सिख अलगावादी अगर सिरदर्द हैं तो उनके मेज़बान देशों के लिए हैं जहां वह बसे हुए हैं. उनका एक ‘अंडरवर्ल्ड’ है जिसमें गिरोहों के बीच खूनी लड़ाई चलती रहती है और उनके पड़ोसी असुरक्षित होते हैं, तो भारत इस सबसे क्यों परेशान हो?
श्रीलंका में सत्ता परिवर्तन को सहजता से अंजाम दिया गया, जबकि बांग्लादेश में इसके विपरीत सत्तासीन नेता को देश छोड़ने पर मजबूर किया गया और ऐसे अ-राजनीतिक लोगों ने कमान थाम ली जो चुनाव जीतने के भी काबिल नहीं हैं.
छोटा-सा सबक यह है कि आप इंदिरा गांधी के मुंह में तो कोई भी शब्द डाल करके बच सकते हैं, लेकिन भिंडरावाले की मौत के 40 साल बाद भी आपने उसके साथ ऐसा कुछ किया तो मुश्किल में पड़ जाएंगे.
बांग्लादेश ने शेख हसीना और अवामी लीग को खारिज कर दिया तो क्या उसके जवाब में हम बांग्लादेश को ही खारिज कर देंगे? हम अपने पड़ोसी नहीं चुन सकते, लेकिन हम खुद कैसे पड़ोसी बनें यह फैसला तो कर ही सकते हैं.
लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की 99 सीटों पर जीत ने दो दशकों से राहुल गांधी को परेशान कर रहे तीन नुकीले सवालों की धार खत्म तो कर दी है मगर उनके अब तक के सियासी सफर पर भी गौर करना ज़रूरी है.
मोदी सरकार की तीसरी पारी में बदली हुई वास्तविकता उस पुराने सामान्य दौर की वापसी होगी, जब बहुमत वाली सरकारों को भी बेहिसाब बहुचर्चित बगावतों का बराबर सामना करना पड़ता था.
मुस्लिम वोट भाजपा की सबसे बड़ी चिंता हैं. विरोधी पहले से ही सक्रिय हैं और कमियों की तलाश कर रहे हैं. यूपी को फिर से हासिल किए बिना, भाजपा की हार के धीरे धीरे बढ़ने की संभावना है.
चुनाव नतीजे पर चर्चा में प्रायः हर कोई केवल भाजपा के ‘आंकड़े’ की बात कर रहा है, लेकिन क्या हो अगर हम समीकरण को उलट दें और यह सवाल करें कि हारने वाले का प्रदर्शन कैसा रहा?
कश्मीर में जो सामान्य स्थिति बहाल हुई है उसे, मुनीर के मुताबिक, उलटना जरूरी था. पहलगाम कांड की तैयारी उनके भाषण और इस हमले के बीच के एक सप्ताह में तो नहीं ही की गई, इसमें कई महीने नहीं तो कई सप्ताह जरूर लगे होंगे.