कोलकाता: राजनीतिक भ्रष्टाचार के घोटाले, इस्लामी कट्टरपंथ का खतरा, और शिकारी सुंदरबन के ताकतवर लोग – ये कुछ प्रमुख मुद्दे हैं जो पश्चिम बंगाल को परेशान कर रहे हैं क्योंकि यह 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए तैयार है. लेकिन ये विषय अंधेरे सिनेमाघरों में भी दर्शकों को रोमांचित कर रहे हैं. बंगाली फिल्मों की एक लहर उन्हीं मुद्दों से निपट रही है जिन पर राज्य का समाचार मीडिया राष्ट्रीय चुनावों के करीब आते ही अंतहीन बहस करता है.
सबसे पहले अक्टूबर 2023 में रक्तबीज रिलीज़ हुई. तृणमूल कांग्रेस सांसद मिमी चक्रवर्ती अभिनीत, बर्दवान के राजनीतिक-पारिवारिक पर बनी यह फिल्म घरेलू आतंकी साजिशों के मुद्दे पर प्रकाश डालता है (यह खुद को “छिपे हुए राक्षसों” की कहानी कहता है) और इसमें प्रणब मुखर्जी की तर्ज पर एक बंगाली राष्ट्रपति को दिखाया गया है. यह बॉक्स ऑफिस पर सफल रही.
इसके बाद प्रधान आई, जिसके दिसंबर में रिलीज होने के बाद से सिनेमा हॉल दर्शकों से खचाखच भरे रहे. इसमें एक टीएमसी नेता, देव अधिकारी भी हैं, और यह एक ईमानदार पुलिसकर्मी, दीपक प्रधान की कहानी बताती है, जो उत्तरी बंगाल के एरिया में भ्रष्टाचार से लड़ता है. यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां भाजपा को, संयोगवश, 2019 के लोकसभा चुनावों में काफी लाभ मिला. जब अधिकारी के प्रधान पोस्टिंग के बाद आते हैं, तो मुस्कुराते हुए स्थानीय राजनेता पूछते हैं, “क्या हमने उन्हें अभी तक कोई अच्छा प्रस्ताव दिया है?” हालांकि निर्माताओं का दावा है कि इसे शुद्ध मनोरंजन के भाव से ही लिया जाना चाहिए, फिल्म टीएमसी की अपनी राजनीतिक लड़ाइयों से कनेक्ट करने में कामयाब होती है, यहां तक कि यह स्वयं अधिकारी के प्रति प्रधान की कुछ ईमानदारी को भी दर्शाती है.
तृणमूल कांग्रेस अपने ही सांसदों से ऐसी फिल्में बनवाकर खुद को पाक-साफ बताने की कोशिश कर रही है. ऐसा लगता है मानो सरकार यह कहना चाह रही हो कि अगर हम सचमुच दोषी होते तो क्या हमारे सांसद-अभिनेता ऐसी फिल्मों में होते?
-शर्मी अधिकारी, फिल्म समीक्षक
अंततः, बोनबीबी 8 मार्च को सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने वाली है. फिल्म निर्माता इसको लेकर कयास लगाने में लगे हुए हैं. हालांकि यह फिल्म मौजूदा हालात में गिरफ्तार संदेशखाली के तृणमूल कांग्रेस के कद्दावर नेता शेख शाहजहां को लेकर विरोध प्रदर्शन और विवाद शुरू होने से काफी पहले बनाई गई थी, लेकिन इसके खलनायक जहांगीर और उसके द्वारा प्रताड़ित विधवाओं की झलक हाल की समाचार रिपोर्टों से मिलती जुलती है.
बोनबीबी के निर्माता राणा सरकार ने दिप्रिंट को बताया, ”बंगाली अपने सिनेमा और अपनी राजनीति दोनों को लेकर भावुक हैं. जब हम बड़े चुनाव में मतदान करने के लिए तैयार हो रहे हैं तो दोनों में एक-दूसरे की झलक मिलनी ही है?”
अच्छाई और बुराई, केंद्र और राज्य
रक्तबीज ने अतीत की घटनाओं से दर्शकों को झकझोर दिया. यह फिल्म एक वास्तविक जीवन की कहानी का अर्ध-काल्पनिक स्टोरी है जो नौ साल पहले पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में रिलीज़ होने के लगभग उसी दिन घटित हुई थी. यह घटना, जिस पर अभी भी गर्मागरम बहस चल रही है और जो लोगों को असहज करती है, 2014 में दुर्गा पूजा की अष्टमी पर एक विस्फोट की कहानी है.
उस दिन दोपहर के समय, बर्दवान के खागरागढ़ इलाके में एक घर में विस्फोट हुआ, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई और एक अन्य घायल हो गया. जांच से पता चला कि दोनों आतंकवादी संगठन जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश (जेएमबी) के सदस्य थे, और दोनों बम बना रहे थे उसी वक्त विस्फोट हुआ. इस घटना ने कुछ अन्य कारणों से भी राष्ट्रीय सुर्खियाँ बटोरीं.
एक तो यह कि तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी “आतंकवादी अड्डे” से कुछ ही मिनटों की दूरी पर अपने परिवार के साथ त्योहार मना रहे थे. इस घटना के इर्द-गिर्द एक बड़ा राजनीतिक हंगामा खड़ा हो गया, जिसमें भाजपा के अमित शाह ने टीएमसी पर दोषियों को बचाने का आरोप लगाया. 2019 में उन्नीस लोगों को दोषी ठहराया गया, जेएमबी हैंडलर एमडी मूसा को 2022 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई.
रक्तबीज इनमें से कई तत्वों को कलात्मक रूप से दिखाता है, जो कि इसकी अपनी व्याख्या करता है. फिल्म अच्छे और बुरे के बीच के संघर्ष को स्पष्ट रूप से स्थापित करने के लिए दुर्गा पूजा का उपयोग करती है. और इसके केंद्रीय पात्रों में से एक है राष्ट्रपति (विक्टर बनर्जी द्वारा अभिनीत) जो कि बर्दवान में अपनी बहन से मिलने जात हैं. अफजल गुरु के मामले की तरह, राष्ट्रपति को आतंकवाद के लिए मौत की सजा पाए एक मुस्लिम व्यक्ति की दया याचिका को खारिज करते हुए भी दिखाया गया है, जिसके बाद इसका बदला लेने के लिए उसके पैतृक गांव में उसे मारने की आतंकी साजिश रची गई.
टेलीग्राफ के साथ एक साक्षात्कार में निर्देशक शिबोप्रसाद मुखर्जी ने कहा कि फिल्म का विचार एक अखबार के एक लेख से आया था. मुखर्जी ने कहा, “पत्रकार ने लिखा कि राष्ट्रपति ने दुर्गा पूजा दहशत में, छिपकर मनाया. खागरागढ़ विस्फोट को लेकर कई तरह की थ्योरी थी. लेखों में से एक में पूछा गया कि क्या यह सिर्फ एक विस्फोट था या कुछ और. इसने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया. हमने तुरंत एक कहानी लिखने के बारे में सोचा.”
फिल्म ने लोगों को न केवल 2014 की घटना के बारे में बात करने के लिए प्रेरित किया, बल्कि पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी के एक निश्चित वर्ग के भीतर बढ़ते कट्टरपंथ के आरोपों के बारे में भी बताया. यह एक ऐसा मुद्दा है जिसे विपक्षी भाजपा लगातार उछालती रहती है.
पूर्व टीएमसी सांसद मिमी चक्रवर्ती की कास्टिंग इसको लेकर और ज्यादा जिज्ञासा पैदा करती है. वह साजिश की जांच करने वाली एक पुलिसकर्मी की भूमिका निभाती हैं, लेकिन दिल्ली से लाए गए एक अन्य अधिकारी, पंकज सिन्हा (अबीर चटर्जी द्वारा अभिनीत) के साथ उसकी झड़प हो जाती है. दिल्ली से लाया गया यह अधिकारी उन्हें सलाह देता है, “मिशन तभी संभव है जब केंद्र और राज्य मिलकर काम करें.” फिल्म के क्लाइमेक्स तक पहुंचते पहुंचते उनके बीच के मतभेद खत्म हो चुके होते हैं और वे एक साथ मिलकर काम करते हैं.
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घोटाले और बाहुबली
यदि रक्तबीज एक दशक पहले बंगाल में जो कुछ हो रहा था, उसे दिखाने की कोशिश करता है, तो प्रधान और आगामी फिल्म बोनबीबी सत्तारूढ़ ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस को परेशान करने वाले कुछ और मौजूदा आरोपों को दर्शाते हैं.
देव अधिकारी-स्टारर प्रधान एक साहसी पुलिसकर्मी की कहानी है जिसने भ्रष्टाचार और धमकी से ग्रस्त उत्तरी बंगाल के एक छोटे से शहर को साफ करने के लिए कमर कसी है, इसमें से अधिकतर एक स्थानीय राजनेता द्वारा किया गया है जो अपने आतंक को बनाए रखने के लिए हिंसा का उपयोग करता है. यह फिल्म टीएमसी से जुड़े कई विवादों और आरोपों की ओर इशारा करती है, जिनमें शिक्षा घोटाले, जमीन पर कब्जा और पंचायत चुनावों के दौरान वोटों में हेराफेरी शामिल है. फिल्म में दर्शाई गई घटनाएं विशेष रूप से पश्चिम बंगाल में 2021 में विधानसभा चुनाव के बाद हुई हिंसा और पंचायत चुनाव झड़पों की याद दिलाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप पिछले जुलाई में कई लोग हताहत हुए थे.
घाटल निर्वाचन क्षेत्र से तृणमूल कांग्रेस के सांसद अधिकारी, जिनसे पशु तस्करी घोटाले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में प्रवर्तन निदेशालय ने खुद पूछताछ की है, ने कई इंटरव्यू में कहा है कि प्रधान किसी भी राजनीतिक दल से जुड़ी नहीं है और केवल आम नागरिकों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उस पर रोशनी डालती है.
उन्होंने एक इटरव्यू में कहा, “मैं सिनेमा को राजनीति के साथ नहीं जोड़ता. इसमें कोई राजनीतिक संदेश नहीं दिया गया है… यह कोई प्रोपेगैंडा फिल्म नहीं है.”
लेकिन हर कोई इस बात पर विश्वास नहीं करता है. फिल्म समीक्षक शर्मी अधिकारी का तर्क है कि तृणमूल कांग्रेस की आलोचना करने वाली राजनीतिक फिल्मों में अभिनय करना चक्रवर्ती और अधिकारी जैसे पार्टी नेताओं के लिए एक स्मार्ट कदम है.
अधिकारी ने तर्क दिया, “तृणमूल कांग्रेस अपने सांसदों से ऐसी फिल्में बनवाकर खुद को पाक साफ दिखाने की कोशिश कर रही है. ऐसा लगता है जैसे सरकार यह कहना चाह रही है कि अगर हम वास्तव में दोषी होते, तो क्या हमारे सांसद-अभिनेता ऐसी फिल्मों में होते?”
लेखकों और निर्देशकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसी फिल्में प्रोपेगैंडा न बनें और बंगाली सिनेमा को बदनाम न करें.
-भास्वती घोष, फिल्म समीक्षक
ऐसी फिल्में टीएमसी को खुद को लोकतांत्रिक दिखाने में भी मदद करती हैं, अधिकारी ने कहा: “यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि पश्चिम बंगाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है क्योंकि कोई भी ऐसी फिल्मों को बनने से नहीं रोकता है, भले ही वे उन्हीं मुद्दों को दिखाएं जिनसे राज्य सरकार की छवि पर असर पड़ने की संभावना है”
8 मार्च को रिलीज होने वाली नई फिल्म बोनबीबी में कोई भी तृणमूल सांसद नहीं कर रहे हैं. हालांकि, इसमें सुंदरबन क्षेत्र में स्थित संदेशखली गांव में टीएमसी के ‘बाहुबली’ शेख शाहजहां के खिलाफ भूमि हड़पने और यौन उत्पीड़न के आरोपों के साथ अनोखी समानताएं हैं.
सुंदरबन की हरी-भरी पृष्ठभूमि पर आधारित, बोनबीबी ‘बाघ विधवाओं’ (जो महिलाएं बाघ के हमलों में अपने जीवनसाथी को खोने के बाद समाज से बाहर कर दी जाती हैं) के संघर्ष और जीत को उजागर करने के लिए मिथक और मौजूदा घटनाक्रम के कॉम्बिनेशन का उपयोग करती है. इसका खलनायक एक स्थानीय नेता जहांगीर है, जो सुरक्षा देने के बहाने उनका शोषण करता है.
बोनबीबी के प्रोड्यूसर राणा सरकार ने पहले दिप्रिंट को बताया था कि ऐसी समानताएं होना अपरिहार्य हैं, क्योंकि फिल्म ऐसे समय में आ रही है जब संदेशखाली नेशनल न्यूज़ की सुर्खियां बना हुआ है. उन्होंने कहा, “फिल्म संदेशखाली की घटनाओं के सामने आने से बहुत पहले लिखी और शूट की गई थी. यह वैसा ही है जैसे वाल्मिकी ने राम के आगमन से पहले रामायण लिखी थी!”
‘ऐसी फिल्में प्रोपेगेंडा नहीं बननी चाहिए’
आज की राजनीतिक वास्तविकताओं को दिखाने वाली फिल्में कोई नई नहीं हैं. दरअसल, यह बंगाल में एक परंपरा है.
फिल्म प्रचारक इंद्रनील रॉय ने ऋत्विक घटक की 1961 की फिल्म कोमल गांधार (ए सॉफ्ट नोट ऑन ए शार्प स्केल) की ओर इशारा किया, जो विभाजन, आदर्शवाद और सामाजिक भ्रष्टाचार की खोज थी; सत्यजीत रे की 1980 में रिलीज हुई हिरक राजार देशे (इन द लैंड ऑफ द डायमंड किंग), जहां एक राजा तुकबंदी वाले नारों के साथ अपनी प्रजा का ब्रेनवॉश करता है; और अनिक दत्ता का 2019 का व्यंग्य भोबिश्योतेर भूत.
रॉय ने कहा, “तीन नई फिल्में, रक्तबीज, प्रधान और बोनबीबी बंगाली सिनेमा में कोई नया चलन नहीं हैं, लेकिन फिर भी 2024 में राष्ट्रीय चुनावों के साथ इनका आना एक दिलचस्प बात है.”
हालांकि, कुछ राजनीतिक फिल्मों का विरोध हुआ है. सिनेमाघरों को “हायर मैनेजमेंट के आदेशों” का हवाला देते हुए, भोबिश्योतेर भूत को रिलीज़ के बाद दिखाने से रोक दिया गया था. फिल्म में कोलकाता के भूतों को चित्रित किया गया है, जो आलीशान मॉल बनाने के लिए ध्वस्त की गई जर्जर इमारतों से बेघर हो गए हैं और एक शरणार्थी शिविर में शरण ली है. यह कई तरह की राजनीतिक पंचलाइनों से भी भरा हुआ है.
सिनेमाघरों पर फिल्म को अनौपचारिक रूप से हटाने के लिए कथित तौर पर दबाव डालने के लिए ममता बनर्जी सरकार को आलोचना का सामना करना पड़ा, लेकिन सरकार ने कहा कि इससे किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए था. उन्होंने कहा, “अगर आप कोई राजनीतिक फिल्म बनाना चाहते हैं तो कुछ हद तक बारीकी के साथ बनाएं ताकि यह सीधे तौर पर किसी खास सरकार पर उंगली न उठाए.”
हालांकि, नई फिल्मों को प्रशासन के साथ ऐसे किसी मुद्दे का सामना नहीं करना पड़ा है. फिल्म समीक्षक भास्वती घोष ने भविष्यवाणी की, “आने वाले महीनों में, ऐसी और फिल्में आ रही हैं. अगर अच्छा किया गया, तो वे दर्शकों को रक्तबीज और प्रधान जैसे थिएटर्स की ओर आकर्षित करेंगे. लेकिन लेखकों और निर्देशकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसी फिल्में प्रोपेगैंडा न बनें और बंगाली सिनेमा को बदनाम न करें.
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