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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्ट'वायरस वोट नहीं करता'- जब मोदी सरकार कोविड संकट से जूझ रही है तब BJP ने कड़ा सच सीखा

‘वायरस वोट नहीं करता’- जब मोदी सरकार कोविड संकट से जूझ रही है तब BJP ने कड़ा सच सीखा

कुछ ऐसी चीजें हैं जो सशक्त नेता कभी नहीं करते हैं, जैसे यह स्वीकारना कि उनकी तरफ से कोई चूक हुई है. तीन हालिया उदाहरण बताते हैं कि सात साल में पहली बार नरेंद्र मोदी की नजरें नीची हुई हैं.

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वायरस हमारे शरीरों में घुस रहा है, हजारों लोगों की जान ले रहा है, हमारी कमजोर स्वास्थ्य प्रणाली को कुचल रहा है, जिससे डॉक्टरों, नर्सों, दवाओं और यहां तक कि ऑक्सीजन की भारी किल्लत हो गई है. अगर पिछले हफ्ते हम यह कह रहे थे कि ये नरेंद्र मोदी सरकार के समक्ष सबसे बड़ा संकट है, तो तब से अब तक यह और भी बड़ा हो चुका है. और अगले कुछ हफ्तों में और भी विकराल हो जाएगा.

संकट गहराने के साथ-साथ एकजुट होने की मांग और ऐसे आह्वान तेज होते जाएंगे, जैसे ‘यह समय एक-दूसरे पर दोष मढ़ने का नहीं है.’ इस बड़े, विशाल राष्ट्रीय संकट के समय में हमें थोड़ी चुप्पी साध लेनी चाहिए और कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ना चाहिए. लेकिन लोकतंत्र में न तो राजनीति रुकती है, न ही राजनीतिक विश्लेषण और सवालों की बौछार.

हम अच्छी तरह जानते हैं कि किसी भी लोकतंत्र में सशक्त नेता— डोनाल्ड ट्रम्प से लेकर जायर बोल्सनारो, रेसेप तैयप एर्दोगन, बेंजामिन नेतन्याहू और नरेंद्र मोदी तक— कुछ चीजें एकदम निरपवाद ढंग से करते हैं. वे सब व्यापक जनाधार से संपर्क में रहते हैं और जब तक यह आधार खुश रहता है, तब तक वे जीतते रहते हैं. या अक्सर बड़ी जीत हासिल करते हैं.

वहीं कुछ ऐसी चीजें भी हैं जो सशक्त नेता कभी नहीं करते. उदाहरण के तौर पर वह कभी असफलता या ऐसे किसी झटके को स्वीकार नहीं करते जो हार की तरह नज़र आता हो, न ही कभी यह मानते है कि, चाहे कितनी भी छोटी क्यों न हो, उसने कोई चूक की है. वो सुनिश्चित करते हैं कि कभी ऐसा नहीं लगना चाहिए कि आपकी नजरें झुक गई हैं.

एक बड़ा जनाधार उन्हें इसलिए बेहद पसंद करता हैं क्योंकि उसकी नज़र में वह कोई चूक कर ही नहीं सकता. वो उससे ये कतई अपेक्षा नहीं रखता कि वह कभी ऐसा कहे, ‘माफ कीजिए, दोस्तों मुझसे यह गलती हो गई है.’ यह स्वीकारने का मतलब होगा कि आप बाकियों की तरह ही सामान्य इंसान हैं, न कि कोई दिव्य व्यक्ति या फिर एक अवतार. इसलिए आप जो कुछ भी शुरू करें, उसका आखिरी मुकाम जीत के रूप में ही सामने आना चाहिए और बतौर मास्टर स्ट्रोक  उसकी सराहना होनी चाहिए.

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इस हफ्ते के शुरू में प्रधानमंत्री ने इस दिशा में कुछ असामान्य बदलाव किए. वो भी एक नहीं कम से कम तीन बार. राष्ट्र के नाम उनका संक्षिप्त टेलीविजन संबोधन निराशाजनक था और हर बार की तरह इसमें कोई दावा, वादा या उपदेश नहीं था.

दूसरा, यह कि डॉ. मनमोहन सिंह के एक छोटे से पत्र ने सरकार को झकझोर दिया, यह बात इससे भी जाहिर है कि स्वास्थ्य मंत्री ने आक्रामक तरीके से इस पर प्रतिक्रिया नहीं दी. ऐसा करना सामान्य होता. लेकिन तथ्य यह है कि अगले ही दिन सरकार ने टीकाकरण पर कमोबेश वही घोषणाएं की जिसका सुझाव मनमोहन सिंह ने दिया था. यह एक मजबूत सरकार की तरफ से उठाया गया कदम नहीं था.

और तीसरा, प्रधानमंत्री मोदी ने पश्चिम बंगाल में अपने अभियान का अंतिम चरण रद्द कर दिया. इसके लिए उनका आखिरी दिन तक इंतजार करना यह बताता है कि उन्हें अंत तक यह दौरा कर पाने की उम्मीद बनी हुई थी लेकिन फिर उन्हें एहसास हुआ कि महामारी की वर्तमान स्थिति को देखते हुए ये मुमकिन नहीं है.

मोदी समर्थक उम्मीद कर रहे होंगे कि यह सारी समस्या सिर्फ कुछ ही समय तक रहेगी. करीब एक हफ्ते बाद सुर्खियां एकदम बदल जाएंगी जब पश्चिम बंगाल के नतीजे आएंगे. अगर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 100 का आंकड़ा भी पार कर लिया तो इसे बड़ी जीत कहा जाएगा. आखिरकार, इसने शुरुआत तो तीन के साथ की थी. और अगर इसने बहुमत हासिल कर लिया तो इसमें ऊपर वर्णित सभी विशेषण जुड़ जाएंगे. लेकिन भाजपा का प्रदर्शन कैसा भी रहे, कोविड की स्थिति के कारण वो ढंक जाएगा.

बहुत-सी ऐसी चीजें हैं जो इस वायरस के बारे में अच्छे-अच्छे वैज्ञानिक अभी तक नहीं जानते. लेकिन कुछ बातें हम जरूर जानते हैं. जैसे वायरस वोट नहीं करता है. न ही इसकी परवाह करता है कि कौन जीत रहा या कौन हार रहा है. इसे ध्रुवीकृत नहीं किया जा सकता. यह राजनीति और आस्था से परे जाकर बीमारी, दुख और मौत ही दे सकता है. सियासी हेकड़ी से इसे दाना-पानी मिलता है. इसने अमेरिका, ब्राजील और हाल तक ब्रिटेन के लोगों को अपने नेताओं के अति आत्मविश्वास की कीमत चुकाने को विवश कर दिया. अब यह भारत के लिए भी ऐसा ही खतरा बन रहा है. हमने बदलाव वाले जिन तीन घटनाक्रम का जिक्र किया है, वे बताते हैं कि नरेंद्र मोदी ने भी इस बात को महसूस किया है.


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चूंकि इन दिनों ह्यूब्रिस (अभिमान) और सादेनफ्रॉयन्द (किसी दूसरे के दुख से मिली खुशी) जैसे शब्दों का बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है, इसलिए जरूरी है कि हम कुछ सबूतों को भी सामने रखें. मैं यहां जनवरी में विश्व आर्थिक मंच, दावोस में प्रधानमंत्री के संबोधन का पूरा अंग्रेजी अनुवाद साझा कर रहा हूं.

यह स्पष्ट तौर पर एक डिक्लेरेशन और वायरस पर जीत हासिल करने के उत्सव जैसा है, जैसा कि आप कल्पना कर सकते हैं. मोदी ने कहा था जब महामारी शुरू हुई तो दुनिया भारत के बारे में इतनी चिंतित थी, जैसे संक्रमण की सुनामी हमारे यहां आने वाली है. लोग भविष्यवाणी कर रहे थे कि 70-80 करोड़ भारतीय संक्रमित होंगे और 20 लाख से अधिक मरने वाले हैं. उन्होंने यह भी कहा, लेकिन भारत ने ऐसा नहीं होने दिया और मानवता को एक बड़ी आपदा से बचा लिया.

उन्होंने बताया कि कैसे कुछ ही समय में भारत ने अपनी क्षमताओं को बढ़ा लिया, दो ‘मेड इन इंडिया’ वैक्सीन के साथ दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण कार्यक्रम लॉन्च किया जा चुका है और कई और आने वाली हैं और कैसे भारत अब इनका निर्यात करके दुनिया को बचाने के लिए आगे आया है.

फरवरी में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी द्वारा पारित प्रस्ताव को देखिए. यह वायरस के खिलाफ जीत का एक भावोत्तेजक ऐलान था. इसमें लिखा था, ‘गर्व के साथ कहा जा सकता है कि भारत ने न केवल प्रधानमंत्री मोदी के सक्षम, व्यावहारिक, प्रतिबद्ध और दूरदर्शी नेतृत्व में कोविड को हरा दिया है, बल्कि अपने सभी नागरिकों को एक आत्मनिर्भर भारत बनाने के प्रति विश्वास से भी भर दिया है. ये संकल्प इतना ज्यादा भावनात्मक था कि बड़े आश्चर्य की बात है कि इसमें यह कैसे नहीं कहा गया कि विक्ट्री आर्च बनाया जाए. हम फिर से कहते हैं, ‘पार्टी कोविड के खिलाफ जंग के मामले में भारत को दुनिया के सामने एक गौरवशाली और विजेता देश के रूप में पेश करने के लिए निर्विवाद रूप से अपने नेतृत्व को सलाम करती है.’

इसमें कहा गया कि ‘दुनिया ने भारत की उपलब्धि को सराहा है और साथ ही ताली और थाली बजाने, दीये जलाने, अस्पतालों पर फूलों की बारिश जैसी गतिविधियों की अपील की भी प्रशंसा की है.’ साथ ही जोड़ा कि ‘भारत ने खासकर ‘वैक्सीन विक्ट्री’ और ‘कोविड पर पूरी तरह काबू पाने की दिशा में बढ़ने’ के साथ अपना कद काफी बड़ा कर लिया है.’

अब आप कह सकते हैं कि दावोस में दिया गया भाषण, एक ऐसे मंच पर था जिसमें हर नेता अपनी बात पुरजोर ढंग से रखता है और दूसरा पार्टी का प्रस्ताव था, जिसमें आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं? कोई व्यक्ति एआईसीसी के प्रस्ताव को इससे ज्यादा भावावेगपूर्ण मान सकता है, मसलन संभवत: डी.के. बरुआ की तरफ से ‘इंदिरा इज इंडिया ’ वाले को. यह प्राइम टाइम न्यूज शो पर एक जोरदार बहस का मुद्दा हो सकता है. लेकिन वायरस न तो पढ़ता या सुनता है और न ही किसी की परवाह करता है. यह तो केवल आपको निशाना बनाने के लिए घात लगाए बैठा रहता है.


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यह फरवरी के उत्तरार्ध के आसपास का समय था जब संक्रमण फैलने लगा. सबसे पहले विपक्ष शासित तीन राज्यों केरल, पंजाब और महाराष्ट्र में मामले बढ़ने शुरू हुए. खासकर महाराष्ट्र में तो शिवसेना के साथ हिंदुत्व पर विभाजित परिवार वाला झगड़ा साफ नजर आया. राज्य सरकार की लानत-मलामत की गई, केंद्रीय टीमों को भेजा गया और जब मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कहा कि वह और टीके चाहते हैं तो उन्हें उपहास का पात्र बनाया गया. इस बीच, हमने एक ‘हार्वर्ड स्टडी’ के बारे में भी सुना, जिसमें उत्तर प्रदेश में कोविड के खिलाफ योगी आदित्यनाथ सरकार के प्रदर्शन को स्पष्ट तौर पर सराहा गया था.

लेकिन एक वायरस जो राष्ट्रीय सीमाओं से परे है, वो क्यों कुछ राज्यों तक ही सीमित रहेगा? जैसे-जैसे यह अन्य जगहों पर बढ़ा, भाजपा के लिए समस्या खड़ी हो गई. अभी-अभी तो वायरस के खिलाफ उसने जीत का एक शानदार जश्न मनाया, अब वह इस पर कैसे पीछे कदम रख सकती है?

कोई भी, यहां तक कि नरेंद्र मोदी भी दूसरी लहर को नहीं रोक सकते थे, खासकर उस स्थिति में जब नया वैरिएंट इन दिनों सोशल मीडिया पर कांस्पीरेसी थ्योरी से ज्यादा तेजी से फैल रहा हो. अगर हम इस तरह जश्न मनाने में न डूबे होते तो शायद आने वाले संकट को देख पाते और उससे निपटने की बेहतर तैयारी करते. हर तरफ से इसका संकेत मिल रहा था.

यही लापरवाही धीमी गति से चल रहे हमारे टीकाकरण कार्यक्रम में भी नज़र आती है जो कि वीकेंड ब्रेक, शिवरात्रि, गुड फ्राइडे, होली आदि मौकों पर छुट्टी के साथ आगे बढ़ रहा है. कुंभ मेले की अनुमति दी गई थी, वो भी ज्योतिषीय आधार पर एक साल पहले करके. प्रधानमंत्री ने पिछले शनिवार को पश्चिम बंगाल में एक इतनी विशाल रैली को संबोधित किया, कि उसके बारे में खुद उन्हें ही कहना पड़ा कि इतना बड़ा जनसैलाब उन्होंने पहले नहीं देखा. उसी दिन मनमोहन सिंह का पत्र भी सामने आया.

उसके बाद से सुधार की कोशिशें जारी हैं. लेकिन फिर भी अगर ज्यादा नहीं तो भी दसियों हजार भारतीय मरे होंगे और इनमें से तमाम लोगों की जानें बचाई जा सकती थीं, अगर हम टीकाकरण को बेहतर गति से आगे बढ़ाते, समय पर ऑर्डर जारी करते, ऑक्सीजन और जरूरी दवाओं की कमी न होने देते. शायद हम अपने श्मशान और कब्रिस्तान में लगे अंबार को लेकर दुनियाभर में शर्मिंदगी से बच गए होते. या फिर भारत जर्मनी से ऑक्सीजन जेनरेटर एयरलिफ्ट नहीं कर रहा होता, न ही वैक्सीन आयात करने की कोशिश में जुटा होता और निश्चित तौर पर अपने वादों के उलट उसे निर्यात को निलंबित नहीं करना पड़ रहा होता. खासकर तब जबकि आत्मनिर्भरता की बात की जा रही है.

हम अपने हमवतनों की सामूहिक मौत और दुख को लेकर किसी तरह के प्रलाप का दावा नहीं कर सकते. लेकिन इन सवालों को हमारे श्मशानों में बिखरी गर्म राख के ढेर के नीचे दबाया नहीं जाना चाहिए. अभी तो बेहद घातक दूसरी लहर की शुरुआत हुई है, वायरस ने सिर उठाना शुरू ही किया है. हमारी सरकार तो अभी से ही इसे देखकर ठिठक गई नज़र आ रही है. जब तक मोदी खुद ऐसा कुछ नहीं करते जैसा ब्रिटेन में बोरिस जॉनसन ने किया- महामारी को कुचलने के लिए तेज गति से टीकाकरण. हमें किसी के नुकसान में अपने फायदे के मौके ढूंढ़ने से बाज आना होगा.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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