scorecardresearch
Monday, 23 December, 2024
होमसमाज-संस्कृतिकांशीराम पर बनी फिल्म मचा रही है यूट्यूब पर धूम

कांशीराम पर बनी फिल्म मचा रही है यूट्यूब पर धूम

लगभग सवा दशक पहले दिवंगत हो चुके कांशीराम पर डॉक्यूमेंट्री अंदाज़ में बनी एक फिल्म को अगर दो दिन में दो लाख लोगों ने देख लिया, तो इसे एक असाधारण घटना माना जाएगा.

Text Size:

यूट्यूब पर एक फिल्म रिलीज़ हुई है. इस फिल्म को अपलोड किए जाने के दो दिन के अंदर अलग-अलग चैनलों पर दो लाख लोग देख चुके हैं. इस लिहाज से ये कोई बेहद कामयाब फिल्म नहीं है. लेकिन अगर आपको ये बताया जाए कि इस फिल्म का नाम ‘द ग्रेट लीडर कांशीराम’ है तो शायद आप एक बार चौंकेंगे. लगभग सवा दशक पहले दिवंगत हो चुके कांशीराम पर डॉक्यूमेंट्री अंदाज़ में बनी एक फिल्म को अगर दो दिन में दो लाख लोगों ने देख लिया, तो इसे एक असाधारण घटना माना जाएगा.

ये फिल्म ग्वालियर शहर के 23 वर्षीय फिल्मकार अर्जुन सिंह ने बनाई है. वही इस फिल्म के प्रोड्यूशर भी हैं. ये फिल्म डायरेक्टर के जेब के पैसे और क्राउड फंडिग से बनी है. क्राउड फंडिंग का मतलब है मांग कर खर्चा जुटाना. इस पर कुल खर्चा 45 लाख रुपए के आसपास है. इसमें कोई स्टार नहीं है न ही इसका संगीत किसी जाने माने संगीतकार ने दिया है. न तो इस फिल्म का कोई प्रमोशन बजट था और न ही अखबारों, पत्रिकाओं या चैनलों पर इसकी कोई चर्चा हुई.

इसके प्रीमियर के लिए ग्वालियर के एक मैरिज हॉल में एक कार्यक्रम हुआ, जिसमें मुख्य रूप से दलित ही इकट्ठा हुए. ग्वालियर के अलावा महाराष्ट्र के कुछ सिनेमा हॉल में ये फिल्म आई और देखते ही देखते उतर गई. अर्जुन सिंह बताते हैं कि ‘आखिरकार जब फिल्म की लागत वसूल नहीं हुई कर्ज उतारने के मकसद से मैंने इसे यूट्यूब पर जारी कर दिया.’ उन्हें लगता है कि इस तरह उनका कुछ पैसा वापस आ जाएगा और वे अपना कर्ज़ा चुका पाएंगे.

यूट्यूब पर फिल्म को देखने वालों की संख्या से अर्जुन उत्साहित हैं. इस फिल्म को नेशनल दस्तक यूट्यूब चैनल पर रिलीज़ करने वाले संपादक शंभु कुमार सिंह को उम्मीद है कि इस फिल्म को 10 लाख से ज़्यादा दर्शक मिल जाएंगे.

सवाल उठता है कि कांशीराम पर बनी इस फिल्म को कौन देख रहा है और क्यों? इसकी दो व्याख्याएं हो सकती हैं.
पहली हाइपोथिसिस ये है कि इस फिल्म को दलित और बहुजन दर्शक देख रहे हैं और इस बात की परवाह किए बिना देख रहे हैं कि ये फिल्म कैसी बनी है. यानी भारत में एक दलित-बहुजन पब्लिक स्फियर बन गया है, जो इंटरनेट और सोशल मीडिया पर सक्रिय है.

दूसरी हाइपोथिसिस ये है कि कांशीराम, जिन्हें लोग प्यार से मान्यवर कहते हैं, की पर्सनाल्टी इतनी बड़ी और चमकदार है कि लोग उन पर बनी फिल्म को देख रहे हैं.


यह भी पढ़ें: हिंदू नागरिकों ने हिंदू वोटर बनने से इनकार कर दिया


पहली हाइपोथिसिस को टेस्ट करके देखते हैं. भारत में इस समय इंटरनेट के लगभग 45 करोड़ यूज़र हैं. फेसबुक और व्हाट्सऐप के यूज़र्स की संख्या 25 करोड़ को पार कर चुकी है. हालांकि ये जानने का कोई तरीका नहीं है कि इन यूज़र्स की सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है, लेकिन सवर्णों की आबादी के बारे में ये कॉमनसेंस आइडिया अगर सही है कि उनकी आबादी 15 परसेंट हैं और उनकी पूरी आबादी को इंटरनेट से जुड़ा मान लें तो भी भारत में 45 करोड़ इंटरनेट यूज़र होने का मतलब है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया पर दलित और बहुजन अच्छी खासी संख्या में है. इसके दूसरे प्रमाण भी हैं. जैसे कि मुख्य रूप से दलित मुद्दे उठाने वाले फेसबुक चैनल नेशनल दस्तक के 21 लाख सब्सक्राइबर हैं.

एक और चैनल बहुजन टीवी के 6 लाख, आवाज़ इंडिया के 4 लाख और दलित दस्तक और दलित न्यूज़ नेटवर्क के 3-3 लाख से ज़्यादा सब्सक्राइबर हैं. फेसबुक पर कई ऐसे पेज हैं जो दलित मुद्दे उठाते हैं और उनके लाखों फॉलोवर हैं. 2 अप्रैल का भारत बंद जिस तरह से सोशल मीडिया से शूरू होकर देश भर में फैल गया, वह भी दलित-बहुजन पब्लिक स्फियर के प्रभावी होने का प्रमाण है. इसके अलावा पिछले दिनों भारत दौरे पर आए ट्विटर के सीईओ जैक डोरसी के ‘स्मैश ब्राह्मिनिकल पैट्रीयार्की’ पोस्टर थामने को लेकर जब हंगामा हुआ तो बहस एकतरफा नहीं थी. दलित बहुजन स्पेस से भी इसका जवाब दिया गया.

ऐसा लगता है कि दलित बहुजन पब्लिक स्फीयर के बनने के बाद इनसे जुड़े मुद्दों का एक मार्केट साइबर दुनिया में मौजूद है. तो क्या इस मार्केट को कांशीराम पर बनी फिल्म जैसा कटेंट और चाहिए? हो सकता है कि ऐसा हो.


यह भी पढ़ें: बाबरी मस्जिद विध्वंस के दिन आरएसएस को क्यों याद आए आंबेडकर?


दूसरी बात ये है कि मान्यवर कांशीराम का व्यक्तित्व इतना जादुई है और उनके बारे में लोगों को इतनी कम जानकारी है कि लोग उनके विषय में और जानना चाहते हैं. लगभग 50 साल की उम्र में एक व्यक्ति, वर्ष 1984 में एक पार्टी का गठन करता है. और देखते ही देखते देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश, जहां से लोकसभा की 85 सीटें थीं, में इस पार्टी की मुख्यमंत्री शपथ लेती है. यह पार्टी पहले राष्ट्रीय पार्टी और फिर वोट प्रतिशत के हिसाब से देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन जाती है. और जिस व्यक्ति ने इस पार्टी का गठन किया, वह बेहद साधारण परिवार से संबंधित था. उस समुदाय से, जिसे कुछ दशक पहले तक पढ़ने-लिखने का हक नहीं था और जिन्हें छूने की शास्त्रों में मनाही है. यह चमत्कार कितना बड़ा है, इसे समझने के लिए बीजेपी (जनसंघ) और कांग्रेस जैसी मुकाबले की दूसरी पार्टियों को देखें, जिनकी लंबी-चौड़ी विरासत है और जिन्हें समाज के समृद्ध और समर्थ लोगों का साथ मिला.

सरकारी कर्मचारी पद से इस्तीफा दे चुके इस व्यक्ति के पास संसाधन के नाम पर कुछ भी नहीं था. न कोई कॉर्पोरेट समर्थन, न कोई और ताकत, न मीडिया, न कोई मज़बूत विरासत. सिर्फ विचारों की ताकत, संगठन क्षमता और विचारों को वास्तविकता में बदलने की ज़िद के दम पर इस व्यक्ति ने दो दशक से भी ज़्यादा समय तक भारतीय राजनीति को कई बार निर्णायक रूप से प्रभावित किया.


यह भी पढ़ें: दलितों को क्यों बनना चाहिए हनुमान मंदिरों का पुजारी?


भारत की बहुजन राजनीति एक दुष्चक्र में फंस गई लगती है. जिस रफ्तार से से बीएसपी ने अपने शुरुआत दौर में तरक्की की थी और लाल किले पर नीला निशान जैसे नारे लगाए जाते थे, वह दौर अब बीत चुका है. बीएसपी का वजूद कायम है, लेकिन उसका तेज़ी से बढ़ता जलवा अब नहीं है. ऐसे में शायद लोग उस नेता के बारे में जानना चाहते हैं, जिन्होंने बीएसपी को इतने कम समय में इतनी ऊंचाई दी. साथ ही कई दलित संगठन कह रहे हैं कि देश की बहुजन राजनीति को कांशीराम के रास्ते पर लौट आना चाहिए.

ये फिल्म मान्यवर कांशीराम के शुरुआती जीवन संघर्ष और युवा अवस्था में उनके दलित-बहुजन आंदोलन से जुड़ने, कर्मचारी संगठन बामसेफ बनाने, उसके बाद राजनीतिक संगठन डीएस-फोर के गठन का ब्यौरा पेश करती है. 1984 में दिल्ली के बोट क्लब में बहुजन समाज पार्टी के गठन के साथ ये फिल्म खत्म हो जाती है. इस मायने में ये कांशीराम के जीवन की अधूरी दास्तान है. देश भर में पार्टी की राजनीति को स्थापित करने और खासकर यूपी में जड़ जमाने और 1993 में सपा से तालमेल करके बीजेपी को रोकने की कहानी इसमें नहीं है. सपा के साथ गठबंधन के टूटने और बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाने की बात भी इस फिल्म में नहीं आ पाई है.

ये कांशीराम के जीवन के ज़्यादा जटिल पहलू हैं. फिल्मकार अर्जुन सिंह इसकी कोई संतोषजनक व्याख्या नहीं करते हैं कि उन्होंने कांशीराम की कहानी को अधबीच यानी 1984 में ही क्यों छोड़ दिया. फिल्म देखकर ही पता चलेगा कि फिल्मकार ने ऐसा क्यों किया होगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

share & View comments