भारतीयों और धर्म पर PEW का ताजा सर्वे विपक्ष के लिए एक बुकलेट हो सकता है क्योंकि उसे समझने में मुश्किल हो रही है कि धर्मनिरपेक्षता का उसका संदेश लोगों तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा.
तालिबान, कश्मीरी नेताओं से वार्ता और पाकिस्तान के प्रति गर्मजोशी मोदी सरकार की रणनीतिक अनिवार्यताएं हैं; एक ओर वह पूरब के मोर्चे पर अमेरिका को ‘क्वाड’ के सहयोगी के रूप में चाहे और दूसरी ओर पश्चिमी मोर्चे पर उनके मकसद के खिलाफ काम करे यह नहीं चल सकता.
यह पता लगाने के लिए दुनियाभर में चल रही कोशिशें कि महामारी के लिए जिम्मेदार वायरस आखिर आया कहां से, यह दर्शाती हैं कि विज्ञान, लोकतंत्र और जिज्ञासा समय आने पर सत्ता प्रतिष्ठान, विचारधारा और सरहदों को दरकिनार कर मिलकर के काम कर सकते हैं.
अफ्रीका के ज़्यादातर देश भारत से बेहतर हो गए हैं और हम हैं कि कुशासन, पहचान को लेकर घटिया किस्म की राजनीति, भ्रष्टाचार, झूठे अहंकार, आत्म-प्रशंसा, खोखली जीत के जश्न में खोए हैं और अपनी छवि खराब कर रहे हैं.
पिछले तीन महीने देश सबसे गंभीर राष्ट्रीय त्रासदी से गुजरा और कोविड से हुई मौतों के आंकड़े कम करके बताए गए लेकिन बड़े पैमाने पर इस तरह की कोशिश एक गंभीर मसला है.
मोदी और शाह को अच्छी तरह पता है कि राष्ट्रीय स्तर पर सिर्फ कांग्रेस ही उनके लिए चुनौती साबित हो सकती है और गांधी परिवार ही उसे एकजुट रखने की क्षमता रखता है. इसलिए उसके ऊपर बेरहमी से हमला करते रहने की जरूरत है.
उत्तर प्रदेश और बिहार में कोविड त्रासदी की मूल वजह राजनीति व अर्थनीति में छिपी है. राजनीतिक सत्ता, और आर्थिक व सामाजिक संकेतकों के मामलों में जो क्षेत्रीय असंतुलन है वह गंभीर संकट का कारण है.
पिछले सात वर्षों में मोदी सरकार ने बुनियादी शासन की नींव को मजबूत करने के लिए कुछ नहीं किया जिसका नतीजा यह है कि प्रधानमंत्री अपने कदम पीछे खींचते नज़र आ रहे हैं और उनके मंत्री विफल साबित हो रहे हैं जबकि कोविड का संकट गहराता जा रहा है.
किसी ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि भारत के पास पर्याप्त वैक्सीन, ऑक्सीजन, रेमडिसिविर दवा है या नहीं. अब देश ऐसे संकट में फंस गया है कि चार दशक बाद हम विदेशी मदद के मोहताज हो गए.
कुछ ऐसी चीजें हैं जो सशक्त नेता कभी नहीं करते हैं, जैसे यह स्वीकारना कि उनकी तरफ से कोई चूक हुई है. तीन हालिया उदाहरण बताते हैं कि सात साल में पहली बार नरेंद्र मोदी की नजरें नीची हुई हैं.
भारत को अपने दोनों प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ साफ प्रतिरोध क्षमता हासिल करनी होगी. चीन के मामले में ऐसा उसे हमला करने की बड़ी कीमत चुकाने का डर पैदा करके किया जा सकता है, तो पाकिस्तान को दंड का डर पैदा करके किया जा सकता है.