scorecardresearch
Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टयूक्रेन पर भारत की नीति को अनैतिक कहना पश्चिमी देशों का दोगलापन है, उन्हें अपने गिरेबान में झांकना चाहिए

यूक्रेन पर भारत की नीति को अनैतिक कहना पश्चिमी देशों का दोगलापन है, उन्हें अपने गिरेबान में झांकना चाहिए

संयुक्त राष्ट्र में भारत की गैरहाजिरी पर पश्चिमी देशों ने न सिर्फ उसकी आलोचना की बल्कि अनैतिकता को लेकर ताने भी कसे. लेकिन ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से हम भारतीय नीति को सिर्फ इसी संदर्भ में नहीं आंक सकते. और जो ऐसा करते हैं, उन्हें खुद अपने गिरेबान में झांककर देखना चाहिए.

Text Size:

आइए एक ट्रिकी क्विज क्वेसचन से शुरू करते हैं. और कृपया गूगल न करें. तो बताइए- ऑपरेशन सर्चलाइट क्या था, और कब और क्यों चला था? जो लोग इसका जवाब जानते हैं वे तो समझ ही गए होंगे कि यूक्रेन पर रूसी हमले और उस पर भारत की स्थिति के संदर्भ में मैं इसकी बात क्यों कर रहा हूं.

संयुक्त राष्ट्र में वोटिंग के दौरान भारत के बार-बार गैर-हाजिर रहने (यहां तक कि अब बांग्लादेश भी रूस के खिलाफ मतदान का फैसला कर चुका है) पर पश्चिमी देशों ने उसकी आलोचना की और अनैतिकता को लेकर ताने भी कसे. अरे भारत! आप तो विश्वगुरु बनने की बात करते हैं, है कि नहीं? एक सैन्य महाशक्ति द्वारा एक छोटे-से राष्ट्र को तबाह करने पर ऐसा पाखंड क्यों, आप कब तक चुप्पी साधे रह सकते हैं? अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपकी नैतिकता आखिर कहां चली गई है?

इन तीनों ही तानों का जवाब देना आसान है. विश्वगुरु होना या न होना एक वैचारिक प्रस्ताव है, बहुत से भारतीय, वोट इसके लिए नहीं देते. वैसे भी ये ऐसा मामला है, जो विकास के क्रम में है. यहां तक कि इसके प्रस्तावकों भाजपा/आरएसएस के पास भी अभी इस बारे में सोचने का समय नहीं है, खासकर तब, जब चीन की सेना ने लद्दाख और अन्य जगहों को लेकर भारत पर नजरें गड़ा रखी हैं. आइए अब दूसरे सवाल पर, हम समीकरण थोड़ा उलट देते हैं. भारत के लिए तब तक चुप रहने में ही भलाई है, जब तक वह अपनी बात रखने के नतीजे को झेलने की स्थिति में न आ जाए. अब जहां तक बात नैतिकता की है तो हमें बहस को थोड़ा विस्तार देने की जरूरत है. और यहीं पर ऑपरेशन सर्चलाइट के जिक्र की जरूरत नजर आती है.

संयोग से जिस दिन यह कॉलम लिखा जा रहा था, उस दिन आज के बांग्लादेश और कभी पूर्वी पाकिस्तान कहे जाने वाले हिस्से पर पाकिस्तानी सेना की दमनकारी कार्रवाई शुरू किए जाने की 51वीं वर्षगांठ थी, जिसने अगले 250 दिनों में पूरी दुनिया में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के इतिहास में सबसे बड़े सामूहिक अत्याचारों में से एक की इबारत लिख दी थी. इसकी तुलना शायद केवल खमेर रूज से ही की जा सकती है. इस दौरान लाखों लोग मारे गए, अपंगता के शिकार हुए, अनगिनत बलात्कार हुए और 10 मिलियन से अधिक लोगों को भारत में शरण लेने पर बाध्य होना पड़ा. ये आंकड़ा यूक्रेन से निकलकर पड़ोसी देशों में शरण लेने के लिए पहुंचे लोगों से तीन गुना ज्यादा है.


यह भी पढ़ेंः हिंदू वोट छीने बिना मोदी-शाह की भाजपा को नहीं हराया जा सकता


बेशक, यह विशेषाधिकार प्राप्त दुनिया के तमाम देशों को बहुत अधिक परेशान कर रहा होगा क्योंकि ये सब यूरोप के मध्य में घट रहा है, न कि अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका जैसे स्थानों में, जहां ये सब ‘सामान्य’ है. यह एक ऐसा युद्ध है जिसमें एक देश ने सैन्य बल के साथ दूसरे देश पर हमला बोला है. लेकिन 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में गरीबी से त्रस्त और खुद को बचाने में अक्षम आबादी पर आठ माह तक एक ऐसी सेना ने कहर बरपाया था, जिस पर उसकी रक्षा की जिम्मेदारी थी और जिसके पास एक सैन्य तानाशाह के अधीन सरकार भी थी. आज, बांग्लादेश ने खुद को इतने शानदार ढंग से विकसित किया है कि प्रति व्यक्ति आय के मामले में वह उस अत्याचारी भाई पाकिस्तान से आगे निकल गया है. यह देश यूक्रेन का लगभग आधा ही है. पाकिस्तानी सेना ने हत्या, बलात्कार और लूटपाट के उस अभियान को जो नाम दिया था वो था ऑपरेशन सर्चलाइट.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

चूंकि यूक्रेन पर भारत की चुप्पी या विरोधाभासी रुख को लेकर ही नैतिकता पर सवाल उठाए जा रहे हैं, इसलिए यह जानना काफी रोचक होगा कि सामूहिक नरसंहार की उस घटना पर पश्चिमी देशों, खासकर वाशिंगटन का आधिकारिक रुख क्या था और उनके मतदान का रिकॉर्ड कैसा था. क्या उनके पास नैतिकता के उच्च मानदंडों पर बात करने का कोई आधार है?

मैंने इसे ही अपने तर्क का केंद्र बिंदु बनाया है. कोई भी राष्ट्र, चाहे कमजोर हो या मजबूत, अमीर हो या गरीब, उसकी विदेश और रणनीति संबंधी नीतियां नैतिकता के आधार पर तय नहीं होतीं. जो देश ऐसा दावा करते हैं, वो 10-सेकंड की तथ्यात्मक जांच में इस पर खरे नहीं उतर पाएंगे. अपनी चिरकालिक तटस्थता के साथ स्विट्जरलैंड को दुनिया भर के चोरों, ठगों, सामूहिक हत्यारों, तानाशाहों और निरंकुश शासकों की काली कमाई को छिपाकर रखने का ठेका तो लगता है खुद भगवान ने दे रखा है.

दुनिया भर में हर तरह के अधिकारों और एक्टिविस्ट्स् के समर्थक अति-नैतिकतावादी स्वीडन ने अपनी तोपें (बोफोर्स) बेचने के लिए गरीब भारत में रिश्वत दी और 35 सालों में कभी किसी को इस पर हिसाब देने की ज़हमत नहीं उठाई? अफगानिस्तान पर रूसियों के हमले को लेकर खुद को अति नैतिक समझने वाले अमेरिका को क्या उसी संप्रभु राष्ट्र पर कब्जा करने और फिर पूरी तरह तबाह करने के बाद तालिबान के हाथों सौंप देने का कोई मलाल है? रूसियों ने तो कम से कम व्यवस्थित तरीके से वापसी की थी और उसे एक सरकार को सौंपकर लौटे थे.

या सिर्फ यूक्रेन की ही चिंता है, वो भी सद्दाम हुसैन के पास परमाणु हथियार होने के कपटपूर्ण दावों को लेकर इराक को बर्बाद कर देने के करीब दो दशक बाद?

और चीनी? भारत, जिसे मैं मुख्यत: चीन पीड़ित समाज की संज्ञा देता हूं, के नागरिक के तौर पर कुछ कहने के अपने अधिकार से मैं यही कहूंगा कि मुझे बख्श दो और भाड़ में जाओ. वहीं, ब्रिटेन तो विवादित द्वीप के कुछ क्षेत्र के लिए अर्जेंटीना से लड़ने के लिए फॉकलैंड्स तक पहुंच गया था और अपनी औपनिवेशिक मानसिकता का परिचय देते हुए प्रतिरोध में अक्षम और हानिरहित पुराने क्रूजर जनरल बेलग्रानो को डुबो देने में भी नहीं हिचकिचाया था? या, फिर यही देख लें कि चागोसियन और अपने अधिकार क्षेत्र के लिए जारी मॉरीशस की लड़ाई का क्या अंजाम हुआ?

हम इनमें से किसी भी महान देश को नैतिकता की कसौटी पर नहीं कस रहे. किसी भी राष्ट्र से यह अपेक्षा करना बेमानी है कि अपने रणनीतिक विकल्पों को वो नैतिकता के आधार पर निर्धारित करेंगे. राष्ट्र सबसे पहले केवल अपने हित को देखते हैं. बाकी सब उसके बाद आता है.

दुनिया भर का सर्वेक्षण कर लीजिए, प्रमुख इस्लामी राष्ट्रों ने द्वितीय विश्व युद्ध में अपनी चिंता के एक सबसे पुराने मुद्दे फिलिस्तीन के बारे में जो रुख अपनाया है, वही हमें सबक देने के लिए काफी है. आज, अधिकांश शक्तिशाली खाड़ी देशों सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, सूडान, यहां तक कि कतर ने भी फिलिस्तीनी अधिकारों की बात तक करना छोड़ दिया है. एर्दोगन के सुपर-इस्लामिस्ट तुर्की ने तो अभी हाल ही में इजरायली राष्ट्रपति का स्वागत कुछ इस अंदाज में किया कि इसे आप किसी ‘जिगरी दोस्त’, ताकतवर भाई या कद्दावर सहयोगी के लिए किए गए इंतजाम जैसा कुछ कह सकते हैं. दूसरी ओर, ईरान ने फिलिस्तीनियों के लिए प्रॉक्सी वार चला रखी है, यहां तक कि सीरिया और लेबनान से दूरी की कीमत पर भी. दुनिया में तेहरान को इस बात का फायदा मिल रहा है कि इजरायल में उसके परमाणु हथियारों और मिसाइलों को लेकर एक डर बना हुआ है. एक बार यह चेक भुना लिया जाए फिर देखते हैं कि ईरानी हिजबुल्लाह, हमास, हौथी और बाकियों को कब तक सहेंगे.

चीनी विदेश मंत्री वांग यी इस्लामाबाद में ओआईसी शिखर सम्मेलन में सम्मानित मुख्य अतिथि बन सकते हैं और कश्मीर मसले पर भारत को खरी-खोटी सुना सकते हैं. लेकिन इस बीच, उनकी सरकार उइगरों का उत्पीड़न जारी रखती है और खासकर ओआईसी के संदर्भ में, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री (जब तक वह पद पर हैं)—जो संयुक्त राष्ट्र द्वारा साल में एक दिन इस्लामोफोबिया के नाम घोषित किए जाने का श्रेय लेते हैं—दबे सुर में भी इसके खिलाफ कुछ बोलने की हिम्मत नहीं रखते हैं. उन्हें निष्ठुर और स्वार्थी माना जा सकता है लेकिन वे अनैतिक नहीं हैं. क्योंकि वे वही सब कर रहे हैं जिसे अपने राष्ट्रीय हित में सर्वोपरि मानते हैं. उम्मा का नंबर उसके बाद आता है.

उइगरों पर चीन से सवाल करने के लिए पाकिस्तान को कश्मीर मसले और भारत के साथ वैमनस्य को इतर रखकर अपने राष्ट्रीय हित को किसी और तरीके से परिभाषित करने की जरूरत पड़ेगी. तब तक उइगरों की दुर्दशा उनके अनुकूल ही है. शिनजियांग को लेकर चीनी जितने असुरक्षित रहेंगे, उसके सबसे बड़े इस्लामी पड़ोसी पाकिस्तान का पलड़ा उतना ही भारी बना रहेगा. आखिरकार, राष्ट्रहित ही सर्वोपरि है.


यह भी पढ़ेंः क्या 7 प्रमुख राजनीतिक संकेत दे रहे हैं 5 राज्यों के ये विधानसभा चुनाव


भारत एक लंबे समय तक नैतिकता का भार उठाए रहा है. 1991 तक, भारतीय विदेश नीति गुटनिरपेक्षतावादी, सोवियत समर्थक, फिलिस्तीन समर्थक, रंगभेद विरोधी आदि रही है. एक लंबा दौर ऐसा रहा है जब वह पूरी तरह भारत-समर्थक नहीं रही. मैंने 1991 को इसलिए चुना क्योंकि यही वो समय था जब पी.वी. नरसिम्हा राव ने सोवियत सहयोगी होने के छद्म आवरण में लिपटी गुटनिरपेक्षता वाले शीत युद्ध के दौर से बाहर निकलने की दिशा में पहला कदम उठाया, और इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित किए.

इसके पहले दशकों तक भारत ने फिलिस्तीनियों की खातिर इजरायल और पश्चिमी देशों के खिलाफ मतदान किया, जोरदारी से आवाज उठाई और आक्रोश भी जताया. अब जरा भारत के युद्धों और आतंकी संकटों के दौरान अरब देशों की वोटिंग और ओआईसी की तरफ से अपनाए गए रुख को चेक कर लें. 1971 में जॉर्डन की तरफ से पाकिस्तान को एफ-104 स्टारफाइटर्स दिया जाना तो बाकायदा दस्तावेजों में दर्ज है. आज, अगर वही अरब देश भारत पर अपनी स्थिति पूरी तरह बदल चुके हैं तो इसलिए नहीं क्योंकि वे अनैतिक या गैर-इस्लामी हो गए हैं.

यह मोदी सरकार के पक्ष या विपक्ष में दिया जा रहा कोई तर्क नहीं है. इस समय कोई भी भारत सरकार वोटिंग पर यही रुख अपनाती और ठीक इसी तरह बोलती. यह केवल रूसी सैन्य उपकरणों पर भारत की व्यापक निर्भरता का मसला नहीं है. इसके साथ भरोसा भी जुड़ा हुआ है.

भारत ने पोखरण 1974 और 1998 के बाद लगभग तीन दशकों तक सबसे अधिक कड़े प्रतिबंध झेले हैं. इस बीच, अमेरिका एफ-16 और अन्य तरीकों से पाकिस्तान को मजबूत करता रहा, यहां तक कि चीन के सहयोग से उसके उन्नत परमाणु हथियार कार्यक्रम को भी उसने नजरअंदाज कर दिया. क्योंकि अफगानिस्तान में उस जिहाद को जो जीतना था, आप खुद ही समझ ही गए होंगे. क्या भारत बिना प्रतिरोधक क्षमता के बचा रह सकता था वो भी तब जब दो शातिर परमाणु शक्तियां, मान लें कि एक ‘बड़ा’ पुतिन और एक ‘छोटा’ पुतिन इसके लिए खतरा बने हुए हों? लेकिन जब भारत ने उस प्रतिरोधक क्षमताओं का प्रदर्शन किया तो उसे प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा.

ये कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से हम यूक्रेन पर भारत की नीति को नैतिकता के नजरिये से नहीं देख सकते हैं. और अगर आप ऐसा करते हैं, तो उसी नैतिकता की सर्चलाइट में अपने गिरेबान में भी झांककर देखें.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः ‘कश्मीर फाइल्स’ का एक मूल संदेश तो सही है लेकिन भावनाएं तभी शांत होती हैं जब इंसाफ मिलता है


 

share & View comments