सीदड़ा (टोंक): राजस्थान के एक गांव में मीणाओं ने सरकारी नौकरियों के लिए एक असंभव, लेकिन कारगर रास्ता तलाश लिया है.
यह उर्दू के ज़रिए है.
टोंक जिले के इस गांव में लगभग हर युवा उर्दू की तालीम लेने और सरकारी असातिज़ा (शिक्षक) बनने के लिए इम्तिहान की तैयारी में जुटा है.
2022 में उर्दू का यह बुखार एक नए शिखर पर पहुंच गया, जब 20-वर्षीय कल्पना मीणा ने उर्दू में पूरे 100 नंबर के साथ बाहरवीं के इम्तिहान पास किए और पूरे राज्य में टॉप रैंक हासिल की, लेकिन यह महज़ इत्तेफाक नहीं था. राजस्थान भर में 100 से ज़्यादा उर्दू असातिज़ा (टीचर्स) और प्रोफेसर सीदड़ा से हैं, जो राज्य की राजधानी जयपुर से 85 किलोमीटर दूर है. यह एक ऐसा इलाका है, जहां से सालाना बड़ी संख्या में उर्दू के शिक्षक निकल रहे हैं.
किसी भी आम दिन, गांव के बच्चों को एक-दूसरे से उर्दू में गुफ्तगू करते या अल्फाज़ों को दोहराते हुए देखा जा सकता है. बच्चे दरख्तों के नीचे या गलियों में बैठकर उर्दू की किताबों को पढ़ते हैं और ख्वाब, सुकून और रहमत जैसे लफ्ज़ों को बोलते हैं, लेकिन गांव के साइनबोर्ड अभी भी हिंदी में हैं और उर्दू केवल सुब्बारा (ब्लैकबोर्ड) और किताबों तक ही सीमित है. गांव ने उर्दू को अपनी ज़बान (भाषा) नहीं बनाया है — यह महज़ मक़ाम हासिल करने की ज़बान है, अंग्रेज़ी से भी ज्यादा.
एक वक्त था जब एसटी-कैटेगरी के उर्दू असातिज़ा के लिए आरक्षित कई सरकारी पद खाली रह गए थे क्योंकि योग्य उम्मीदवार नहीं थे. अब, 6,000 से अधिक आबादी वाला सीदड़ा गांव इस फर्क को भारत की सरकारी नौकरी की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए खुद के फास्ट ट्रैक में बदल रहा है.
इसकी सफलता ने सीदड़ा को “उर्दू गांव” का खिताब दिलाया और इसने आसपास के गांवों को भी अपने स्कूलों में उर्दू ज़बान को पढ़ना-लिखना शुरू करने के लिए प्रेरित किया है.
यह रातों-रात नहीं हुआ. सीदड़ा को यहां तक पहुंचने और कल्पना जैसी तालिब (स्टूडेंट) तैयार करने में कई साल लग गए, जो गांव में पूरे नंबर लाने वाली गांव की पहलीं छात्रा हैं.
सीदड़ा के सरपंच 70-वर्षीय रामसाई मीणा ने कहा, “उर्दू हमारे गांव के लिए वरदान बनकर आई. पूरा गांव खेती पर निर्भर था, लेकिन उर्दू ने सरकारी नौकरी के हमारे ख्वाब को पूरा किया. मैंने कभी पढ़ना नहीं सीखा, लेकिन युवा पीढ़ी उर्दू पढ़कर नौकरी पाने की पूरी कोशिश कर रही है.”
कल्पना, जो अब उर्दू में ग्रेजुएशन की डिग्री के लिए पढ़ रही हैं, सीदड़ा के कई विद्वानों में शामिल होने के लिए तैयार हैं, जो उर्दू ज़बान के असातिज़ा (टीचर्स) बन गए हैं.
कल्पना के वालिद (पिता) रामफूल मीणा के लिए उन्हें उर्दू की तालीम दिलाने का एक ही मकसद था — सरकारी नौकरी. यह आगे बढ़ने के लिए आजमाया और परखा हुआ फार्मूला था है.
अपने घर के आंगन में लकड़ी की चारपाई पर बैठे किसान रामफूल ने कहा, “जब मेरी बेटी 11वीं क्लास में आईं, तो मैंने उन्हें उर्दू की तालीम दिलाई. गांव में कई लोगों ने उर्दू ज़बान के ज़रिए सरकारी नौकरी पाई है और इसके लिए उनकी बहुत इज्ज़त की जाती है. मैं भी अपनी बेटी के लिए भी यही चाहता हूं.”
2022 में राजस्थान ने अलग-अलग मज़मूनों (विषयों) में 800 असातिज़ा (टीचर्स) की भर्ती की और उनमें से 40 सीदड़ा से थे, जिनमें से ज्यादातर उर्दू के लिए थे — राज्य के किसी भी गांव से यह सबसे अधिक संख्या थी.
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उर्दू गांव का सफ़र
गांव के स्कूल में तलबाओं (स्टूडेंट्स) को छठी क्लास से ही उर्दू की तालीम दिलाई जा रही है. सब्बुरा (ब्लैकबोर्ड) उर्दू में लिखे अल्फ़ाज़ों से सजे हैं, जबकि किताबों और वर्कशीट में फिराक़ गोरखपुरी, मिर्ज़ा ग़ालिब और मीर तक़ी मीर जैसे शायरों की ‘नज़्में’ हैं. बच्चे फख़्र से एक-दूसरे को अपनी उर्दू लिखावट दिखा रहे हैं. उर्दू की अहमियत साफ झलक रही है — यह बाहरवीं क्लास के तलबाओं के लिए पहला मज़मून (विषय) है.
छठी क्लास के तालिब अभय मीणा ने स्कूल के गेट से गुज़रते हुए अपने कंधे पर स्कूल का बैग लटकाते हुए कहा, “मैं कुछ दिनों से उर्दू पढ़ रहा हूं. यह थोड़ा नया लगता है, लेकिन मुझे मज़ा आ रहा है.”
छठी से आठवीं क्लास तक के तलबाओं को उर्दू पढ़ना और लिखना सिखाया जा रहा है — 38 लफ्ज़ों के साथ-साथ कवायद-ए-ज़बान जिसमें इस्म (Noun) और फायल (Verb) को समझाया जा रहा है. नौंवी क्लास में उन्हें नावेल (उपन्यास) और अफसाना निगारी (छोटी कहानियों) के साथ-साथ ग़ज़ल, कसीदा और मर्सिया जैसे नज़्मों के कायदों से मुख़ातिब कराया जा रहा है.
आज, सिदरा के स्कूल में 460 स्टूडेंट्स में से 300 उर्दू की तालिम लेते हैं — छठी से दसवीं क्लास तक के 160 और ग्यारवीं और बाहरवीं क्लास के कुल 92 बच्चे हैं. उर्दू की क्लास दो असातिज़ा संभालते हैं — गंगाधर मीणा और हाई स्कूल के असातिज़ा सोपाल चौधरी.
लेकिन सिदरा की उर्दू से मुहब्बत घर से शुरू नहीं हुई. 1990 में गांव के स्कूल में केवल आठवीं क्लास तक की पढ़ाई होती थी, इसलिए बच्चे 10 किलोमीटर दूर टोंक जिले के निवाई जाते थे. यहीं पर, सरकारी सीनियर सेकेंडरी बॉयज स्कूल में, 1994 में उर्दू को तीसरी ज़बान (भाषा) के रूप में पेश किया गया.
टीचर शाहाना मदनी ने बताया कि कुछ हिंदू स्टूडेंट पूछते थे: “क्या आप उर्दू पढ़ाकर हमें मुसलमान बनाने की कोशिश कर रही हैं?” उनका जवाब तल्ख होता था: “क्या अंग्रेज़ी सीखने से आप अंग्रेज़ बन जाएंगे?”
टोंक — एक पूर्व रियासत — जो नवाबों द्वारा शासित थी, लंबे समय से उर्दू साहित्य और नज़्मों से लबरेज़ है — इतना कि इसे “राजस्थान का लखनऊ” कहा जाता है. यह मौलाना अबुल कलाम आज़ाद अरबी फ़ारसी शोध संस्थान का भी घर है, एक लाइब्रेरी और म्यूज़ियम जिसमें क़ुरान की दुनिया की सबसे बड़ी प्रति, साथ ही दुर्लभ उर्दू पांडुलिपियां हैं.
हालांकि, निवाई में स्कूल के कोर्स में उर्दू को शामिल करना आसान नहीं था. इसकी कोशिश शाहाना मदनी ने की, जिन्हें उर्दू पढ़ाने के लिए नियुक्त किया गया, लेकिन स्टूडेंट्स और कर्मचारियों के विरोध के कारण उन्हें दो साल तक इतिहास पढ़ाना पड़ा.
अब रिटायर्ड हो चुकीं मदनी ने कहा, “यहां तक कि स्कूल के प्रिंसिपल भी नहीं चाहते थे कि उर्दू की पढ़ाई हो.”
टीचर शाहाना मदनी ने बताया कि कुछ हिंदू स्टूडेंट्स पूछते थे: ‘क्या आप उर्दू पढ़ाकर हमें मुसलमान बनाने की कोशिश कर रहे हैं?’ उनका जवाब तल्ख होता था: ‘क्या अंग्रेज़ी सीखने से आप अंग्रेज़ बन जाएंगे?’
विरोध के बावजूद, उर्दू को आखिरकार कोर्स में जगह मिल गई, जिसकी हेड मदनी को बनाया गया.
सीदड़ा के निवाई में उर्दू पढ़ने वाले पहले छात्रों में से 40-वर्षीय कृष्ण गोपाल मीणा ने बताया, जब उर्दू पढ़ने वाले स्टूडेंट्स को सरकारी नौकरी मिलनी शुरू हुई, तो लोगों का नज़रिया बदलने लगा.
टोंक के सरकारी पीजी कॉलेज में उर्दू के सहायक प्रोफेसर कृष्ण गोपाल ने कहा, “राजस्थान में उर्दू टीचर्स के लिए एसटी-श्रेणी की सीटें खाली रहती थीं, लेकिन जब ग्रामीणों को नौकरी के अवसरों का एहसास हुआ, तो उर्दू की अहमियत बढ़ने लगी.”
2013 में अपना खुद का उर्दू इकोसिस्टम बनाने के लिए दृढ़ संकल्पित, सीदड़ा की स्कूल प्रबंधन समिति ने उर्दू को तीसरी भाषा के रूप में शामिल करवाया. पूरा गांव इस कोशिश के साथ जुड़ गया. जब स्कूल में तीन साल तक कोई टीचर्स नहीं थे, तो गांव के ग्रेजुएट्स क्लास लेने के लिए आगे आए.
पहली ‘आधिकारिक’ उर्दू असातिज़ा अस्मा बानो, 2016 में आईं और 2022 में अपने तबादले तक छह साल तक वहां पढ़ाया.
शुरुआत में उर्दू केवल ग्याहरवीं और बाहरवीं क्लास तक पढ़ाई जाती थी, लेकिन 2020 में इसे छठी क्लास के लिए भी शुरू किया गया.
स्कूल के प्रिंसिपल बीरबल मीणा ने कहा, “मैंने पहले कभी उर्दू के लिए इतनी मुहब्बत नहीं देखी. यहां तक कि बच्चों के वालिदेन भी हमारे पास आते हैं और हमसे उर्दू पढ़ाने के लिए कहते हैं.”
सीदड़ा इस क्षेत्र का उर्दू ‘इन्फ्लुएंसर’ बन गया है और यह इसे सभी को दिखाने के लिए तैयार रहता है. अन्य गांव जैसे 1.5 किमी दूर स्थित देवरी, भी इसका अनुसरण कर रहे हैं और स्कूलों में उर्दू ज़बान को लागू करने में जुटे हैं — इस ज़बान के प्रति लगाव के कारण नहीं, बल्कि उसी व्यावहारिक (नौकरी) मानसिकता के साथ.
लड़कियों ने बनाया रास्ता
सीदड़ा में उर्दू ज़बान का प्रभाव बढ़ाने में लड़कियां ही सबसे आगे हैं. प्रिंसिपल मीणा ने कहा कि उर्दू सीखने वालीं लगभग 60 प्रतिशत स्टूडेंट्स लड़किया हैं, जिन्होंने 2018 में शामिल होने के बाद से इस ज़बान को अंग्रेजी से ज़्यादा लोकप्रिय बनाया है.
प्रिंसिपल ने बताया कि ज़्यादातर लड़कियां दसवीं क्लास के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ देती थीं, लेकिन अब, उर्दू के ज़रिए नौकरी की संभावनाओं के कारण खासतौर से शिक्षिका जिसे आमतौर पर ‘महिला-अनुकूल’ पेशा माना जाता है — कईं वालिदेन अपनी बेटियों को पढ़ाई पूरी करने के लिए उनकी हौंसला अफ़ज़ाई कर रहे हैं.
उन्होंने कहा, “लड़कों से ज्यादा लड़कियां उर्दू ज़बान को तवज्जों देती हैं.”
लड़कियों के अलावा, कई लड़के भी रेलवे, राजस्थान पुलिस या सेना में अन्य सरकारी नौकरियों पर नज़र रख रहे हैं, लेकिन उन क्षेत्रों में सीदड़ा में उर्दू जैसा नौकरी का ट्रैक रिकॉर्ड नहीं है.
नतीजे खुद ही सब कुछ बयां कर रहे हैं. प्रिंसिपल मीणा ने फख्ऱ से मुस्कुराते हुए कहा, “टोंक जिले में सीदड़ा में सबसे ज्यादा स्टूडेंट्स शिक्षक चुने गए हैं.”
2022 में राजस्थान ने अलग-अलग मज़मूनों (विषयों) में 800 शिक्षकों की भर्ती की गई जिनमें से 40 अकेले सीदड़ा से थे और सबसे ज्यादा उर्दू के थे — राज्य के किसी भी गांव से यह सबसे ज्यादा संख्या थी.
बीते दशक से हर साल उर्दू में कोई न कोई नया मील का पत्थर मनाया जाता है. उदाहरण के लिए 2013 में उर्दू असातिज़ा के लिए 26 एसटी पदों में से 11 सीदड़ा युवाओं द्वारा भरे गए थे और 2016-17 में, पूरे राज्य में उर्दू प्रोफेसर के लिए एकमात्र एसटी सीट सीदड़ा के छात्र को मिली.
प्रोफेसर कृष्ण गोपाल मीणा ने दावा किया कि राजस्थान में 250 से अधिक उर्दू टीचर्स हिंदू समाज से हैं. उन्होंने कहा कि अकेले सीदड़ा से दो प्रोफेसर, 14 स्कूल लेक्चरर, 30 वरिष्ठ शिक्षक और 60 से अधिक हाई स्कूल शिक्षक हैं, साथ ही कुछ मदरसा के उस्ताद भी हैं.
लेकिन हाई स्कोर हासिल करना और टीचर के लिए योग्यता प्राप्त करना नौकरी की गारंटी नहीं है.
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अधिक खाली पद, लेकिन कम नौकरियां
सीदड़ा में दो दर्जन से अधिक स्टूडेंट्स बीएड की पढ़ाई कर रहे हैं और शिक्षक भर्ती के अगले चरण के इंतज़ार में हैं. इनमें कमलेश मीणा भी शामिल हैं, जिन्होंने पिछले साल टोंक से बीए किया है और अब अपनी शिक्षण योग्यता के लिए कार्यरत हैं.
कमलेश ने कहा, “यहां के स्टूडेंट्स को अब अपने भविष्य के बारे में ज्यादा सोचने की ज़रूरत नहीं है. रास्ता तय किया गया है- उर्दू पढ़ें और उर्दू पढ़ाएं. इसलिए बहुत कम लोग अन्य मज़मूनों या फील्ड के बारे में सोचते हैं. उर्दू इस गांव की पहचान बन गई है.”
हालांकि, राजस्थान भर में उर्दू शिक्षकों के पद सालों से खाली हैं. स्थानीय विधायकों से लेकर उर्दू शिक्षक संघ तक, इन पदों को भरने के लिए बार-बार मांग कर रहे हैं.
2022 में कांग्रेस विधायक अमीन कागज़ी और वाजिद अली ने अपनी ही सरकार को चुनौती देते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पत्र लिखा था, जिसमें पूछा गया था कि जब उर्दू शिक्षकों के 2,000 पद खाली थे, तो केवल 309 पद ही क्यों स्वीकृत किए गए. तब से बहुत कम बदलाव हुआ है.
अभी तक, 6,957 प्राथमिक और वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालयों में उर्दू पढ़ाई जाती है. हालांकि, प्राथमिक स्तर पर, 79 वरिष्ठ शिक्षक पदों में से केवल 49 ही भरे हुए हैं. जूनियर टीचर्स के लिए स्वीकृत 446 पदों में से केवल 330 पर ही काम चल रहा है. माध्यमिक शिक्षा में भी स्थिति ऐसी ही है —458 व्याख्याता पदों में से 140 खाली हैं, जबकि 1,082 वरिष्ठ शिक्षक पदों में से 368 खाली हैं. जूनियर टीचर्स के लिए 1,034 शिक्षण पदों में से 449 खाली हैं.
लेकिन चिंता का कारण सिर्फ खाली पद नहीं हैं — सवाल यह भी उठ रहे हैं कि उर्दू टीचर्स कहां तैनात हैं.
राज्य चार अल्पसंख्यक ज़बानों को मान्यता देता है — उर्दू, सिंधी, पंजाबी और गुजराती. राजस्थान शिक्षा विभाग की नीति के अनुसार, इन भाषाओं की क्लास किसी भी स्कूल में शुरू की जा सकती हैं, जहां कम से कम 10 छात्र इन्हें चुनते हों.
यह ज़बान भारत में ही पली-बढ़ी है. हिंदी के महान लेखक प्रेमचंद भी उर्दू में लिखा करते थे. यह भारत की भाषा है, सिर्फ मुसलमानों की नहीं
— टोंक में उर्दू के प्रोफेसर कृष्ण गोपाल मीणा
राजस्थान के शिक्षा मंत्री मदन दिलावर ने दिप्रिंट को बताया, हालांकि, नियम से उलट, कुछ स्कूलों ने उर्दू शिक्षकों को वहां भी नियुक्त किया है, जहां कम छात्र हैं.
उन्होंने कहा, “सिर्फ चार बच्चों को पढ़ाने के लिए नियुक्त उर्दू शिक्षकों को हटाया जाना चाहिए. वो दूसरी जगहों पर जाकर दूसरे विषय भी पढ़ा सकते हैं.”
लोकसभा में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार, 2023 में सरकारी और दूसरे स्कूलों में 1,36,176 उर्दू शिक्षकों की ज़रूरत है. फिर भी, हर राज्य में सैकड़ों पद खाली हैं.
लेकिन, उर्दू स्टाफ की कमी सिर्फ स्कूलों तक सीमित नहीं है.
राजस्थान उर्दू शिक्षक एवं व्याख्याता संघ के अध्यक्ष डॉ. शमशाद अली ने कहा, “राज्य की यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में भी यही स्थिति है. राजस्थान यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में 15 टीचर्स होने चाहिए, लेकिन वर्तमान में केवल एक ही कार्यरत है.”
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कोई मुस्लिम नहीं, लेकिन उर्दू का प्रभाव
कम भर्ती के डर के बावजूद, उर्दू न केवल स्टूडेंट्स को सीदड़ा की ओर खींच रही है, बल्कि गांव से बहुत दूर के इलाकों में भी नए अवसरों के लिए दरवाजे खोल रही है.
बीरबल मीणा ने कहा, “स्टूडेंट्स 10-15 किलोमीटर दूर से यहां उर्दू पढ़ने आते हैं.”
उन्होंने आगे कहा कि स्कूल के 2019-20 बैच के दो छात्र अब राष्ट्रीय राजधानी में एमए कर रहे हैं — एक जेएनयू में और दूसरा दिल्ली यूनिवर्सिटी में.
मीणा के अनुसार, सीदड़ा की कहानी को और भी उल्लेखनीय बनाने वाली बात इसकी जनसांख्यिकी है.
उन्होंने कहा, “यहां एक भी मुस्लिम बच्चा नहीं पढ़ता है.”
मूल रूप से सीदड़ा के रहने वाले, लेकिन अब झालावाड़ में पढ़ाने वाले उर्दू शिक्षक कमल मीणा ने भी यही कहा: “ज्यादातर जगहों पर उर्दू पढ़ने वाले ज़्यादातर मुस्लिम छात्र हैं, लेकिन सीदड़ा में यह पूरी तरह से हिंदू हैं.”
सीदड़ा की सफलता की कहानियों में से एक, सहायक प्रोफेसर कृष्ण गोपाल मीणा टोंक के सरकारी पीजी कॉलेज के उर्दू विभाग के पांच फैकल्टी मेंबर्स से एक हैं — इसमें तीन हिंदू हैं, दो मुस्लिम हैं. उनके ज़्यादातर छात्र मुस्लिम हैं, लेकिन कृष्ण गोपाल के लिए उर्दू हमेशा धर्म से ऊपर रही है.
उन्होंने कहा, “यह ज़बान भारत में पली-बढ़ी है. हिंदी के महान लेखक प्रेमचंद भी उर्दू में लिखा करते थे. यह भारत की भाषा है, सिर्फ मुसलमानों की नहीं.”
उन्होंने कहा कि उनके मुस्लिम छात्रों को इस बात की परवाह नहीं है कि उनके उर्दू प्रोफेसर हिंदू हैं.
हालांकि, सीदड़ा में उर्दू के कोई साइनबोर्ड नहीं हैं — सरपंच का दावा है कि उन्होंने कभी इसके बारे में सोचा ही नहीं — लेकिन गांव की परिषद अगले साल की शुरुआत में उर्दू उत्सव के साथ दो दशकों की प्रगति का जश्न मनाने की योजना बना रही है. नज़्में और ग़ज़लों के सत्र होंगे और गांव के सभी उर्दू शिक्षकों को सम्मानित किया जाएगा.
सीदड़ा इस क्षेत्र का उर्दू ‘इन्फ्लुएंसर’ बन गया है. डेढ़ किलोमीटर दूर देवरी जैसे अन्य गांव भी इसका अनुसरण कर रहे हैं और स्कूलों में उर्दू ज़बान को पढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं — भाषा के प्रति लगाव के कारण नहीं, बल्कि उसी व्यावहारिक (नौकरी वाली) मानसिकता के साथ.
2021 में सीदड़ा से कुछ किलोमीटर दूर स्थित तुर्किया गांव ने अपने स्कूल में उर्दू की पढ़ाई शुरू की.
तुर्किया निवासी गोपाल मीणा ने कहा, “सीदड़ा ने इतने सारे उर्दू शिक्षक तैयार करके टोंक में एक मिसाल कायम की है. सफलता की कहानियां हम तक पहुंचीं और हम उनका अनुसरण करने की कोशिश कर रहे हैं. आज के प्रतिस्पर्धी नौकरी बाज़ार में यह सरकारी नौकरी पाने का एक आसान तरीका है.”
(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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