अजमेर/ब्यावर: किसी दूसरी दुनिया में 103-वर्षीय मीणा राम की मृत्यु हो चुकी होती. राजस्थान सरकार भी यही सोचती थी, जब उनके भतीजे ने पूछा कि पिछले दो सालों से उनकी पेंशन और राशन क्यों बंद है, तो जवाब मिला कि अब वे ज़िंदा नहीं हैं.
कम से कम जयपुर में सरकारी केवाईसी डेटा से तो यही जानकारी मिली है.
फिर भी, कमज़ोर होने के बावजूद मीणा राम अभी भी ज़िंदा हैं, चारपाई पर लेटी हुई हैं और पीले दुपट्टे से अपनी आंखों को धूप से बचा रही हैं. उन्हें पिछले दो सालों से 500 रुपये की मासिक पेंशन और 35 किलो अनाज का राशन नहीं मिला है — दिसंबर 2022 में दोनों मिलना बंद हो गए, जब राजस्थान ने पेंशन के लिए ईकेवाईसी अनिवार्य कर दिया. पांच महीने पहले उनके दो भतीजे उनके ढलते शरीर को उनकी छोटी सी झोपड़ी से उठाकर राजसमंद जिले की भीम तहसील में अपने गांव ले आए, उन्हें शर्म आ रही थी कि पड़ोसियों ने दया करके उन्हें खाना खिलाना शुरू कर दिया था.
उनकी कहानी डिजिटल इंडिया में केवाईसी की शर्मनाक असलियत को उजागर करती है और वे राजस्थान में ऐसी ही समस्याओं का सामना कर रहे लाखों लोगों में से एक हैं.
अजमेर के टाटगढ़ गांव में अरावली की पहाड़ियों में एक छोटे से घर में रहने वाली 90-वर्षीय लक्ष्मी देवी को 1,500 रुपये की पेंशन मिलनी बंद हो गई, क्योंकि उन्हें “राज्य से बाहर” के रूप में सूचीबद्ध किया गया था — भले ही उन्होंने कभी राजस्थान नहीं छोड़ा हो. उनके पास आधार कार्ड नहीं है और उनका बायोमेट्रिक डेटा रिकॉर्ड नहीं किया जा सकता; उन्हें दोनों आंखों से दिखना बंद हो गया है और उनके हाथ इतने टेढ़े और मुड़े हुए हैं कि उनके फिंगरप्रिंट नहीं लिए जा सकते.
डिजिटल इंडिया का वादा दूर के ख्वाब जैसा है, लेकिन कुछ लोग नक्शे से गायब हो रहे हैं. कारण अलग-अलग हैं, लेकिन नतीजा एक ही है — लोगों को ज़रूरी लाभों से ‘डिजिटल रूप से बाहर’ किया जा रहा है और वह अक्सर सबसे कमज़ोर होते हैं — बुज़ुर्ग, विधवाएं, विकलांग लोग, गरीब — जिन्हें सिस्टम से मिटा दिया जाता है. वह पेंशन, राशन और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) भुगतान के इंतज़ार में डिजिटल मौत मरते हैं क्योंकि उनका केवाईसी नहीं किया गया है या उनका बायोमेट्रिक डेटा आधार डेटाबेस में दर्ज नहीं है.
आधार के खिलाफ सालों पुरानी पागलपन भरी लड़ाई हार गई. इस बार गुस्सा आधार के साथ नहीं बल्कि इसके लागू होने के तरीके से है. सरकार ने अलग-अलग मामलों को संबोधित करके जवाब दिया है, लेकिन समस्या अलग-अलग गलतियों से कहीं ज़्यादा है.
अकेले राजस्थान में राज्य के 90.98 लाख पेंशनभोगियों में से 13.54 लाख से ज़्यादा लोगों की पेंशन अचानक रद्द कर दी गई है. बहुत से लोग आधिकारिक डेटाबेस में “मृत” या “राज्य से बाहर” के रूप में चिह्नित हैं, जबकि वह पूरी तरह से ज़िंदा हैं और अपने गृह गांवों में रहते हैं और ये वह लोग हैं जो बुनियादी जीवनयापन के लिए राज्य के लाभों पर निर्भर हैं.
मीणा और लक्ष्मी के पास सरकारी अधिकारियों का पीछा करने और अपनी पेंशन के लिए विनती करने की ताकत या संसाधन नहीं हैं. उनके लिए सरकार का चेहरा अब सरपंच या ब्लॉक विकास अधिकारी नहीं है — यह एक दूर की कंप्यूटर स्क्रीन है.
यह व्यवस्था में एक खाई है जो आखिरकार अधिक ध्यान आकर्षित कर रही है.
मैंने अपनी पेंशन वापस पाने के लिए बहुत कोशिश की. मैंने बहुत सारी चीज़ें दबाईं और फिर भी यह काम नहीं आया! मैं बूढ़ी हो गई हूं, और थक गई हूं
— अमरी देवी, 88, जिनके फिंगरप्रिंट बायोमेट्रिक सिस्टम पर रजिस्टर नहीं हो सकते
पिछले महीने दिल्ली में मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) द्वारा राज्य में पेंशनभोगियों के बड़े पैमाने पर डिजिटल बहिष्कार पर आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में वीडियो रिकॉर्डिंग के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन लोकुर ने कहा, “इस तरह का बहिष्कार जारी नहीं रह सकता. यह अब ज़िंदगी के अधिकार का मुद्दा है.”
कार्यकर्ताओं का तर्क है कि राज्य के लाभों को आधार और आधार-आधारित भुगतान प्रणाली (ABPS) से जोड़कर, डिजिटल इंडिया ने उन लोगों के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया है, जिनकी मदद करने के लिए इसे बनाया गया था. विडंबना यह है कि 2018 के सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सामाजिक कल्याण भुगतान के लिए आधार अनिवार्य नहीं है.
MKSS के साथ काम करने वाले रंजीत ने कहा, “मैं इसे डिजिटल हत्या कहता हूं.”
यहीं पर MKSS जैसे नागरिक समाज समूहों ने कदम रखा है. महीनों से वह राजस्थान के पेंशन संकट का दस्तावेज़ीकरण कर रहे हैं और वंचित पेंशनभोगियों को एक अपारदर्शी डिजिटल भूलभुलैया से बाहर निकलने में मदद करने के लिए शिविर लगा रहे हैं. अब, समस्या इतनी बड़ी हो गई है कि राजस्थान सरकार इसे नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती. MKSS की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद, अधिकारियों ने कार्यकर्ताओं द्वारा उजागर की गई कमियों को दूर करने के लिए कार्रवाई शुरू कर दी है.
जयपुर में सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग से राज्य भर के जिलाधिकारियों को इस मुद्दे पर गौर करने और सुधार करने के लिए त्वरित आदेश जारी किए गए हैं.
लेकिन भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (UIDAI) के पहले महानिदेशक राम सेवक शर्मा के लिए, समस्या पहुंच के बजाय जागरूकता की कमी है, उन्होंने बताया कि भारत में “800 मिलियन” स्मार्टफोन यूजर्स हैं.
शर्मा ने कहा, “डिजिटल रूप से काम करना भौतिक रूप से काम करने से बेहतर है. हर घर में कम से कम एक स्मार्टफोन होता है. अपनी पहचान प्रमाणित करने के लिए आपके पास अपना फोन होना ज़रूरी नहीं है. यह इस बारे में जागरूकता बढ़ाने का सवाल है कि यह कैसे किया जाए — यह कुछ ऐसा है जिसके लिए सरकार को और अधिक प्रयास करने होंगे.”
पेंशन के लिए आवेदन करने या पेंशन पोर्टल पर विवरण अपडेट करने की पूरी प्रक्रिया बुरे सपने के जैसा है — एक 15-चरणीय प्रक्रिया जो कभी भी गड़बड़ा सकती है.
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मुश्किलों से जूझना
टीपू देवी, जिन्हें विधवा पेंशन के तौर पर हर महीने 750 रुपये मिलते थे, भीम तहसील में अपनी झोपड़ी के दरवाजे पर अपने बैग से कागज़ के कुछ टुकड़े निकालती हैं.
उनकी सभी कीमती चीज़ें इस एक बैग में हैं: उनका आधार कार्ड, उनकी पेंशन स्लिप और उनके पति का मृत्यु प्रमाण पत्र — प्रत्येक श्रेणी की सरकारी पहचान पत्र को एक अलग प्लास्टिक बैग में सुरक्षित रखा गया है.
वे एमकेएसएस के सह-संस्थापक शंकर सिंह को दिखाने के लिए सही कागज़ की तलाश कर रही हैं, ताकि वे उनकी पेंशन स्थिति की जांच कर सकें. आखिरकार वे कागज के टुकड़े को ज़मीन पर गिरा देती हैं और असहाय होकर ऊपर देखती हैं.
सिंह फिर एक पेंशन भुगतान पर्ची देखते हैं और अपने सहयोगी रंजीत को पेंशन भुगतान आदेश (पीपीओ) नंबर पढ़ाते हैं, जो जल्दी से इसे भुगतान पोर्टल में टाइप कर देता है. टीपू देवी की प्रोफाइल खुलती है, जिसमें उनका नाम, उम्र, पता और पेंशन प्राप्त करने की अंतिम तिथि दिखाई देती है. उन्होंने अगस्त 2013 से जनवरी 2022 तक हर महीने अपनी पेंशन ली है. रोके जाने का कारण बताया गया: “जनआधार पर सदस्य रिकॉर्ड हटा दिया गया” — जन आधार की गलत वर्तनी, राजस्थान की अपनी अनूठी आईडी प्रणाली जो निवासियों को सरकारी सेवाओं और लाभों से जोड़ती है.
लेकिन पोर्टल यह नहीं बताता कि टीपू देवी का रिकॉर्ड क्यों हटा दिया गया. रंजीत ने उनका विवरण डाउनलोड किया और उन्हें पीडीएफ के रूप में सहेज लिया — लाभ से वंचित पेंशनभोगियों की बढ़ती सूची में एक और मामला जुड़ गया, लेकिन चूंकि, टीपू देवी के पास आधार नंबर है और ऐसा लगता है कि वे किसी समय जनआधार पर पंजीकृत रही होंगी, इसलिए उन्हें फिर से पंजीकृत करना बहुत मुश्किल नहीं होगा.
अन्य लोग इतने भाग्यशाली नहीं हैं.
92-वर्षीय धापू देवी को पहले मृत मान लिया गया था. उनके पोते संतोष कुमार द्वारा स्थानीय अधिकारियों से लगातार संपर्क करने के बाद, इसे “जनआधार पर सदस्य रिकॉर्ड हटा दिया गया” में अपडेट कर दिया गया — ठीक टीपू देवी की तरह.
अपनी पहचान साबित करने की जिम्मेदारी नागरिकों पर है, जबकि यह जिम्मेदारी वास्तव में राज्य की होनी चाहिए. आप ऐसे लोगों से कैसे उम्मीद कर सकते हैं, जो गरीबों में सबसे हाशिए पर हैं, कि वे अपनी ज़िंदगी सरकार के पीछे भागते हुए बिता दें?
— शंकर सिंह, एमकेएसएस के सह-संस्थापक
धापू देवी के पास न तो आधार कार्ड है और न ही जन आधार कार्ड. उनके पास वोटर आईडी, राशन कार्ड और नरेगा कार्ड तो है, लेकिन ये दस्तावेज़ उन्हें सिस्टम में वापस लाने में मदद नहीं कर सकते. उनके परिवार ने उन्हें बायोमेट्रिक्स दर्ज करने की कोशिश करने के लिए कम से कम चार बार स्थानीय ई-मित्र केंद्र-राजस्थान के तथाकथित वन-स्टॉप डिजिटल सेवा केंद्र-पर ले जाया है, लेकिन हर बार, उनके फिंगरप्रिंट ठीक से स्कैन नहीं हुए — उनके हाथ बहुत घिस गए हैं. स्थानीय सरपंच ने 2023 में एक पत्र लिखकर यह प्रमाणित भी किया कि वे ज़िंदा हैं, फिर भी उन्हें अभी तक 1,000 रुपये की पेंशन नहीं मिली है.
संतोष की मां भगवती कुमार ने कहा, “उन्होंने कहा कि वे मर चुकी हैं, लेकिन यहां वे मेरे बगल में ज़िंदा बैठी हैं.”
अपनी सास की हड्डीदार बांह को सहलाते हुए उनकी आवाज़ निराशा में बढ़ रही थी. “मैंने सरपंच से एक पत्र लिखने के लिए भी कहा. मैंने कलेक्टर साहब से पूछा कि उन्हें मृत क्यों घोषित किया गया. हमें सिर्फ इसलिए दूसरे जिले में क्यों जाना चाहिए ताकि वे अपनी पेंशन ले सके जिसे सरकार ने ही बंद कर दिया है?”
राज्य के कई पेंशनभोगियों के लिए दिसंबर 2022 वह साल था जब उनकी डिजिटल पहचान और उनकी पेंशन गायब होने लगी. यही वो समय था जब राजस्थान ने पेंशन के लिए eKYC को अनिवार्य किया गया. नतीजतन, लाखों लोग रजिस्ट्री से बाहर हो गए.
इस बहिष्कार के कारण अलग-अलग हैं. कुछ पेंशनभोगियों को गलती से मृत चिह्नित किया गया, दूसरों को “राज्य से बाहर” माना गया और कुछ को राज्य और केंद्र सरकार के रिकॉर्ड के बीच डेटा बेमेल होने के कारण नुकसान उठाना पड़ा. केंद्रीकृत सत्यापन मुद्दे और eKYC चुनौतियां — जिन्हें अक्सर राज्य की राजधानी में सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग द्वारा ही हल किया जा सकता है — ने लालफीताशाही की एक और परत जोड़ दी.
बाकी मुश्किलें तब आती हैं जब परिवार की आय अपडेट नहीं होती है, जब कोई विधवा पुनर्विवाह करती है, या जब विभिन्न आईडी कार्ड में आयु बेमेल होती है — ग्रामीण भारत में एक आम बात है, जहां कई बुज़ुर्ग लोगों को अपनी सही जन्मतिथि नहीं पता होती है.
जवाजा ब्लॉक के आसन में रहने वाली 88-वर्षीय बिस्तर पर पड़ी अमरी देवी ने बताया कि कैसे उनके फिंगरप्रिंट रजिस्टर नहीं हुए, “मैंने अपनी पेंशन वापस पाने के लिए बहुत कोशिश की, लेकिन फिर भी यह काम नहीं आया! मैं बूढ़ी हो गई हूं और थक गई हूं.”
वेरीफिकेशन करने में महीनों तक लग जाते हैं, जिसके लिए कई बार फॉलो-अप की ज़रूरत पड़ती है. बुजुर्गों के लिए इसका मतलब अक्सर हर बार ऑफिस जाने के लिए छोटे रिश्तेदारों पर निर्भर रहना होता है — दैनिक मज़दूरी पर जीने वाले परिवारों के लिए यह एक चुनौती है.
‘सांप-सीढ़ी का खेल’
पेंशन के लिए आवेदन करने या पेंशन पोर्टल पर विवरण अपडेट करने की पूरी प्रक्रिया बुरे सपने के जैसा है — एक 15-चरणीय प्रक्रिया जो कभी भी गड़बड़ा सकती है.
यह प्रणाली एक भूलभुलैया है जो कागज़ी कार्रवाई में पारंगत न होने वाले किसी भी पेंशनभोगी को फंसा सकती है. सबसे पहले, उन्हें आधार कार्ड चाहिए होता है — लेकिन राजस्थान में, यह पर्याप्त नहीं है. इसे जनआधार से भी जोड़ा जाना चाहिए, जिसमें पूरे परिवार का सामाजिक आर्थिक डेटा शामिल होता है. इसके बाद ईकेवाईसी सत्यापन और पेंशन पोर्टल पर विवरण दर्ज करना होता है. अगर सब कुछ ठीक रहा, तो हर महीने के पहले सप्ताह में भुगतान आना शुरू हो जाना चाहिए.
लेकिन अक्सर, यह सुचारू रूप से नहीं चलता. फिर एक जगह से दूसरी जगह जाने का समय आ जाता है. अगर किसी पेंशनभोगी को “मृत”, “राज्य से बाहर” के रूप में सूचीबद्ध किया जाता है, या उसका डेटा मेल नहीं खाता है, तो उन्हें अपने दस्तावेज़ स्थानीय पंचायत में ले जाना पड़ता है, जो राज्य के सामाजिक न्याय विभाग को एक पत्र जारी करता है. पत्र को ब्लॉक कार्यालय भेजा जाता है, जिसके बाद बायोमेट्रिक वेरीफिकेशन होता है, जिसके लिए अक्सर एक और चक्कर लगाना पड़ता है. अगर, सब कुछ सही है — कोई बायोमेट्रिक समस्या नहीं है, सभी दस्तावेज़ सही हैं, फोन नंबर आधार से सही तरीके से जुड़ा हुआ है — तो एक ओटीपी जनरेट होता है, जिसे पोर्टल पर दर्ज करना होता है. उसके बाद ही पैसे आते हैं.
यहां तक कि यह अभी भी सबसे अच्छी स्थिति है. बहुत बार, स्थानीय अधिकारी ऐसे कागज़ मांगते हैं जो पेंशनभोगी के पास नहीं होते हैं, जिससे आवेदनों का एक और दौर मजबूरन भरना पड़ता है. या ह उन विसंगतियों को चिह्नित करते हैं जिन्हें तीन कदम पहले ठीक किया जाना चाहिए था.
सिंह ने कहा, “यह पूरी प्रक्रिया सांप-सीढ़ी के खेल की तरह है. आप एक कदम आगे बढ़ते हैं और फिर अचानक वहीं पहुंच जाते हैं जहां से आपने शुरुआत की थी.”
वेरीफिकेशन करने में महीनों तक लग जाते हैं, जिसके लिए कई बार फॉलो-अप की ज़रूरत पड़ती है. बुजुर्गों के लिए इसका मतलब अक्सर हर बार ऑफिस जाने के लिए छोटे रिश्तेदारों पर निर्भर रहना होता है — दैनिक मज़दूरी पर जीने वाले परिवारों के लिए यह एक चुनौती है.
भीम तहसील की एक और निवासी प्यारी देवी के घर का एक विशेष रूप से दर्दनाक दौरा करने के बाद एमकेएसएस के शंकर सिंह ने पूछा, “अगर यह ज़रूरतमंदों की मदद नहीं कर सकती तो इस तकनीक का क्या मतलब है?” प्यारी के दो वयस्क बेटे जो दोनों ही गंभीर रूप से विकलांग हैं, को महीनों से विकलांगता पेंशन का भुगतान नहीं मिला है. वह उनकी हर हरकत पर नज़र रखते हैं क्योंकि वह पहचान के उन कागज़ों को खंगाल रही है जिन्हें वह पढ़ नहीं सकती.
सिंह ने कहा, “अपनी पहचान साबित करने की ज़िम्मेदारी नागरिकों पर है, जबकि यह राज्य पर होनी चाहिए. आप ऐसे लोगों से कैसे उम्मीद कर सकते हैं, जो गरीबों में सबसे ज़्यादा हाशिए पर हैं, कि वे अपनी ज़िंदगी सरकार के पीछे भागते हुए बिताएं?”
यह स्थिति कानूनी फैसलों, सरकारी नीति और ज़मीनी हकीकत के बीच एक स्पष्ट विसंगति को भी दर्शाती है. आधार पर अपने 2018 के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था: कल्याणकारी सेवाओं के वितरण के लिए दस्तावेज़ अनिवार्य नहीं है. 2024 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने इस फैसले को दोहराया, जिसमें निर्दिष्ट किया गया कि आधार का मुख्य उद्देश्य केवल लाभ, सब्सिडी, सेवाओं और अन्य उद्देश्यों को हस्तांतरित करने के लिए लाभार्थियों की पहचान करना है.
2024 के आदेश में कहा गया है, “यह प्राथमिक कारण था” — “विभिन्न सब्सिडी, लाभ, सेवाओं, अनुदान, मजदूरी और अन्य सामाजिक लाभ योजनाओं के वितरण के लिए लक्षित लाभार्थियों की सही पहचान सुनिश्चित करना, जिन्हें भारत के समेकित कोष से वित्त पोषित किया जाता है.”
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राज्य की प्रतिक्रिया
एमकेएसएस द्वारा लुटियंस दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस करने के एक सप्ताह बाद, राजस्थान सरकार ने आखिरकार कार्रवाई की.
4 नवंबर को, सामाजिक न्याय विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव कुलदीप रांका ने राज्य भर के जिला कलेक्टरों को एक पत्र भेजा, जिसे दिप्रिंट ने भी देखा है. उन्होंने बताया कि राजस्थान के 90.98 लाख पेंशनभोगियों में से 5.76 लाख अभी भी अपंजीकृत हैं और उन्हें तुरंत जोड़ने की ज़रूरत है. यह संख्या सरकारी आंकड़ों के अनुसार 13.5 लाख के अतिरिक्त है, जिनकी पेंशन विभिन्न कारणों से रद्द कर दी गई है.
सामाजिक न्याय विभाग के निर्देश में आगे कहा गया है कि पेंशनभोगी अभी भी ज़िंदा हैं या नहीं, इसकी पुष्टि करने में ग्राम पंचायतों को शामिल किया जाना चाहिए; इसमें यह भी अनिवार्य किया गया है कि अगर किसी को ‘मृत’ या ‘राज्य से बाहर’ घोषित किया जाता है, तो उनकी मंजूरी ली जाए.
विभाग की ओर से दूसरे पत्र में निर्देश दिया गया कि “जिम्मेदार लोगों” के खिलाफ कार्रवाई की जाए — हालांकि, यह निर्दिष्ट नहीं किया गया है कि कौन — और रोकी गई पेंशन को तुरंत फिर से शुरू किया जाना चाहिए.
5 नवंबर को, प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने के लिए एक अनुवर्ती बैठक आयोजित की गई. विभाग ने स्पष्ट किया कि ईकेवाईसी मुद्दों के कारण पेंशन नहीं काटी जानी चाहिए और पेंशनभोगियों के डेटा के लिए जन आधार डेटाबेस का उपयोग किया जाना चाहिए.
चर्चा में शामिल सामाजिक न्याय विभाग के निदेशक बचनेश अग्रवाल ने कहा, “हम अभी जनआधार से डेटा ले रहे हैं — लेकिन अगर कोई इस पर नहीं है, तो उन्हें अपनी पेंशन लेने से वंचित नहीं किया जाना चाहिए. अगर कोई तकनीकी दिक्कत है, तो सभी जिला मजिस्ट्रेटों को समस्या का समाधान करने का निर्देश दिया गया है.”
हालांकि, एक तरह से, यह सिर्फ एक बाधा — आधार — को दूसरी बाधा से बदल रहा है: जन आधार. सामाजिक न्याय विभाग के पेंशन प्रभाग के उप निदेशक पूरण सिंह ने बताया कि आधार अनिवार्य नहीं है, लेकिन राजस्थान में जन आधार एक मानक बन गया है.
उन्होंने जोर देकर कहा, “यह सच है कि कई मामलों में लोगों को राज्य से बाहर या मृत के रूप में सूचीबद्ध किया जाता है, लेकिन यह एक विसंगति है. ऐसा इसलिए हुआ होगा क्योंकि उनका बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण नहीं किया गया होगा, या हमारे फील्ड एजेंट उन्हें सत्यापित करने में सक्षम थे.”
उन्होंने कहा कि अगर, बायोमेट्रिक सत्यापन संभव नहीं है, तो नागरिक स्वीकृत प्राधिकारी — ग्रामीण क्षेत्रों में खंड विकास अधिकारी (बीडीओ) या शहरी क्षेत्रों में उप-विभागीय मजिस्ट्रेट (एसडीएम) के पास जा सकते हैं और अपने आधार या जन आधार से जुड़े नंबर से अपना ओटीपी जनरेट करवा सकते हैं.
यह सच है कि कई मामलों में लोगों को राज्य से बाहर या मृत के रूप में सूचीबद्ध किया जाता है, लेकिन यह एक विसंगति है. ऐसा इसलिए हुआ होगा क्योंकि उनका बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण नहीं किया गया होगा, या हमारे फील्ड एजेंट उन्हें सत्यापित करने में सक्षम थे.
— सामाजिक न्याय विभाग के पेंशन प्रभाग के उप निदेशक पूरण सिंह
आधार के बिना लोगों की समस्या को हल करने के लिए, विभाग केवल जन आधार के माध्यम से ओटीपी जनरेट करने की अनुमति देने की योजना बना रहा है. हालांकि, इससे भी इसी तरह के सवाल उठते हैं.
उन्होंने कहा, “व्यक्ति अपनी पहचान की पुष्टि के लिए अपने जन आधार और 16 अन्य दस्तावेज़ का उपयोग कर सकता है. चूंकि,आधार अनिवार्य नहीं है.”
लेकिन जन आधार की अपनी चुनौतियां हैं, जिनमें केंद्रीय अड़चनें भी शामिल हैं.
मार्च 2024 में केंद्र सरकार ने कहा कि वह विकलांगता पेंशन के लिए तभी धनराशि जारी करेगी जब पेंशनभोगी का विकलांगता प्रमाण पत्र उसके विशिष्ट विकलांगता आईडी (यूडीआईडी) पोर्टल पर अपलोड किया जाएगा.
इस मानक को पूरा करने के लिए, राजस्थान ने 7 मार्च से जनआधार पोर्टल पर नए विकलांगता आवेदन स्वीकार करना बंद कर दिया और केंद्र सरकार के साथ एक समझौता ज्ञापन के बाद एपीआई के माध्यम से अपने डेटाबेस को यूडीआईडी पोर्टल पर पोर्ट करने का प्रयास किया. हालांकि, केंद्र सरकार ने अभी तक राजस्थान के साथ अपना डेटा साझा नहीं किया है. इसलिए, राज्य रिकॉर्ड की तुलना नहीं कर सकता है और यह सुनिश्चित नहीं कर सकता है कि लाभार्थियों की कोई डुप्लिकेट प्रविष्टियां न हों.
नतीजतन, राजस्थान में एक भी विकलांग व्यक्ति को सात महीने तक अपनी विकलांगता पेंशन नहीं मिली. कोई नया आवेदन स्वीकार नहीं किया गया और जो लोग अपनी पेंशन बहाल करने की कोशिश कर रहे थे, वह भी अधर में लटके रह गए. इसने लाखों लोगों — जैसे प्यारी देवी के परिवार — को मुश्किल में डाल दिया है.
इस चूक को दूर करने के लिए, पेंशन विभाग अब विकलांग लोगों को उनके स्वीकृत प्राधिकारी के फोन के माध्यम से अपनी पहचान सत्यापित करने की अनुमति दे रहा है. इसका मतलब यह है कि बीडीओ या एसडीएम अपने फोन पर ओटीपी प्राप्त कर सकते हैं और लाभार्थी की ओर से सत्यापन प्रक्रिया पूरी कर सकते हैं.
सामाजिक न्याय विभाग वर्तमान में बुजुर्ग पेंशनभोगियों के लिए भी इस समाधान को लागू करने पर विचार कर रहा है.
पूरण सिंह ने कहा, “यह अभी चर्चा में है. हम इस पर काम कर रहे हैं.”
कार्यकर्ताओं का तर्क है कि अधूरे केवाईसी या बायोमेट्रिक बेमेल के कारण पेंशन, राशन और नरेगा भुगतान रोकना अनुच्छेद 21, जीवन के अधिकार का उल्लंघन है.
केवल राजस्थान की समस्या नहीं
डिजिटल बहिष्करण की समस्या राजस्थान से कहीं आगे तक फैली हुई है. पूरे देश में, कई नागरिक अपनी पेंशन, राशन और नरेगा भुगतान से वंचित हैं — जो गरीबों के लिए सहायता के तीन मुख्य स्तंभ हैं.
हर नवंबर में पूरे भारत में पेंशनभोगियों को यह साबित करना होता है कि वे ज़िंदा हैं. पहले, इसका मतलब बैंक में शारीरिक रूप से उपस्थित होना होता था, लेकिन 2014 में, सरकार ने डिजिटल जीवन प्रमाणपत्र पेश किया जो बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण का उपयोग करता है और इसके लिए ओटीपी की ज़रूरत नहीं होती है.
यूआईडीएआई के पूर्व महानिदेशक राम सेवक शर्मा ने कहा, “बैंक जाने के बजाय, अब आप इसे डिजिटल तरीके से कर सकते हैं. अगर पेंशनभोगी घर पर ही फेस ऑथेंटिकेशन के ज़रिए अपना सत्यापन कर सकते हैं, तो यह एक सुधार है. सवाल यह है कि कितने लोग इस सुधार का लाभ उठाते हैं? ज़ाहिर है कि जो लोग डिजिटल डिवाइस का इस्तेमाल नहीं करते, वे इससे बाहर हैं.”
हालांकि, ये खामियां केवल पेंशन तक सीमित नहीं हैं.
नरेगा भुगतान अब एबीपीएस से जुड़े हैं, जो किसी कार्यकर्ता के आधार को उसके जॉब कार्ड और बैंक खाते से जोड़ता है. इसके लिए भी नेशनल पेमेंट प्लेटफॉर्म पर उन्हें मैप करने के लिए ईकेवाईसी की ज़रूरत होती है. इस बदलाव के कारण बड़े पैमाने पर बहिष्कार हुआ है — अकेले अप्रैल से सितंबर 2024 के बीच महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGS) से 39 लाख से अधिक पंजीकृत श्रमिकों को हटा दिया गया. 2022 से 2024 तक, 8 करोड़ से अधिक श्रमिकों को रजिस्ट्री से हटा दिया गया, जिसका मुख्य कारण एबीपीएस से संबंधित मुद्दे थे.
राज्य (डिजिटल) बुनियादी ढांचा बनाने और देश के अधिकांश लोगों को नामांकित करने में सक्षम रहा है, लेकिन राज्य के नेतृत्व वाली नीति का उद्देश्य केवल सफलताओं को गिनना नहीं है. सरकार सभी के लिए होती है.
— तनवीर हसन, सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी के कार्यकारी निदेशक
राशन के साथ भी यही समस्या है. सरकार की ओर से एक आरटीआई जवाब के अनुसार, 2013 से 2021 तक, देश भर में सार्वजनिक वितरण प्रणाली से लगभग 4.39 करोड़ यूज़र्स हटा दिए गए.
ऐसी 314 अन्य केंद्र प्रायोजित योजनाएं हैं, जिनका उद्देश्य नागरिकों के बैंक खातों में सीधे लाभ हस्तांतरित करना है, लेकिन जो लोग एबीपीएस का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, उनके लिए ये योजनाएं शायद मौजूद ही न हों.
इच्छित पारदर्शिता प्रदान करने के बजाय, एक सार्वभौमिक डिजिटल बुनियादी ढांचे के कार्यान्वयन ने अस्पष्टता की नई परतें बनाई हैं.
कार्यकर्ताओं का तर्क है कि अपूर्ण केवाईसी या बायोमेट्रिक बेमेल के कारण पेंशन, राशन और नरेगा भुगतान रोकना अनुच्छेद 21, जीवन के अधिकार का उल्लंघन है.
एमकेएसएस के सह-संस्थापक निखिल डे ने कहा, “हम 40 साल से ऐसा कर रहे हैं. हम जानते हैं कि जब आप बड़े पैमाने पर सिस्टम से निपट रहे होते हैं, तो लोगों का छूट जाना अपरिहार्य है, लेकिन टेक्नोक्रेट्स का यह जुनून है कि तकनीक सब कुछ हल कर देगी — और अगर कोई समस्या है, तो उसे तकनीक से ठीक किया जाएगा.”
डे का तर्क है कि कम तकनीक अपनाना अब समय की मांग है.
उन्होंने कहा, “इस समस्या को हल करने का एकमात्र तरीका विकेंद्रीकृत, ऑफलाइन, सार्वजनिक तरीके खोजना है.”
डे और अन्य कार्यकर्ता एक शासन मॉडल का प्रस्ताव करते हैं जिसमें स्थानीय निर्वाचित निकाय, जैसे पंचायत, केंद्रीकृत डेटाबेस प्रमाणीकरण की आवश्यकता के बिना सामाजिक कल्याण लाभ वितरित करते हैं.
तकनीकी नीति विश्लेषकों का कहना है कि नीति को डिजिटल सिस्टम में लचीलापन बनाना चाहिए. अगर कुछ विफल होता है, तो बैकअप या प्लान बी होना चाहिए, भले ही इसका मतलब यह हो कि पेंशनभोगी अभी भी ज़िंदा है या नहीं, यह सत्यापित करने जैसे कार्यों के लिए मैन्युअल विकल्पों का उपयोग करना.
सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी के कार्यकारी निदेशक तनवीर हसन ने कहा, “हां, राज्य (डिजिटल) बुनियादी ढांचा बनाने और देश के अधिकांश लोगों को नामांकित करने में सक्षम रहा है, लेकिन राज्य के नेतृत्व वाली नीति का उद्देश्य केवल सफलताओं को गिनना नहीं है. सरकार सभी के लिए है.”
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गरिमापूर्ण ज़िंदगी की कीमत
गांव में पेंशन खोने की कीमत बहुत ज़्यादा है. यह गरिमापूर्ण ज़िंदगी और बिना गरिमापूर्ण ज़िंदगी के बीच बहुत बड़ा अंतर पैदा कर सकती है.
भीम तहसील में भगवती लंगड़ाती हुई घर लौटती हैं, उनके हाथ में स्नैक्स का एक प्लास्टिक बैग है, उनका चेहरा खुशी से चमक रहा है. उन्हें अपनी उम्र का ठीक-ठीक पता नहीं है और उनका कोई सगा-संबंधी भी नहीं है, लेकिन वे बहुत खुश हैं क्योंकि उन्होंने अपने लिए नमकीन और पीने के लिए कुछ खरीदा है.
अपने कई बुज़ुर्ग साथियों से अलग, भगवती को पेंशन और राशन दोनों मिलते हैं. वे अकेली और स्वतंत्र रूप से रहती हैं, उनका हंसमुख, आत्मविश्वासी व्यवहार कई अन्य लोगों की चिंता के बिल्कुल विपरीत है.
“मैंने लंबी ज़िंदगी जी है और अब मैं आराम से रहकर खुश हूं.” बातचीत में उन्होंने कुछ रंगीन गालियां दीं. हालांकि, “सब कुछ शांतिपूर्ण है.”
बुढ़ापे में भगवती की गरिमा और उनकी खुशी चौंका देने वाली है. वे याद दिलाती हैं कि एक व्यक्ति के लिए एक नियमित पेंशन और राशन क्या कर सकता है. परिवार का भरण-पोषण करने वाला कोई न होने के कारण, वे अपनी पेंशन खुद पर खर्च कर सकती हैं, जिससे उन्हें अपनी शर्तों पर जीने की आज़ादी मिलती है. 86-वर्षीय नैनू देवी की तरह लाखों अन्य लोगों के लिए, पेंशन न केवल व्यक्तिगत आय है, बल्कि पूरे परिवार के लिए महत्वपूर्ण है. भील से ही, नैनू देवी की देखभाल उनके रिश्तेदारों द्वारा की जा रही है, जो कहते हैं कि उनकी पेंशन ने उनके बोझ को कम करने में मदद की.
कई लोगों ने कहा, हालांकि, भगवती की वित्तीय स्वतंत्रता अनोखी हो सकती है, लेकिन उनका संतोष आदर्श होना चाहिए.
फिर भी, यह व्यवस्था अप्रत्याशित तरीके से काम करती है. भीम निवासी जीतू ने कहा कि उनकी 86-वर्षीय विधवा दादी की पेंशन 25 साल बाद हाल ही में बंद हो गई. जब वे इसका कारण जानने गए, तो कारण यह बताया गया कि वह ‘विवाहित’ थीं और इसलिए विधवा पेंशन की हकदार नहीं थीं.
जीतू ने भीम में एमकेएसएस द्वारा संचालित ई-मित्र केंद्र पर हंसते हुए कहा, “86 की उम्र में कौन शादी करता है?” यहां तक कि सप्ताहांत की सुबह भी चार बुजुर्ग लोग अपनी पेंशन और अन्य भुगतानों की जांच करने आए थे.
पास के एक गांव की निर्वाचित सरपंच रुक्मा ने अपनी 100-वर्षीय दादी अमरी देवी की निराशा का ज़िक्र किया, जब दिसंबर 2022 में उन्हें पेंशन मिलना बंद हो गई.
उन्होंने कहा, “अगर सरकार मेरा वोट लेने के लिए इतनी दूर आ सकती है, तो वह यह सुनिश्चित करने के लिए यहां क्यों नहीं आ सकती कि मुझे मेरी पेंशन मिले?”
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