ती अभियान नहीं हो सका था. लेकिन जब इस साल हुआ तो उम्मीदवारों की संख्या काफी बढ़ गई.

मेजर जनरल डॉ यश मोरे (रिटायर्ड) ने कहा, ‘पहले हर साल भर्ती प्रक्रिया हुआ करती थी, तो युवाओं को कई मौके मिल जाया करते थे. लेकिन इस बार कई सालों के बाद उनके लिए ये दरवाजा खुला है और उनके पास ज्यादा समय नहीं बचा है. अब बैच बड़े हैं और गलाकाट प्रतियोगिता है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘अनिश्चितता उनके दीमाग पर हावी हो गई है. मुझे लगता है कि फौजी (सेना अधिकारी) का आकर्षण खत्म होने में अभी दो या तीन साल और लगेंगे. और तब युवा बेहतर वेतन और भत्तों के साथ अन्य नौकरियों की तरफ मुड़ जाएंगे.’

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की एक रिपोर्ट के अनुसार, अक्टूबर में ग्रामीण बेरोजगारी दर सितंबर में चार साल के निचले स्तर 6.4 फीसदी से बढ़कर 7.8 फीसदी हो गई. लेखकों ने अक्टूबर में श्रम भागीदारी दरों में गिरावट को रेखांकित किया था. उन्होंने रिपोर्ट में लिखा, ‘यह एक बड़ी चिंता’ का कारण है. हालांकि यह एक मामूली गिरावट है, लेकिन यह ‘मई से लगातार 40 फीसदी से नीचे बनी हुई है. सही मायने में देखा जाए तो यह जनवरी से नीचे बनी हुई है, क्योंकि तब से लेकर अब तक यह सिर्फ अप्रैल में ही 40 प्रतिशत से ऊपर गई है.’

अग्निवीर उम्मीदवारों के बारे में हर आंकड़े के पीछे राष्ट्रवाद और उम्मीदों की व्यक्तिगत त्रासदी है जो सनक और निराशा में बदल जाती है.

एक बेहतरीन धावक जो अपनी आखिरी दौड़ हार गया

यूपी के मेरठ से तीस किलोमीटर दूर, कपसढ़ गांव के लोग अपने घरों के पीछे से आने वाली नौजवानों के दौड़ने की आवाज़ से जागते हैं. उनके जूतों की तेज धमक और लय जमीन से टकराते हुए शोर करते हुए वहां से निकलती है.

राधे श्याम एक पूर्व सेना अधिकारी और विक्रांत के चाचा ने कहा, ‘यह मेरठ जिले के 24 राजपूत बहुल गांवों में से एक है. यहां के ज्यादातर युवा राजपूत रेजिमेंट के लिए ट्रेनिंग लेते हैं. यह रोजगार और सम्मान से जुड़ी बात है.’

सुबह की इस दौड़ के बाद आपको यहां के युवा परिवार के गन्ने के खेतों में काम करते, मवेशियों को चराते या फिर ट्रैक्टर चलाते नजर आएंगे. इस साल सात हजार युवाओं ने अग्निवीर भर्ती अभियान के लिए पंजीकरण कराया था. इसमें से विक्रांत समेत 50 लोग इसी गांव से थे.

अन्य रंगरूटों से छह फीट ऊंचा विक्रांत फिजिकल टेस्ट पास करने के लिए सबसे उम्दा खिलाड़ी था. परिवार के एक सदस्य ने कहा, ‘वह एक सर्वश्रेष्ठ रेसर और हर चीज के प्रति सकारात्मक नजरिया रखने वालों में से था.’

विक्रांत का टीनएज चचेरा भाई निशांत सोम अपने इंस्टाग्राम अकाउंट को स्क्रॉल करते हुए आहत परिवार और दोस्तों को उसकी तस्वीरें दिखा रहा था. लगभग सभी तस्वीरें और हैशटैग सेना को लेकर थीं. एक में विक्रांत को बाइसेप्स कर रहा था, तो दूसरे में बड़े गर्व के साथ अपने सिक्स-पैक एब्स दिखा रहा था. निशांत ने कहा, ‘यह सब उसने बिना जिम जाए किया था.’ निशांत रोजाना की दौड़ में विक्रांत के साथ बना रहता था.

कैमरे की ओर देखकर मुस्कराती हुई विक्रांत की एक तस्वीर पर उन्होंने अपनी इंस्टाग्राम पोस्ट में लिखा था, ‘हमारे पास लौट आओ.’

Vikrant's cousin has put a story with the caption, "Come back, brother" | Jyoti Yadav, ThePrint
विक्रांत के चचेरे भाई ने स्टोरी डाली जिसके कैप्शन में लिखा है, ‘वापस आ जाओ भाई’/ ज्योति यादव/दिप्रिंट

उनके बेटे को मरे हुए दो महीने बीत चुके हैं. लेकिन 46 वर्षीय उनके पिता सुधीर सोम, हर दिन उस ‘मनहूस’ सुबह के दर्द से गुजरते हैं, जब उन्होंने विक्रांत की लाश को देखा था.

सुधीर ने कहा, ‘हमारे पास आठ बीघा ज़मीन है. वह सेना के अलावा कुछ और कर सकता था.’ वह दसवीं पास हैं और खेती करते हैं.

सेना में भर्ती होना विक्रांत का बचपन का सपना था. हर बार जब उनके चाचा सेना की बनियान और टी-शर्ट लाते थे, तो उनकी आंखों में एक अजीब सी चमक आ जाती थी.

उनकी मां कविता देवी दूध, बादाम और खजूर से उनके सपनों को पूरा करने में उनके साथ बनी रहती थीं. 42 साल की कविता बताती हैं, ‘मैं रोज रात काले चने भिगोती थी, ताकि सुबह उठकर वह खा सके.’ कविता याद करते हुए फूट-फूट कर रोने लगती हैं.

सिविल सेवा प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने वाले उम्मीदवारों की तरह, विक्रांत को पता था कि सेना के लिए प्रशिक्षण एक मैराथन है, स्प्रिंट नहीं. यह उनकी पहली अस्वीकृति नहीं थी. बारहवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षाओं में 65 प्रतिशत अंक लाने के बाद उन्होंने सहारनपुर में 2018 में अपनी पहली भर्ती रैली के लिए पंजीकरण कराया था. लेकिन उसमें उन्हें सफलता नहीं मिल पाई थी. उनके पिता ने याद करते हुए बताया, ‘उसने कहा कि वह गिर गया क्योंकि किसी ने उसका पैर खींच लिया था और वह दौड़ पूरी नहीं कर सका.’

One of Vikrant's photos hanging from the wall near the kitchen | Jyoti Yadav, ThePrint
किचन के पास दीवार से लटकी विक्रांत की एक तस्वीर | ज्योति यादव | दिप्रिंट

लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. वह 18 साल का था, उसके सामने अभी कम से कम चार-पांच मौके और थे. विक्रांत ने अगले साल बागपत में एक रैली में फिर से कोशिश की. लेकिन वह निशाने से चूक गया. लेकिन उसने हार नहीं मानी. वह फिर से अपनी ट्रेनिंग में जी-जान से जुट गया. समय अभी भी उसके पक्ष में था.

उनके छोटे चचेरे भाई निशांत ने कहा, ‘तब उन्होंने 5.40 मिनट में 1600 मीटर की दौड़ में महारत हासिल करने को अपना मिशन बना लिया. वह नॉन-स्टॉप दौड़ते रहे.’

विक्रांत तैयार थे. लेकिन जब कोविड-19 की मार पड़ी तो सेना ने सभी भर्तियों को स्थगित कर दिया. उनका समय निकल चुका था. और इस साल उनका यह आखिरी प्रयास था.


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अग्निपथ के नतीजे

काफी लंबे समय से बंद भर्ती के बाद, सरकार ने जून 2022 में एक नई योजना की घोषणा की. इसे अग्निपथ नाम दिया गया. इसमें 17.5 से 21 साल की उम्र वाले युवा ही ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ के रूप में नियुक्त किए जाने थे. और यह नौकरी भी सभी के लिए जीवनभर के लिए नहीं थी. इसमें सेवा के लिए सिर्फ चार साल का कार्यकाल दिया गया. प्रत्येक बैच में से केवल 23 प्रतिशत अग्निवीरों या रंगरूटों को अगले 15 वर्षों के लिए भारतीय सेना की सेवा के लिए चुना जाना होता है.

लाखों भारतीय युवाओं के लिए यह एक विश्वासघात की तरह आया. इस रक्षा नीति सुधार का पूरे देश में हिंसक विरोध हुआ. बिहार, झारखंड, यूपी, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्य इस विरोध का केंद्र बन गए.

भीड़ ने ट्रेनों, पुलिस स्टेशनों और बसों को आग लगा दी और भारतीय रेलवे को 700 करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हुआ. जून तक अकेले यूपी में ही करीब 2,000 लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका था. सामूहिक एफआईआर हिंसा के इस तूफान को रोकने के लिए बहुत कम थी.

‘क्या आप इसे ही कहते हैं ‘जय जवान जय किसान’? गुस्साए प्रदर्शनकारियों ने कुछ इस तरह के नारे देकर अपना गुस्सा जाहिर किया था.

सरकार ने लोगों का गुस्सा दबाने के लिए आयु सीमा को बढ़ाकर 23 साल कर दिया.

पटना से लेकर पंजाब और केरल तक लोगों ने इस स्कीम को चुनौती देने के लिए देश के हाई कोर्ट का रुख किया. इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जिसने अपने समक्ष दायर याचिकाओं को दिल्ली हाई कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया.

सेवानिवृत्त और सेवारत सैन्य विशेषज्ञ व सेना के शीर्ष अधिकारी अग्निपथ स्कीम पर अलग-अलग राय रखते हैं. लेफ्टिनेंट जनरल एच.एस. पनाग (रिटायर्ड) ने इसे महत्वाकांक्षी लेकिन त्रुटिपूर्ण कहा. तो वहीं लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ) प्रकाश मेनन (सेवानिवृत्त) ने तर्क दिया कि भर्ती के लिए योग्यता मानदंड होना चाहिए. भर्ती योग्य लोगों की संख्या कितनी है इस आधार पर चयन नहीं किया जा सकता है.

फिलहाल तो अग्निपथ ही भारतीय सशस्त्र बलों में जाने का एकमात्र रास्ता बचा है.

हाल ही में रक्षा राज्य मंत्री अजय भट्ट ने संसद को बताया कि सेना, नौसेना और वायु सेना में 1,35 लाख रिक्तियां हैं. लेकिन आवेदकों की संख्या इससे काफी अधिक है.

भर्तियों की घोषणा के एक महीने के अंदर जुलाई में ही वायु सेना को 3,000 अग्निवीरों के पदों के लिए लगभग 8 लाख आवेदन प्राप्त हो गए थे. इसी समय भारतीय नौसेना को समान संख्या में रिक्तियों के लिए दस लाख आवेदन मिले थे.

उदासी छा गई

विक्रांत सोम और सेना के अन्य उम्मीदवार इस नई योजना से किसी भी तरह से खुश नहीं थे.

उनकी मां कविता देवी ने कहा, ‘लेकिन मेरे बेटे ने न तो शिकायत की और न ही किसी विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया. पहली रैली के लिए धैर्यपूर्वक इंतजार किया.’ यहां तक कि बीच के महीनों में वह अपने आर्मी से रिटायर हो चुके अंकल के साथ ट्रेनिंग के लिए मेरठ भी गया था.

विक्रांत 10 अक्टूबर को भर्ती रैली के लिए मुजफ्फरनगर पहुंचा था. भारी बारिश के बावजूद 8,000 से ज्यादा युवा फिजिकल ट्रेनिंग के लिए वहां मौजूद थे. बारिश नहीं रूकी तो भर्ती अधिकारियों ने दौड़ रोक दी और रैली को 12 अक्टूबर तक के लिए स्थगित कर दिया. अधिकांश उम्मीदवार घर नहीं लौटे क्योंकि वह काफी दूर रहते थे.

कपसढ़ गांव के ही एक अन्य उम्मीदवार ने कहा. ‘हमने पूरा दिन रेलवे स्टेशनों और बस स्टैंडों पर भीगते हुए बिताया. न खाना था न पानी. लेकिन कोई भी घर जाकर वापस नहीं आना चाहता था.’ उन्होंने दो साल से ज्यादा समय तक इसके इंतजार में बिताया था. एक और दिन ‘का इंतजार कोई बड़ी बात नहीं थी’.

विक्रांत ने मनोबल बढ़ाने और अंतिम समय की सलाह के लिए मेरठ में अपने चाचा को फोन किया.

उनके चाचा राधे श्याम ने याद करते हुए बताया, ‘मैंने उसका मनोबल बढ़ाने की कोशिश की. उससे कहा कि एक सैनिक को इन्हीं कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है. मैंने उसे शुभकामनाएं दीं.’ वह मेरठ में एक अन्य सेवानिवृत्त सेना अधिकारी के साथ छोटे लोन और बैंकिंग उद्देश्यों के लिए एक ‘फाइनेंस शॉप’ चलाते है. वह जानते थे कि रैलियों में कितना कड़ा मुकाबला होता है. उन्होंने अपने भतीजे को आश्वासन दिया कि अगर वह इस बार सफल नहीं हो पाया तो उसे एक छोटा बिजनेस जमाने में उसकी मदद करेंगे.

12 अक्टूबर की दोपहर करीब 2 बजे विक्रांत 400 अभ्यर्थियों के साथ दौड़ रहे थे. पहली बाधा के लिए उम्मीदवारों को 1.6 किलोमीटर की दौड़ पूरी करनी होती है. रिक्रूटर एक ‘फाइंडिंग रोप’ के साथ दोनों तरफ खड़े होते हैं, जिसे वे 5.40 मिनट के बाद गिरा देते हैं. जो लोग रस्सी को गिराए जाने से पहले पार कर लेते हैं वे चयन के पहले दौर में पहुंच जाते हैं.

विक्रांत के साथ रैली में शामिल एक अन्य उम्मीदवार विशाल कुमार ने आरोप लगाते हुए कहा, ‘लेकिन उन्होंने 5.40 मिनट से पहले ही फाइंडिंग रोप को गिरा दिया था.’

विक्रांत को घर लौटने में बहुत शर्म आ रही थी. लेकिन उनकी दादी शांति देवी ने उन्हें जैसे-तैसे वापस आने के लिए मना लिया.

शांति देवी ने बताया कि वह फोन पर सिसक रहा था. उसने मुझसे कहा ‘बीबी, मैं रेस क्लियर नहीं कर सका.’ मुझे नहीं पता था कि वह कहां है, लेकिन मैंने उसे याद दिलाया कि उसके हीरो राधे श्याम भी चार प्रयासों के बाद ही फिजिकल टेस्ट पास कर पाए थे.

वह आखिरकार घर लौट आया लेकिन उसने करियर के अन्य विकल्पों पर विचार करने से इनकार कर दिया.

उनकी दिनचर्या पूरी तरह से बदल गई थी. भर्ती रैली से पहले वह सुबह 4 बजे उठकर मवेशियों को चराते थे और फिर तीन घंटे तक खुद को ट्रेन करने के लिए दौड़ लगाते थे. इसके बाद अपने पिता का हाथ बंटाने के लिए खेतों की तरफ निकल जाते थे. अब दौड़ लगाने के लिए कुछ बचा ही नहीं था.

उनके चचेरे भाई ने बताया, ‘CISF (केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल) को सफलतापूर्वक पास करने के बाद परीक्षा (फिजिकल) का उनके लिए कोई मतलब नहीं था. उसने दिसंबर में होने वाली लिखित परीक्षा की तैयारी बंद कर दी थी.’ इसके बजाय वह अब अपने परिवार और दोस्तों से दिवाली मनाने के लिए पटाखे इकट्ठे करने के लिए कहने लगा था.

उसके चचेरे भाई ने कहा, ‘लेकिन दिवाली से दस दिन पहले उसने ऐसा कदम उठा लिया था.’ वह विक्रांत के पटाखे इक्ट्ठा करने के अनुरोध से हैरान थे.

15 अक्टूबर की सुबह करीब 3 बजे विक्रांत मवेशियों को चराने के लिए निकले थे. उसके बाद सुबह 7 बजे वह ट्रैक्टर को खेतों की ओर ले गए. और फिर लौट कर कभी नहीं आए.

उनकी मां ने कहा, ‘मैंने उसे 12 बार फोन किया. उसने अपना फोन नहीं उठाया.’ सुबह के 11 बज गए थे. लेकिन उसका कोई अता-पता नहीं था. वह पागल सी हो गई और अपने पति और परिवार के एक अन्य सदस्य से उसे ढूंढ कर लाने के लिए कहा. उनके चाचा विपिन सोम ने दर्द भरी आवाज में कहा, ‘और हमने उसे ढूंढ लिया. वह शीशम के पेड़ से लटका हुआ था.’

The field where Vikrant hanged himself, one of his uncles standing at one corner. The family got rid of all the rose wood trees, as it would remind them of the horrible visual of their son hanging | Jyoti Yadav, ThePrint
विक्रांत के एक चाचा उसी खेत में जहा उसने खुद को फांसी लगा ली. परिवार ने सभी शीशम के पेड़ों को कटवा दिया क्योंकि वे उसकी मौत का भयानक मंज़र याद दिलाते थे | ज्योति यादव | दिप्रिंट

बाद में उन्होंने बाग के सभी आठ पेड़ों को कटवा दिया था. लेकिन कुछ भी उस दर्द को दूर नहीं कर सका.

विपिन ने कहा, ‘हर बार जब भी मैं वहां जाता हूं और चारों ओर देखता हूं, तो मुझे उसका शरीर ही दिखाई देता है.’

विक्रांत के आखिरी व्हाट्सएप स्टेटस पर लिखा था, ‘जीवन में कुछ भी हासिल करने के लिए व्यक्ति को पर्याप्त परिपक्व होना चाहिए.’ एक मित्र को लिखे विक्रांत के वो अंतिम शब्द उसकी पीड़ा की गहराई को समझने के लिए काफी हैं. उन्होंने लिखा था, ‘मैं खुद से शर्मिंदा हूं. मैं उस दौड़ में फेल हो गया. मैं अपने चाचा का सामना कैसे करूंगा?’

यह सोच अकेले विक्रांत की नहीं है. पूरे ग्रामीण भारत में युवाओं के विचार ऐसे ही हैं, जहां युवा प्रतिष्ठा और सम्मान के लिए भारतीय सेना की ओर देखते हैं.

मेजर जनरल नीरज बाली (सेवानिवृत्त) ने कहा, ‘उनके लिए सेना मर्दानगी जताने का जरिया है. यह एक जुनून है.’


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इंतजार, इंतजार और सिर्फ इंतजार

ऐसा नहीं था कि सोम और कुमार के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था. दरअसल उनके दिलो-दिमाग पर सेना की नौकरी छाई हुई थी. वह इससे इतर कुछ नहीं सोच पाते थे.

विक्रांत सोम ने CISF के लिए फिजिकल टेस्ट पास किया था और सुमित कुमार ने उत्तराखंड पुलिस भर्ती अभियान के लिए टेस्ट पास ही किया था. लेकिन दोनों में से किसी की भी लिखित परीक्षा देने में रुचि नहीं थी.

राधे श्याम ने कहा, ‘उसका सीधा सा जवाब था, ‘मैं सीआईएसएफ में नहीं जाऊंगा. मैं सेना में शामिल होना चाहता हूं.’

सुमित ने भी सेना से परे देखने की सभी सलाहों को नजरअंदाज कर दिया. उनके 55 साल के पिता ताजवर सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘वह एक पुलिसकर्मी नहीं बनना चाहता था. हालांकि अपनी रफ्तार को जारी रखने के लिए उन्होंने फिजिकल टेस्ट के लिए रजिस्ट्रेशन कराया. यह सेना में भर्ती के लिए उनकी ताकत को परखने का भी एक तरीका था.’

बाली ने कहा, ‘सेना की संस्कृति अलग है और ग्रामीण भारत में फैली हुई है. एक बार जब कोई सेना में शामिल हो जाता है, तो उसके परिवार से लेकर उसके पूरे गांव तक सभी को लगता है कि वे सेना का हिस्सा हैं. किसी भी बढ़ते युवा के लिए सेना की नौकरी हासिल करने के दावेदार की तरह महसूस करना स्वाभाविक है.’ वह आगे कहते है, ‘यह असमानता दिल तोड़ने वाली है.’

मेजर जनरल डॉ यश मोरे इसे हताशा कहते हैं. उन्होंने कहा, ‘सेना ने वर्षों तक भर्ती नहीं की, लेकिन रैलियां शुरू करने का वादा करती रही.’

मोरे ने कहा, ‘वे इंतजार, इंतजार और इंतजार करते रहे. भर्ती के वादे पर भरोसा करते हुए ग्रामीण युवा अपने को तैयार करने में लगे हुए थे.’

लेकिन अस्वीकृति, असफलता और भीतरी इलाकों में एक नए जीवन के आसपास बातचीत की अनुपस्थिति चीजों को और अधिक मुश्किल बना देती है.

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के टीएच चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के प्रोफेसर विक्रम पटेल ने कहा, ‘आत्महत्या उस भारी दबाव का प्रतिबिंब है जिसका सामना भारत में युवा अच्छे वेतन के साथ स्थिर रोजगार हासिल करने के लिए कर रहे हैं.’

वह इसकी तुलना प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग या मेडिकल स्कूलों में प्रतिस्पर्धी प्रवेश परीक्षाओं में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद अपने जीवन को समाप्त करने वाले छात्रों से करते हैं.

आखिरी मौका

अगर विक्रांत अपनी राजपूत विरासत को बनाए रखने के लिए सशस्त्र बलों में शामिल होने के लिए मजबूर थे, तो 300 किलोमीटर दूर उत्तराखंड के नौगांव कमांडा गांव के सुमित कुमार अपनी जाति की पहचान से ऊपर उठने और गरिमा लाने की हताशा से प्रेरित थे.

नौगांव कमांडा उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले का छोटा सा गांव है. इस गांव में सिर्फ 45 परिवार रहते हैं. दूर-दराज के इलाके में बसा ये गांव युवाओं के करियर विकल्पों को सीमित कर देता है. सुमित फौजी बनने का सपना देखता था. लेकिन विक्रांत की तरह वह दूध में डालकर खजूर और बादाम नहीं खा सकते थे. उन्होंने केले से काम चलाया.

उनके पिता एक दिहाड़ी मजदूर हैं. उन्होंने बताया, ‘वह मुझसे कहा करता था कि हमने सम्मान की जिंदगी से कोसों दूर गरीबी का जीवन जिया है. मैं इस परिवार को सम्मान की जिंदगी जीने की ओर लेकर जाऊंगा.’

सुमित के सपनों पर अनुसूचित जाति के छह लोगों के परिवार की उम्मीदें टिकी थीं. अब वह उसकी मौत और निराशा के दुख को झेल रहे हैं. बरामदे में सुमित की अपने दोस्तों और प्रियजनों के साथ तस्वीरों का एक बड़ा कोलाज लगा हुआ है.

उनकी मां धनेश्वरी देवी ( 50 वर्ष) उस कच्चे कमरे में जाने से बचती हैं, जहां कुमार को इस साल 27 अगस्त को छत के पंखे से लटका पाया गया था.

Sumit Kumar's father stands next to the bed where he hanged himself from a ceiling fan | Jyoti Yadav, ThePrint
सुमित कुमार के पिता उस पलंग के बगल में खड़े हैं, जहां उन्होंने पंखे से लटक कर आत्महत्या की थी/ज्योति यादव/दिप्रिंट

उन्होंने दर्द भरी आवाज में कहा, ‘मेरी उस कमरे का दरवाजा खोलने की हिम्मत नहीं होती है. रैली ने मेरे बेटे को मार डाला. मरने से अच्छा तो था कि वह बेरोजगार ही रह जाता.’

धनेश्वरी ने गांव के बाहर एक बड़े मैदान की ओर इशारा किया, जहां बिजली पैदा करने के लिए सोलर पैनल लगाए गए थे. उन्होंने कहा, ‘गांव और कस्बे के आसपास इस नए बुनियादी ढांचे के निर्माण में उसने काफी मदद की थी.’

हालांकि सुनील के घरवालों को ठीक से याद नहीं है कि उन्होंने कब सेना में शामिल होने का फैसला किया. उन्हें याद है तो बस इतना कि घर से निकलते समय सुनील अपने जूते के फीते बांध रहा था. और हाथ हिलाते हुए बाहर चला गया. वह कुछ ही घंटों में लौट कर आने की बात कहकर गया था.

उनकी मां ने कहा, ‘वह गांव के अन्य 15 उम्मीदवारों को प्रेरित करता था और उन्हें बताता था कि अगर वे अच्छी खबर घर नहीं लाएंगे तो उन्हें शर्म महसूस होगी. वह उन्हें और ज्यादा दौड़ लगाने के लिए कहता था.’

गांव में सलाह के लिए उनके पास एक रिटायर्ड सेना अधिकारी थे, जो फिलहाल पास की एक फैक्ट्री में सुरक्षा गार्ड के तौर पर काम कर रहे हैं.

जब कोविड के दौरान सेना ने भर्तियां रद्द कर दी तो सुमित निराश हो गए थे. लेकिन उन्होंने तैयारी करना नहीं छोड़ा था. आखिरकार उन्हें 19 अगस्त से 31 अगस्त तक कोटद्वार जिले की एक रैली में गढ़वाल राइफल्स में एक स्थान के लिए पंजीकरण कराने का मौका मिल गया. गढ़वाल मंडल के सात जिलों के 63,000 से ज्यादा सेना उम्मीदवारों ने उस दिन अपनी किस्मत आजमाई थी.

23 साल के उनके बड़े भाई अमित ने कहा, ‘रस्सी 5 मिनट 25 सेकंड पर नीचे गिर गई. वह इसे पार करने से सिर्फ कुछ इंच की दूरी पर थे. यह कुछ सेकंड की बात थी.’ वह पुलिस बल में शामिल होने के लिए प्रशिक्षण ले रहे हैं.

विडंबना यह है कि सुमित पहले चार बार सेना के फिजिकली फिटनेस टेस्ट को पास कर चुके थे. लेकिन अपनी एक उंगली में समस्या के कारण उन्हें किसी भी राउंड में मेडिकल क्लीयरेंस नहीं मिल पाया था. उस दिन वह पहली बार रेस में फेल हुए थे.

वह 24 अगस्त की रात 8 बजे घर आए और सिर्फ एक लाइन बोले, ‘मैं इस बार फिजिकल टेस्ट भी क्लियर नहीं कर पाया.’ उन्होंने नहा-धोकर चाय पी और अपने कमरे में चले गए.

उनकी मां ने याद करते हुए कहा, ‘मैं उसी रात तकरीबन 10 बजे उसके पास गई. मैंने उससे कहा बेटा उठो, खाना खा लो.’

उसी समय सुमित ने अपने भाई अमित को फोन किया था. अमित उसी गांव में अपनी एक बहन के साथ रहता है. अमित ने बताया ‘उसने मुझे कहा कि वह सोने जा रहा है. उसने मुझसे भी सोने के लिए कहा और फोन काट दिया.’

अगली सुबह जब पिता सुमित को चाय पीने के लिए बुलाने गए तो उन्हें उनका निर्जीव शरीर मिला.

परिवार ने ऑटोप्सी कराने से भी इंकार कर दिया था और पुलिस में भी मामला दर्ज नहीं कराया गया.

उनकी मां कागजों से भरी फाइलों का ढेर निकालती है. उसमें से एक दस्तावेज बता रहा था कि सुमित उत्तराखंड पुलिस भर्ती अभियान के लिए एक लिखित परीक्षा में बैठने वाले थे, जिसे उन्होंने पहले ही पास कर लिया था. धनेश्वरी देवी के लिए यह दर्दनाक यादें हैं.

‘मेरा बेटा मुझसे कहा करता था कि एक दिन वह तिरंगे में लिपट कर घर आएगा.’

(इस फीचर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: संघप्रिया मौर्या) | (संपादन: अलमिना खातून)


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