दुनिया को भारत से बड़ी अपेक्षाएं हैं, जो पूरी नहीं होतीं तो वह शिकायत करने लगती है; मोदी सरकार को दुनिया से अपनी वाहवाही तो बहुत अच्छी लगती है मगर आलोचना से वह नाराज क्यों होती है और उसे खारिज करने पर क्यों आमादा हो जाती है.
हम संस्थाओं को कमजोर किए जाने, एजेंसियों के दुरुपयोग, भेदभावपूर्ण क़ानूनों, देशद्रोह की धारा के इस्तेमाल, विधेयकों को जबरन पारित करवाने आदि की शिकायतें भले करें लेकिन ऐसे सभी प्रमुख मसलों पर निष्क्रियता का सारा दोष कांग्रेस के मत्थे जाता है.
हमारी स्वाधीनता की सुरक्षा करना न्यायपालिका की बड़ी ज़िम्मेदारी है और इसके लिए ‘हैबियस कॉर्पस’ की व्यवस्था का सहारा लिया जाता है लेकिन आज मजिस्ट्रेट इस तरह फैसले कर रहे हैं मानो नियम तो ‘जेल देने का ही है, बेल देना तो उनके ओहदे के दायरे से बाहर है’.
भारत को रणनीति के मामले में चीन और पाकिस्तान के साथ मिलकर बनने वाले त्रिकोण को तोड़कर बाहर निकलना ही होगा लेकिन इससे पहले उसे यह तय करना होगा कि क्या वह घरेलू चुनावी फायदों के चक्कर में अपने रणनीतिक विकल्प सीमित करना चाहता है?
कृषि कानूनों के साथ, मोदी सरकार ने श्रम सुधारों को पारित किया है और प्रमुख कंपनियों के निजीकरण का वादा किया है. इसने अर्थिक दक्षिण-वाम को विभाजित किया है, और यह एक अच्छी बात है.
एक समय भारत का सबसे समृद्ध राज्य आज नीचे फिसल गया है और पिछड़ गया है, उसे अब गेहूं-चावल-एमएसपी के नशे से बाहर निकलकर अपनी उद्यमशीलता को फिर से जगाने की जरूरत है.
प्रणब मुखर्जी के संस्मरणों की अंतिम किताब में असली राजनीतिक मसलों से किनारा किया गया है, विस्तार से बताने से बचा गया है, किताब बहुत कुछ बताने की जगह बहुत कुछ छिपा लेती है इसलिए बहुत निराश करती है
अब जब लोग सच में किसी अमीर पड़ोसी से मांस के तोहफे की उम्मीद नहीं करते, तो क्या सिर्फ गरीबों को खाना खिलाने के नाम पर अब भी जानवरों की बलि देना ठीक माना जा सकता है?