जलदापाड़ा/कूचबिहार. पश्चिम बंगाल के जलदापाड़ा के डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर (DFO) परवीन कासवान अपने ऑफिस में बेचैनी से चहल-कदमी कर रहे थे. वह कुख्यात गैंडा-सींग शिकारी रिकॉच नारजारी को लेकर कोर्ट से आने वाले संदेश का इंतजार कर रहे थे. वह बार-बार अपना फोन चेक कर रहे थे और डेस्कटॉप पर ईमेल कई बार रिफ्रेश कर चुके थे. उस दिन फैसला आना था.
फिर फोन बजा. सात साल की सजा. ऑफिस में बैठे सभी लोगों ने एक साथ सांस छोड़ी. असिस्टेंट वाइल्डलाइफ वार्डन नवोजित डे और रेंज ऑफिसर अयन चक्रवर्ती, जो कासवान के साथ फैसले का इंतिजार कर रहे थे, राहत की सांस ली.
भारत के सबसे बड़े गैंडा-शिकार गिरोहों में से एक के सरगना को वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट के तहत भारतीय अदालत द्वारा अब तक की सबसे बड़ी सजा मिली. कासवान की टीम, जिसने 11 साल तक असम और उत्तर बंगाल में उसकी परछाई का पीछा किया था, के लिए यह एक लंबी और थकाऊ पीछा-यात्रा का अंत जैसा लगा.
कासवान ने फोन देखते हुए मुस्कराकर कहा, “सात साल.”
पिछले कुछ महीने कसवान के लिए उतार-चढ़ाव से भरे रहे. शिकार की घटनाएं दर्ज करना, मुखबिरों को सतर्क करना, संदिग्धों को पकड़ना. लेकिन हर पल इसके लायक था. गिरफ्तारी के बाद भी कासवान खुद सबूतों की सूची बनाने, वकीलों से बात करने और दस्तावेज जमा करने में लगे रहे ताकि नारजारी के खिलाफ उनका केस पूरी तरह मजबूत हो.
नारजारी को उत्तर बंगाल में अक्सर “पूर्ब का वीरप्पन” कहा जाता था क्योंकि उसके तरीके बेहद क्रूर लेकिन आधुनिक थे. वर्षों तक वह गिरफ्तारी से बचता रहा जबकि सुरक्षित जंगलों में मरे हुए गैंडों की लाशें मिलती रहीं.
जांचकर्ताओं का कहना था कि नारजारी के लोग मिलिट्री-ग्रेड के ट्रैंक्विलाइज़र और हाई-पावर्ड राइफल से शिकार करते थे. वह ज्यादातर रात में हमला करते थे, जब पेट्रोलिंग कम होती थी और दिखना मुश्किल होता था. उनकी क्रूरता का सबूत केवल गैंडों की टूटी-फूटी लाशें होती थीं, जो झाड़ियों में पड़ी मिलती थीं, आधी सड़ी हुई.
हर मामले में गैंडे के सींग को कच्चे लेकिन प्रभावी औजारों से निकाला जाता था.
नारजारी सोशल मीडिया पर कोई निशान नहीं छोड़ता था और न ही उसका कोई बड़ा आपराधिक रिकॉर्ड था. बहुत कम गवाह उसे पहचानने के लिए तैयार होते थे. सरकारी रिकॉर्ड में वह कई सालों तक एक “नाम” भर था, व्यक्ति नहीं.
कई लोग उसे पकड़ने के इस बिल्ली-चूहे के खेल से थक कर हार मान चुके थे. वह हमेशा अधिकारियों को दौड़ाता रहता था.
उसकी क्रूरता पर 23 पन्नों की चार्जशीट और सैकड़ों पन्नों के कोर्ट दस्तावेज मौजूद हैं.
लेकिन पिछले साल शिकारी को उसका असली मुकाबला मिला.
परवीन कासवान, 2016 बैच के आईएफएस अधिकारी, जो पहले बक्सा टाइगर रिजर्व में तैनात थे, जलदापाड़ा के नए DFO बने. उनकी पहली जिम्मेदारी थी नारजारी के गिरोह को तोड़ना, जलदापाड़ा के गैंडों को सुरक्षित करना और पूर्वी भारत में सक्रिय गैंडा-सींग के नेटवर्क को निष्क्रिय करना, जो अब अंतरराष्ट्रीय बाजार की मांग के कारण बहुत सक्रिय हो चुके थे.
“अब जबकि उसका गिरोह टूट चुका है, खतरा हमेशा रहेगा कि कोई नया गिरोह उसकी जगह ले ले. अंतरराष्ट्रीय बाजार में इन सींगों की बहुत मांग है और कीमत भी बहुत है,” कसवान ने कहा. “लेकिन रिकॉच की कहानी देखने के बाद कोई भी इसे आसान समझने की गलती नहीं करेगा.”

शिकारी का शिकार
रिकॉच नारजारी को पकड़ने का मिशन किसी बॉलीवुड मुकाबले से कम नहीं था.
विलेन एक 38 वर्षीय पढ़ा-लिखा आदमी था, असम के सुवालकुचा गांव का, जो पांच भाषाएं बोलता था. वह विनम्र था, लेकिन इतना प्रभावशाली कि किसी को भी अपने लिए काम करने को मना लेता था. उसकी बात करने की कला ही उसका हथियार थी.
इसी वजह से उसका नेटवर्क जलदापाड़ा में इतना मजबूत हो गया. वह शिकार को गरीबी से निकलने का रास्ता बताता था. गाँव वालों की नजर में वह शुरू में “रॉबिन हुड” जैसा लगता था.
इस कहानी का हीरो राजस्थान का एक दृढ़ अधिकारी था जिसने एयरोस्पेस इंजीनियर की चमकदार नौकरी छोड़कर सिविल सेवा में जगह बनाई थी. उसके हर पोस्टिंग में रिकॉर्ड-तोड़ उपलब्धियां थीं.
फरवरी 2024 में जलदापाड़ा विभाग संभालने के बाद कसवान ने सबसे पहले नारजारी की फाइल उठाई.
“औपचारिक रूप से जॉइन करने से पहले ही मैंने पुराने अधिकारियों और टीम से बात करना शुरू कर दिया था कि यह नेटवर्क कितना गहरा है,” कसवान ने कहा.
वन अधिकारियों के अनुसार, नारजारी को पकड़ना मुश्किल इसलिए था क्योंकि वह “भूत” की तरह काम करता था. विभाग के पास उसकी केवल 2018 की एक तस्वीर थी. स्थानीय लोगों का सहयोग भी उसे मिलता था.
गैंडा-शिकार के लिए जलदापाड़ा लंबे समय से पसंदीदा इलाका रहा है. 217 वर्ग किमी क्षेत्र में 1966-67 में 76 गैंडे थे जो 1980 तक घटकर केवल 14 रह गए.
लेकिन नारजारी ने तरीकों को पूरी तरह बदल दिया था. वह स्थानीय देसी हथियारों का इस्तेमाल नहीं करता था. वह साइलेंसर लगी बंदूकें, ड्रोन और गुरिल्ला तरीके अपनाता था. उसने मणिपुर, अरुणाचल और मिजोरम के पूर्व उग्रवादियों को अपनी टीम में चुना था.
जलदापाड़ा के गाइड कल्लन गोपे ने कहा, “इन्हीं राज्यों से उसे हाई-टेक हथियार मिलते थे.”
उनके लिए शिकार सिर्फ अतिरिक्त कमाई का तरीका था. वे अलग-अलग जगहों से आते थे और जब अंतरराष्ट्रीय ऑर्डर मिलता था तभी साथ जुटते थे.
टीम में गांवों के ट्रैकर, निशानेबाज़ और फिर ट्रांसपोर्टर शामिल थे. काम पूरा करते और गायब हो जाते.
एक स्थानीय मुखबिर ने कहा, “वह यहां के पुराने शिकारी जैसा नहीं था. वह स्मार्ट था. वह लोगों को ये कहकर जोड़ता कि उनके परिवार गरीबी से निकल सकते हैं.”


कसवान ने अलग तरीका अपनाया. केवल पेट्रोलिंग पर ध्यान देने के बजाय उन्होंने लॉजिस्टिक नेटवर्क की मैपिंग शुरू की. यात्रा मार्ग, पैसों का प्रवाह, हथियारों की सप्लाई, पुरानी जब्तियां और सीमापार गतिविधियां.
पहले का कुख्यात शिकारी सत्तार सिंह 2012 में मर चुका था. उसके बाद नारजारी ने कब्जा जमाया और ग्रामीणों ने उसे शुरू में “मसीहा” माना.
दो हफ्तों की गहन मेहनत के बाद एक सुराग मिला. मणिपुर के मोरेह से एक रिश्तेदार पकड़ा गया जिसने एक अहम जानकारी दी.
फिर समय आ गया.
कासवान को सूचना मिली कि नारजारी असम के कामरूप जिले के एक गांव में है. उन्होंने 12 अधिकारियों की टीम बनाई और ऑपरेशन शुरू हुआ.
“मुख्य ऑपरेशन में लगभग सात दिन लगे,” कसवान ने कहा. नारजारी के साथ तीन गुर्गे भी पकड़े गए.
गिरफ्तारी से पहले उसका फोन बंद रहता था. पुराने रास्ते छोड़ दिए गए थे. गिरफ्तारी बिना किसी ड्रामे के हुई. बस कुछ शब्द और फिर उसकी सालों की भागदौड़ खत्म.

मार्च 2024 से जनवरी 2025 के बीच उसके सभी बड़े साथी पकड़े गए. उन पर कई मामलों में वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट के तहत कार्रवाई चल रही है.
“मुझे नहीं लगता कि उसने गिरफ्तारी के समय ज्यादा कुछ कहा,” कसवान बोले. “कुछ और सदस्य पूछताछ में अपने करतूतों का घमंड दिखा रहे थे. उनकी बातों ने केस को और मजबूत बना दिया.”
जलदापाड़ा में शिकार
जलदापाड़ा नेशनल पार्क में, जो मानव गतिविधियों के बीच एक सुरक्षित सैंक्चुअरी है, गैंडे अब बिना डर के स्वतंत्र रूप से घूम रहे हैं. पिछले साल में कोई भी शिकार की घटना दर्ज नहीं हुई है.
करीबी गांव के निवासी कल्लन गोपे ने बताया कि जलदापाड़ा में आदिवासी समुदाय रहते हैं जो परंपरागत रूप से अपनी जीविका के लिए जंगल पर निर्भर थे. इन समुदायों में राभा, बोडो, मुंडा शामिल हैं. ये पारंपरिक रूप से गैंडे का शिकार करते थे. लेकिन ये शिकार कभी भी व्यावसायिक नहीं थे.

“हालांकि ये समुदाय व्यावसायिक शिकार को प्रोत्साहित नहीं करते थे, लेकिन इनके कौशल के कारण शिकारी इन्हें अपने काम में इस्तेमाल करते थे,” गोपे ने कहा.
नरजारी के गिरोह के सक्रिय होने से पहले, उत्तर बंगाल के जंगलों में एक और कुख्यात शिकारी का राज था. सत्तर सिंह 52 वर्षीय, 6 फुट लंबे गैंग लीडर थे, जो देसी बने हथियारों—गन, चाकू और हथौड़े—का इस्तेमाल करते थे.
स्थानीय निवासी सिंह को एक गुंडे के रूप में याद करते हैं. वह ग्रामीणों में डर पैदा करके उन्हें अपने आदेश मानने पर मजबूर करता था. उसने जलदापाड़ा में सिर्फ जानवरों का ही नहीं, बल्कि उन लोगों का भी खून बहाया जो उसके खिलाफ जाने की हिम्मत करते थे.
2012 में उसकी मौत से उसके स्थान को हासिल करने की लड़ाई शुरू हुई. और नरजारी ने वह स्थान ले लिया. लेकिन वह सिंह का बिल्कुल उलटा था. ग्रामीणों ने उसका स्वागत किया और शुरू में उसे एक मसीहा की तरह देखा.
“इन ग्रामीणों ने उसके [नरजारी के] गिरोह के सदस्यों को तब तक अपने घरों में ठहरने दिया जब तक वे शिकार पूरा नहीं कर लेते थे. उनके बेटों को गाइड के रूप में भेजा जाता था. और वे पुलिस से उसकी रक्षा करते थे,” सालकुमार गांव के निवासी नेपाल घोष ने कहा.
लेकिन पिछले दो वर्षों में गांवों पर उसका प्रभाव कमजोर हो गया था.

वन विभाग ने नई पीढ़ी का विश्वास जीतने के लिए एक सच्चा अभियान शुरू किया. युवाओं को पार्क में गाइड, ड्राइवर और हेल्पर के रूप में रोजगार दिया गया.
वन अधिकारियों ने गांवों के विकास में भी मदद की, सड़कें बनाईं और बच्चों की पढ़ाई में सहयोग किया. जंगल एक आजीविका का साधन बन गया, और उसके लाभार्थी अब उसे बचाना चाहते थे.
“यही उसकी गिरावट की शुरुआत बनी. इस क्षेत्र में ग्रामीणों के समर्थन के बिना शिकार संभव नहीं है,” घोष ने कहा.
गैंडे के सींग का व्यापार मार्ग
अंतरराष्ट्रीय बाजार का दबाव बहुत अधिक है. गैंडे के सींग का व्यापार भारत, बांग्लादेश, म्यांमार, भूटान, नेपाल और चीन के बीच फैले नेटवर्क से चलता है. जोखिम बड़ा है, लेकिन इनाम मीठा है.
2011 में आत्मसमर्पण करने वाले पूर्व शिकारी इसाक सालान ने बताया कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में गैंडे के एक किलो सींग की कीमत एक करोड़ रुपये से अधिक होती है. इन सींगों की मांग आम तौर पर चीन से आती है, जहां उन्हें कामोत्तेजक और पारंपरिक दवा में माना जाता है. भूटान, नेपाल और म्यांमार भारत और चीन के बीच जोड़ने वाले मार्ग के रूप में काम करते हैं. इन देशों में सबसे सक्रिय परिवहन नेटवर्क भी हैं.

“गैंडों का शिकार मजे के लिए नहीं किया जाता. यहां शिकार तब होता है जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में ऑर्डर आता है. दूसरे जानवरों की तुलना में, गैंडों का शिकार कठिन होता है और उनका सींग निकालना भी चुनौतीपूर्ण है,” सालान ने कहा.
2025 में जलदापाड़ा नेशनल पार्क में 331 गैंडे दर्ज किए गए, जो पहले कभी नहीं देखा गया था.
भारत दुनिया में सबसे बड़ी एक-सींग वाले गैंडों की आबादी वाला देश है. 3,000 से अधिक गैंडों की संख्या के साथ, जो मुख्य रूप से असम, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में हैं, भारत वैश्विक शिकार का हॉटस्पॉट भी है.
भारत के बाद केवल नेपाल में एक-सींग वाले गैंडों की इतनी संख्या है—लगभग 750.
जलदापाड़ा की स्थिति उसका सबसे बड़ा नुकसान है. रिजर्व की सीमाएं चिह्नित नहीं हैं. इसकी सीमाओं के भीतर और आसपास 30 से अधिक गांव हैं, जिससे पार्क के भीतर अवैध आवाजाही का पता लगाना कठिन हो जाता है. अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के पास होने के कारण शिकारियों के गिरोहों को भागना भी आसान होता है.
वाइल्डलाइफ जस्टिस कमीशन की 2022 की वैश्विक खतरा मूल्यांकन रिपोर्ट में कहा गया कि 2014 से “भारत से म्यांमार और फिर दक्षिणपूर्व एशिया और चीन तक एक तस्करी मार्ग का महत्व बढ़ रहा है.”
रिपोर्ट में कहा गया है, “हालांकि गैंडे के सींग के स्रोत स्थानों और अंतिम बाजारों के लिए पता लगाने की दरें लगातार उच्च हैं, विशेष रूप से दक्षिण अफ्रीका, नामीबिया, भारत, नेपाल और चीन में, कई प्रमुख पारगमन स्थानों के लिए पता लगाने की दरें आम तौर पर कम हैं.”
एक नई शुरुआत
जलदापाड़ा में कासवान के काम को उनके साथियों ने भी सराहा है.
सितंबर में उन्हें ‘वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन’ श्रेणी में ईको वॉरियर अवॉर्ड्स 2025 दिया गया, जिसे इंडियन फॉरेस्ट सर्विस एसोसिएशन और इंडियन मास्टरमाइंड्स ने आयोजित किया था. यह सम्मान विशेष रूप से भारत और पड़ोसी देशों के बीच चल रहे गैंडे के सींग के सिंडिकेट को तोड़ने के लिए दिया गया.
“उनकी निडर कार्रवाइयों ने अंतरराष्ट्रीय शिकार नेटवर्क को तोड़ दिया है और वन्यजीव संरक्षण में महत्वपूर्ण कानूनी जीत हासिल की है,” IFS एसोसिएशन ने सम्मान समारोह के दौरान जारी बयान में कहा.
कासवान ने जलदापाड़ा में सिर्फ एक वर्ष में वन्यजीव अपराधों और लकड़ी की तस्करी के मामलों में 17 सजा दिलाकर राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाया है.
कसवान नरजारी की गिरफ्तारी को गर्व का प्रतीक मानते हैं, लेकिन जानते हैं कि जलदापाड़ा में उनका काम अभी खत्म नहीं हुआ है.
“जब तक चीन में कोई व्यक्ति यह मानता रहेगा कि गैंडे के सींग कामोत्तेजक हैं, भारत में गैंडे मरते रहेंगे,” कासवान ने कहा.
वे अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं ताकि उनकी निगरानी में जानवर सुरक्षित रहें.

जलदापाड़ा नेशनल पार्क के रेंज अधिकारी मनिंदर मोहंता ने बताया कि पिछले एक साल में विभाग ने पार्क के अंदर और आसपास निगरानी बढ़ा दी है. अब ड्रोन और GPS का इस्तेमाल करके पार्क के हर कोने की नियमित निगरानी की जाती है.
मोहंता ने कहा, “हर पखवाड़े प्रत्येक रेंज अधिकारी को निगरानी क्षेत्र की रिपोर्ट देनी होती है. तकनीक की मदद के अलावा, हम जीप और हाथियों पर पारंपरिक गश्त भी जारी रखते हैं.”
इन बढ़ी हुई निगरानी का प्रभाव 2025 की गैंडा जनगणना में साफ दिखा. जलदापाड़ा नेशनल पार्क में 331 गैंडे दर्ज किए गए.
कसवान इस उपलब्धि का श्रेय अपनी पूरी टीम और उनसे पहले यहां काम कर चुके अधिकारियों को देते हैं.
“मुझे इस विरासत का हिस्सा बनकर खुशी है. अगर मैं इसे और आगे बढ़ा सकूं, तो वही मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी,” उन्होंने कहा. “मेरी ताकत यह है कि मैं किसी भी मुश्किल से डरता नहीं हूं. जब तक मैं यहां हूं, मैं सुनिश्चित करूंगा कि दूसरा रिकॉच पैदा न हो.”
इस समय, उनके ‘वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन अवॉर्ड’ पर दर्ज नाम उनकी एक शिकारी पर जीत को गर्व से दर्शाता है. उनके कार्यालय की लकड़ी की पट्टिका पर उनसे पहले यहां सेवा दे चुके अधिकारियों के नाम और सर्विस डेट्स दर्ज हैं. और कासवान अभी भी काम में जुटे हैं. उनके लिए इसका मतलब है और अधिक अपराधियों का पीछा करना.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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