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Tuesday, 12 November, 2024
होमफीचरदिल्ली के उर्दू बाज़ार की रौनक हुई फीकी; यहां मंटो और ग़ालिब नहीं, बल्कि मुगलई बिकता है

दिल्ली के उर्दू बाज़ार की रौनक हुई फीकी; यहां मंटो और ग़ालिब नहीं, बल्कि मुगलई बिकता है

1970 के दशक में उर्दू बाज़ार में 50 से ज़्यादा किताबों की दुकानें थीं, लेकिन अब सिर्फ 5 ही बची हैं. बाज़ार अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है. यह उर्दू प्रिंटिंग, प्रकाशन और कविताओं के युग का आखिरी दौर है.

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नई दिल्ली: शकील अंजुम देहलवी पुरानी दिल्ली के उर्दू बाज़ार में अपनी 50 साल पुरानी किताबों की दुकान में बेकार बैठे हैं. कई साल पहले, उनके पास 10 कर्मचारी थे जो दुकान में आने वाले उर्दू पाठकों को सम्हालते थे और उनकी ज़रूरत की चीज़ें मुहैया कराते थे. लेकिन अब किताबों पर धूल जम रही है. कभी साहित्यिक स्थल रहा अब यह बाज़ार कबाब की खुशबू और खाने वालों के शोर से भरा रहता है.

उर्दू बाज़ार की संकरी गलियों में अब भी भीड़ उमड़ती है, लेकिन वे ज़्यादातर मुगलई चिकन और मटन बिरयानी के लिए आते हैं, मिर्ज़ा ग़ालिब या मंटो के लिए नहीं. एक ऐसा बाज़ार जो 40 साल पहले अपने सुनहरे दिनों में हर महीने लाखों किताबें बेचता था, अब सिर्फ़ कुछ किताबों की दुकानें ही बची हैं जो बिरयानी की दुकानों और ट्रैवल एजेंसियों के बड़े-बड़े साइनबोर्ड के पीछे छिपी हुई हैं. जैसे-जैसे बिक्री घटती जा रही है और पाठक गायब होते जा रहे हैं, किताब बेचने वालों को चिंता हो रही है कि उर्दू साहित्य की विरासत ही खतरे में पड़ गई है.

अंजुम बुक डिपो के मालिक 65 वर्षीय देहलवी कहते हैं, “पहले उर्दू बाज़ार की गलियां हमेशा कवियों, छात्रों, शोधकर्ताओं, प्रोफेसरों और सभी तरह के पुस्तक प्रेमियों से भरी रहती थीं. लेकिन अब, उर्दू बाज़ार में लोग मुख्य रूप से बिरयानी, कबाब और शरबत-ए-मोहब्बत का आनंद लेने आते हैं. यह दिल्ली का एक और खाना बाज़ार बन गया है.”

जामा मस्जिद के सामने, प्रवेश द्वार संख्या 1 के पास स्थित यह बाज़ार – जो कभी उर्दू, फ़ारसी, हिंदी और अंग्रेज़ी में नई, पुरानी और दुर्लभ पुस्तकों की विस्तृत श्रृंखला के लिए प्रसिद्ध था – अब अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है. दुकानों की संख्या 50 से घटकर लगभग पांच रह गई है.

उर्दू बाज़ार की सबसे पुरानी किताबों की दुकानों में से एक कुतुब खाना अंजुमन-ए-तरक्की-ए-उर्दू, अक्सर बंद शटर के साथ जीवंत रहती है, जबकि एक कबाब बनाने वाला बाहर काम करता है. फोटो: अलमिना खातून | दिप्रिंट
उर्दू बाज़ार की सबसे पुरानी किताबों की दुकानों में से एक कुतुब खाना अंजुमन-ए-तरक्की-ए-उर्दू, अक्सर बंद शटर के साथ जीवंत रहती है, जबकि एक कबाब बनाने वाला बाहर की खाली जहग का इस्तेमाल करता है. फोटो: अलमिना खातून | दिप्रिंट

इलाके की सबसे पुरानी दुकानों में से एक कुतुब खाना अंजुमन-ए-तरक्की-ए-उर्दू अभी भी चालू है, लेकिन मुश्किल से. इसके शटर अक्सर बंद रहते हैं. बंद दुकान के सामने की खाली जगह का इस्तेमाल एक फ्रूट-चाट विक्रेता और एक कबाब विक्रेता करते हैं. उर्दू बाज़ार की कई सबसे प्रतिष्ठित किताबों की दुकानें – लाजपत खान एंड संस, कुतुबखाना हमीदिया, इल्मी कुतुबखाना, कुतुबखाना नज़रिया और कुतुबखाना रशीद – बहुत पहले ही बंद हो चुके हैं.

पांच बची हुई किताबों की दुकानों में से एक के मालिक कुतुबखाना रहीमिया के तीसरी पीढ़ी के मालिक जहिदुल रहमान ने कहा, “जैसे-जैसे किताबों की दुकानों के साइनबोर्ड छोटे और पुराने होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे यहां और देश भर में उर्दू पाठकों की संख्या भी कम होती जा रही है. अगर कोई यह कहे कि उर्दू बाज़ार ख़त्म हो नहीं रहा है बल्कि हो चुका है तो कुछ गलत नहीं होगा.”

खत्म होती विरासत

अपने सुंदर मेहराब, फ्रेमयुक्त उर्दू सुलेख और दो कमरों में दूर तक फैली किताबों की अलमारियों के साथ, मकतबा जामिया लिमिटेड अभी भी उस साहित्यिक जगह की ओर इशारा करता है जो कभी था. लेकिन अधिकांश किताबें दशकों से अछूती पड़ी हैं, उनके प्लास्टिक कवर अब भूरे और फीके पड़ गए हैं. उर्दू बाज़ार की अन्य किताबों की दुकानों- कुतुब खाना रहीमिया, अंजुम बुक डिपो, मदीना बुक डिपो और अक्सर बंद रहने वाली कुतुब खाना अंजुमन-ए-तरक्की-ए-उर्दू की भी यही कहानी है. अधिकांश अपने परिवारों की तीसरी पीढ़ी द्वारा – विरासत को बचाने के लिए चलाए जा रहे हैं.

जैसे-जैसे समय बीतता गया, 50 साल पुरानी उनकी किताबों की दुकान में एक और सुस्त दिन शुरू हुआ, शकील अंजुम देहलवी ने कहा कि उन्हें आश्चर्य नहीं होगा अगर उनकी किताबें कबाड़ विक्रेता के पास चली जाएं. फोटो: अलमिना खातून | दिप्रिंट
जैसे-जैसे समय बीतता गया, 50 साल पुरानी उनकी किताबों की दुकान में एक और सुस्त दिन शुरू हुआ, शकील अंजुम देहलवी ने कहा कि उन्हें आश्चर्य नहीं होगा अगर उनकी किताबें कुछ समय बाद कबाड़ विक्रेता को बेच दी जाए. फोटो: अलमिना खातून | दिप्रिंट

मकतबा जामिया लिमिटेड के 52 वर्षीय मोहम्मद मोइउद्दीन ने अपने फोन पर स्क्रॉल करते हुए कहा, “1990 के दशक तक हम हर महीने 50,000 से ज़्यादा, कभी-कभी तो एक लाख किताबें छापते और बेचते थे. अब यह संख्या घटकर सिर्फ़ 5,000 या उससे भी कम रह गई है.”

पाठकों की कमी के कारण, मकतबा ने 2019 में अपनी साहित्यिक पत्रिकाओं, क़ायम-ए-तालीम और किताबनुमा का प्रकाशन भी बंद कर दिया.

दशकों तक, उर्दू बाज़ार सिर्फ़ किताबें बेचने के लिए नहीं था – यह उर्दू किताबों की प्रिंटिंग, प्रकाशन और उर्दू कविता का केंद्र था.

पुरानी दिल्ली का उर्दू बाज़ार, जो कभी कवियों, विद्वानों, छात्रों और शोधकर्ताओं से भरा साहित्यिक स्थल था, अब खरीदारों और भोजन करने वालों से भरा हुआ है. फोटो: अलमिना खातून | दिप्रिंट
पुरानी दिल्ली का उर्दू बाज़ार, जो कभी कवियों, विद्वानों, छात्रों और शोधकर्ताओं से भरा साहित्यिक स्थल था, अब केवल अच्छा नॉन-वेज तलाशने वालों का केंद्र बन गया है. फोटो: अलमिना खातून | दिप्रिंट

लेकिन 1990 के दशक के बाद बाजार में गिरावट शुरू हो गई. पढ़ने की आदतें बदल गईं और कभी चहल-पहल वाली दुकानों में ग्राहक कम दिखने लगे. जीवंत बहस और कविता सत्रों ने सन्नाटे का रास्ता पकड़ लिया.

जबकि 1970 के दशक में ही उर्दू के पतन पर शोक व्यक्त किया जा रहा था. न्यूयॉर्क टाइम्स ने इसके लिए “उदासीनता, हिंदू कट्टरवाद और मुस्लिम विरोधी भावना” को जिम्मेदार ठहराया. उर्दू बाजार के पुस्तक विक्रेताओं का कहना है कि अब तक का सबसे बड़ा बदलाव इंटरनेट और डिजिटलीकरण के कारण हो रहा है.

देहलवी ने कहा, “अब सब कुछ डिजिटल प्रारूप में उपलब्ध है. नतीजतन, लोगों ने किताबें खरीदना भी कम कर दिया है. इस वजह से, हमने नई किताबों और प्रकाशकों के साथ अपने संपर्क भी कम कर दिए हैं.”

लेकिन यहां कई लोगों के लिए असली नुकसान व्यापार से कहीं ज़्यादा है.

धूल से राख तक

उर्दू बाज़ार के धीरे-धीरे गायब होने से इसके पुस्तक विक्रेताओं पर भारी असर पड़ा है. उनके लिए, यह उर्दू भाषा और सांस्कृतिक पहचान के क्षरण के बारे में भी है.

साठ वर्षीय शकील अंजुम देहलवी ने अपने बचपन के इन संकरी गलियों में बिताए समय को याद किया, जहां उनके पिता उर्दू के सुनहरे दिनों की कहानियां सुनाते थे. वह उस समय के बारे में बात करते हैं जब उर्दू धर्म से बंधी नहीं थी, बल्कि बस एक ऐसी भाषा थी जिसे इसकी सरलता और मधुरता के लिए पसंद किया जाता था.

हालांकि, देहलवी खुद राजनीति में हैं. 2013 में उन्हें AAP के लिए दिल्ली के मटिया महल विधानसभा उम्मीदवार के रूप में और बाद में 2015 में भाजपा से टिकट दिया गया. वे उर्दू को एक धार्मिक भाषा के रूप में माने जाने के लिए राजनीति को दोषी मानते हैं. रहमान भी इससे सहमत हैं.

कुतुब खाना रहीमिया के मालिक जहिदुल रहमान ग्राहकों का इंतजार करते हुए अखबार पढ़ते या फोन देखते हुए समय बिताते हैं. फोटो: अलमिना खातून | दिप्रिंट
कई पुस्तक विक्रेता अब इन दुकानों को चलाने वाली आखिरी पीढ़ी बन गए हैं. पाठकों की घटती संख्या के कारण व्यवसाय को बनाए रखना और अपने परिवारों का भरण-पोषण करना मुश्किल होता जा रहा है.
44 वर्षीय जहीदुल रहमान ने अफसोस जताते हुए कहा, “हमारे बच्चों ने घटते ग्राहकों और कम आय के कारण इस पारिवारिक व्यवसाय में शामिल होने से इनकार कर दिया है.”

उन्होंने एक बार विज्ञापन में अपना करियर शुरू किया था, लेकिन बाद में पूर्णकालिक रूप से दुकान की तरफ लौट आए.

लेकिन एक बुकस्टोर के मालिक के बेटे ने यह माना कि पारिवारिक व्यवसाय में कोई ख़ास भविष्य नहीं दिखता है.

उन्होंने कहा, “मैं अपनी विरासत का सम्मान करना चाहता हूं, लेकिन बदलते समय के कारण संघर्ष कर रहे व्यवसाय के लिए अपना जीवन समर्पित करना कठिन है. उर्दू को अब धार्मिक भाषा के रूप में देखा जाने लगा है, और वास्तविकता यह है कि अब बहुत कम लोग इसमें रुचि रखते हैं.”

उर्दू बाज़ार में कई पुस्तक विक्रेताओं के लिए कुरान जैसी धार्मिक पुस्तकें ही बिक्री का मुख्य स्रोत हैं. फोटो: अलमिना खातून | दिप्रिंट

देहलवी ने कहा, “हमें जल्द ही अपनी किताबें कबाड़ बेचने वालों को बेचने और अपनी दुकानें हमेशा के लिए बंद करने पर मजबूर होना पड़ सकता है. हमारा ज़्यादातर समय अब ​​किताबों की धूल साफ करने और इस उम्मीद में बीतता है कि हमारे कुछ पुराने ग्राहक फिर से हमें कॉल करेंगे या हमारे पास आएंगे.”

(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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