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Friday, 22 November, 2024
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राहुल गांधी को सोचना चाहिए कि उनकी दादी इंदिरा ने सावरकर को देशभक्त क्यों कहा था

भारत रत्न से सम्मानित किए जाने के बाद अंततः भारत के इस बहुप्रचारित और गलत समझे जाने वाले नेता की आत्मा को अंतिम शांति मिल सकेगी.

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वीर विनायक दामोदर सावरकर के नाम का भूत एक बार फिर से समकालीन राजनीति में वापस लौट आया है और इस बार महाराष्ट्र में चुनावी लड़ाई की गहमा-गहमी में उन्हे भारत रत्न देने का शोर भी जोड़ पकड़ता जा रहा है.

हालांकि, शिवसेना ने हमेशा से ही सावरकर को भारत के इस सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से नवाज़े जाने का समर्थन किया है, पर इस बार भाजपा भी उसकी सुर-मे-सुर मिलाती नज़र आ रही है और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उनकी वकालत करते नज़र आ रहे हैं. इस सबके कारण कांग्रेस में एक बार फिर अराजकता का माहौल दिख रहा है और जहां दिग्विजय सिंह और मनीष तिवारी जैसे नेताओं ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी है, वहीं पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की प्रतिक्रिया काफ़ी संयमित दिखती है.

अच्छा होगा कि कांग्रेस के वे लोग जो सावरकर के प्रति दुर्व्यवहार वाला नज़रिया रखते हैं. अपनी दिवंगत नेता इंदिरा गांधी की राजनैतिक कला से कुछ सीखें. सावरकर के निधन के बाद उन्होंने कहा था, ‘उनका नाम साहस और देशभक्ति का पर्यायवाची था. सावरकर एक पारंपरिक क्रांतिकारी के ढांचे में गढ़े हुए इंसान थे और अनगिनत लोगों ने उनसे प्रेरणा ली थी.’ तत्कालीन सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया था. इसके अलावा श्रीमती इंदिरा गांधी ने उनकी स्मारक निधि के लिए 11,000 रुपये का दान दिया और श्री सावरकर के कृतित्व पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने की अनुमति भी प्रदान की. इन सब के बाद इंदिरा के पोते राहुल गांधी को इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि क्या उनकी दादी एक ‘गद्दार’, ‘कायर’ और महात्मा गांधी की हत्या में संलिप्त व्यक्ति की प्रशंसा कर रहीं थी?

एक क्रांतिकारी

हालांकि, सावरकर को भारत रत्न देने के निर्णय को राजनीति और अटकलों के दायरे में छोड़ देना चाहिए, फिर भी यह विवाद हमारे स्वतंत्रता संग्राम की उन वैकल्पिक आवाजों को स्वीकार करने के प्रति एक प्रतीकात्मक संकेत है, जो एक एकरंगी गाथा बनाने के क्रम मे लंबे समय से दबाई जा रही है. एक युवा क्रांतिकारी के रूप में, सावरकर ने देश में क्रांतिकारियों के पहले गुप्त समाज- मित्र मेला (जो बाद में अभिनव भारत के नाम से जाना गया) की स्थापना की और संपूर्ण भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए एक शानदार नेटवर्क गढ़ा. 1905 के बंगाल के विभाजन आंदोलन के दौरान उन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता के लिए एक आह्वान किया (जिसे कांग्रेस ने काफ़ी बाद में 1930 में अपनाया). पूना के फर्ग्यूसन कॉलेज में पढ़ते हुए उन्होंने विदेशी कपड़ों के सार्वजनिक दहन का प्रथम आयोजन किया और इसके लिए उन्हें कॉलेज अधिकारियों द्वारा निष्कासन का दंड भी भोगना पड़ा.

बाद में चल के लंदन के ग्रे इन कॉलेज में कानून के छात्र के रूप में सावरकर ने स्वतंत्र भारत के सपने को साकार करने के लिए एक विशाल अंतर-महाद्वीपीय, उपनिवेश विरोधी तंत्र का निर्माण किया और इसके सशस्त्र संघर्ष के प्रयासों का केंद्र बन गये. श्यामजी कृष्णवर्मा, मैडम भीकाजी कामा, सरदार सिंह राणा, मदन लाल ढींगरा, वीवीएस अय्यर, निरंजन पाल, वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, लाला हरदयाल, एमपीटी आचार्य और अन्य महान क्रांतिकारियों के साथ मिलकर उन्होंने दमनकारी अंग्रेजों की राजनीतिक हत्याओं के लिए बम, पिस्तौल और बम मैनुअल की खरीद और तस्करी जैसे कई क्रांतिकारी कृत्यों को अंजाम दिया.


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उन्होंने इतालवी क्रांतिकारी जोसेफ माज़िनी की जीवनी और 1857 के विद्रोह पर उनके द्वारा लिखी गयी महान पुस्तक को लिखकर क्रांतिकारी आंदोलन के लिए एक विशाल और महान बौद्धिक निधि के निर्माण मे सहयोग प्रदान किया.

वास्तव में, यह सावरकर ही थे जिन्होंने सबसे पहले ‘द फर्स्ट वॉर ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस’ के मुहावरे को गढ़ा और ब्रिटिश अभिलेखागार में उपलब्ध दस्तावेज़ों के भारतीय दृष्टिकोण से व्यापक शोध के बाद फिर से लिखा. संभवतः गृह मंत्री अमित शाह एक मात्र व्यक्ति हैं जिन्होंने उन्हें 1857 की स्मृति को जीवित रखने का श्रेय प्रदान किया.

अंग्रेज जासूस होने की बात सरासर ग़लत

सच तो यह है कि सावरकर की गतिविधियों से अंग्रेज इतना डर गए थे कि उन्होंने उन्हें ‘डी’ श्रेणी यानि खतरनाक अपराधी के रूप में वर्गीकृत किया था. वे उन्हें हर कीमत पर भारत प्रत्यर्पित करवाना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने पूरा ज़ोर लगा दिया था. यहां तक कि हेग में स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में फ्रांस के साथ एक बड़ा विवाद भी हुआ था. ताकि वह सावरकर को पकड़ सकें. उन्हें बिना किसी जूरी या अपील की सुविधा के एक दोषपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया के बाद उम्रकैद के दोहरे दंड के तहत अंडमान की कुख्यात सेलुलर जेल में 50 साल के लंबे अंतराल तक क़ैद की सजा दी गई.

अंडमान जेल मे सावरकर और कई अन्य राजनीतिक कैदियों के साथ किए गये अमानवीय और बर्बर अत्याचार तो अब ऐतिहासिक रिकॉर्ड मे अंकित हो चुके हैं. सावरकर द्वारा जिस क्षमादान की मांग की गई थी और जो उनके खिलाफ दुष्प्रचार करने के लिए अक्सर प्रयुक्त होता है वैसी याचिकाएं उस दौरान के सभी राजनीतिक कैदियों के लिए उपलब्ध एक सामान्य व्यवहार था (इसका उपयोग करने वालों में बारिन घोष और सचिंद्रनाथ सान्याल भी शामिल थे).

सावरकर अपनी याचिकाओं के द्वारा एक तरह से अन्य कैदियों के लिए एक प्रवक्ता के रूप में भी काम कर रहे थे और उनमें से कई याचिकाओं में सभी के लिए एक सामान्य माफी (ख़ासतौर पर प्रथम विश्व युद्ध को देखते हुए) मांगने के बारे में लिखा गया था. सावरकर का साक्षात्कार करने वाले सर रेजिनाल्ड क्रैडॉक जैसे ब्रिटिश अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने जो कुछ भी किया उसके लिए उन्हें ‘किसी प्रकार का खेद या पश्चाताप व्यक्त करने के लिए नहीं कहा जा सकता है.’

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वयं सावरकर के छोटे भाई नारायणराव को अपने बड़े भाइयों की रिहाई के लिए याचिका दायर करने की सलाह दी थी और उनकी रिहाई के लिए एक मजबूत दावा भी तैयार किया था. उनका पत्र ‘सावरकर ब्रदर्स’ शीर्षक के तहत यंग इंडिया के दिनांक 26 मई 1920 के अंक में प्रकाशित भी हुआ था.

सावरकर को अंततः वर्ष 1924 में सशर्त रिहा किया गया था, लेकिन उन्हें रत्नागिरी जिले से बाहर जाने की मनाही थी और राजनीति में भाग लेने से भी रोक दिया गया था. शुरू में इस रिहाई की अवधि पांच साल थी, जिसे बाद में 13 साल तक बढ़ा दिया गया था. यदि वह एक ब्रिटिश सहयोगी बन गये होते, तो ब्रिटिश सरकार के पास ऐसा कोई ठोस कारण नहीं था कि वह उन्हें ऐसी सख्त निगरानी के अधीन रखे जहां उनके हर कदम पर नज़र रखी जाती थी. उस समय की ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों की ऐसी कई रिपोर्ट्स इस बात की गवाही देती है कि कैसे उनके भाषणों और क्रियाकलापों की अत्यंत बारीकी से निगरानी की जाती थी.

इस निगरानी तंत्र को चकमा देने के लिए और हिंदुत्व की विचारधारा को लागू करने की अपनी सोच को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने गांधी जी द्वारा शुरू किए गए द्वेषपूर्ण और सांप्रदायिक खिलाफत आंदोलन की प्रतिक्रिया के स्वरूप में बड़े पैमाने पर सामाजिक सुधारों और हिंदू समाज के एकीकरण पर जोर दिया था. अंतर-जातीय भोज, अंतर-जातीय विवाह, मुक्त मंदिर प्रवेश तथा जाति व्यवस्था और अस्पृश्यता के पूर्ण उन्मूलन के लिए किए गये आंदोलन, रत्नागिरी में उनके पसंदीदा कार्यक्रम थे. फिर भी, उनके कार्यों ने सभी प्रकार के क्रांतिकारियों को प्रेरित किया था.


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दुर्गादास खन्ना, जो की बाद में पंजाब विधान परिषद के अध्यक्ष बने, भगत सिंह के सहयोगी थे और उन्होंने एक साक्षात्कार में खुलासा किया था कि हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन में भर्ती होने के दौरान, भगत सिंह और सुखदेव ने उनसे पूछा था कि क्या उन्होंने वीर सावरकर की रचनाओं को पढ़ा है? भगत सिंह ने तो 1857 पर सावरकर द्वारा लिखी गयी पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित भी करवाया था. दशकों बाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और रास बिहारी बोस ने इसका जापानी संस्करण प्रकाशित किया. इस पुस्तक के तमिल संस्करण को भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) के खिलाफ मारे गये छापे के दौरान पाया गया था.

एक सच्चे राष्ट्रवादी

1937 में पूर्ण रूप से रिहा होने के बाद, सावरकर ने अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष के रूप में पदभार संभाला. एक ओर, उन्होंने कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति का विरोध किया. वहीं दूसरी ओर, उन्होंने मुहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति को भी चुनौती दी.

सावरकर के अनुसार, स्वतंत्र भारत का संविधान एक ऐसा संविधान होना चाहिए था, जहां सभी लोगों को जाति, पंथ, नस्ल और धर्म की भिन्नता के बावजूद समान अधिकार और दायित्व दिए जाएं. उनका कहना था कि ‘एक हिंदू राष्ट्र की अवधारणा किसी भी तरह से एक ऐसे आम भारतीय राष्ट्र के विकास के साथ असंगत नहीं है … जिसमें सभी संप्रदाय और वर्ग, नस्ल और धर्म, जाति और पंथ, हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, एंग्लो-इंडियन एक होकर, सौहार्दपूर्ण ढंग से, पूर्ण समानता की शर्तों पर एक साथ एक राजनीतिक राज्य के रूप मे संगठित हो सकें. हम अपने गैर-हिंदू देशवासियों के मन मस्तिष्क में उपजे इस प्रकार के किसी भी संदेह की छाया से भी छुटकारा पाना चाहते हैं कि इस देश में अल्पसंख्यकों को उनकी संस्कृति, धर्म और भाषा के संबंध में वैध अधिकारों की स्पष्ट गारंटी नहीं दी जाएगी.’ (सावरकर, हिंदू राष्ट्र दर्शन).

यह एक अत्यंत गलत धारणा है कि सावरकर ने उस दो-राष्ट्र सिद्धांत का प्रचार किया था, जो जिन्ना के द्वारा की जा रही इसी तरह की मांग की प्रतिछाया थी. सावरकर ने मुस्लिम समुदाय के भीतर उग्रवादी समूहों का ज़रूर विरोध किया था और कहा था कि एक सर्वमान्य खलीफा के तहत एक इस्लामी समुदाय की कल्पना को देखते हुए कई मुस्लिमों ने खुद को एक अलग इकाई के रूप में देखना शुरू कर दिया है. लेकिन उन्होंने धार्मिक आधार पर राष्ट्र के अंदर से पाकिस्तान या किसी अन्य राष्ट्र के निर्माण का साफ विरोध किया था.


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भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान – जिसका वे खुले तौर पर विरोध कर रहे थे. उन्होंने भारतीय युवकों को ब्रिटिश सेना में भर्ती होने और प्रशिक्षित होने के लिए प्रोत्साहित किया. ताकि वे बाद मे पाला बदल कर नेताजी की आईएनए मे शामिल हो सकें. नेताजी ने आजाद हिंद रेडियो पर 25 जून 1944 को एक प्रसारण में कहा था, ‘जब राजनैतिक गोरखधंधे और दूरदर्शिता की कमी के कारण गुमराह हो रही कांग्रेस पार्टी के लगभग सभी नेता भारतीय सेना में शामिल सैनिकों को भाड़े के सैनिकों के रूप में कुप्रचारित कर रहे हैं, मुझे यह जानकर खुशी हो रही है कि वीर सावरकर निडर होकर भारत के युवाओं को सशस्त्र बलों में भर्ती होने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. ब्रिटिश सेना मे शामिल ये युवक हीं हमारी आईएनए के लिए प्रशिक्षित जवानों और सैनिकों को प्राप्त करने का श्रोत हैं.’ श्री रास बिहारी बोस ने सावरकर जी को एक जापानी पत्रिका दाई अजिया शुगी के मार्च 1939 के अंक मे ‘ए राइजिंग लीडर ऑफ़ न्यू इंडिया’ कहा था. यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि 1946 के नौसेना विद्रोह ने भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रक्रिया को 1942 के आंदोलन की तुलना मे कहीं अधिक गति प्रदान की.

गांधी जी की हत्या

गांधीजी की हत्या की काली छाया हमेशा सावरकर पर रही है, बावजूद इसके कि वे सभी साक्ष्यों पर विचार करने के बाद अदालत से पूरी तरह से बरी किए गए थे. नाथूराम गोडसे ने अपनी मरणासन्न घोषणा में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है, ‘यह सच नहीं है कि वीर सावरकर को मेरी गतिविधियों के बारे में ज्ञान था, जिसके कारण मुझे अंततः गांधीजी पर गोलियां चलानी पड़ी.’ गोडसे ने वास्तव में 1945 के बाद से हीं सावरकर के शांतिवाद से मोहभंग होने और उनसे अलग हो जाने की बात कही है. इस सन्दर्भ मे एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि जवाहरलाल नेहरू सरकार ने सावरकर के बरी होने के खिलाफ अपील नहीं की थी.

जेएल कपूर आयोग – जिसने सावरकर के मरणोपरांत उनकी संलिप्तता पर फैसला दिया था – के निष्कर्षों को कई लोगों द्वारा चुनौती दी गई थी. जिसमें शीशराव मोरे जैसे इतिहासकार भी शामिल हैं. यह एक राजनीतिक रूप से पूर्वाग्रह वाली रिपोर्ट है. जिसने कई महत्वपूर्ण गवाहों के बयान को ध्यान मे हीं नहीं रखा.

श्री सावरकर की यही बिगाड़ी हुई विरासत आज भी भारत को परेशान करती है, विशेषकर तब जब उनके वैचारिक उत्तराधिकारियों का राजनीतिक उभार अपने चरमोत्कर्ष पर है. उम्मीद है कि भारत रत्न से सम्मानित किए जाने के बाद अंततः भारत के इस बहुप्रचारित और गलत समझे जाने वाले नेता की आत्मा को अंतिम शांति मिल सकेगी.

(लेखक एक इतिहासकार और सावरकर- ‘सावरकर: इकोज फ्रॉम अ फरगॉटन पास्ट’ के लेखक और नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में एक सीनियर फेलो है. प्रस्तुत विचार पूर्ण रूप से व्यक्तिगत हैं.)

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