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Sunday, 28 April, 2024
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राष्ट्रवाद और वीर सावरकर पर इंदिरा गांधी से सीखे सोनिया-राहुल की कांग्रेस

वीर सावरकर को लेकर कांग्रेस के भ्रम ने एक बार फिर राष्ट्रवाद पर इसकी दुविधा को जाहिर किया है. उसे इंदिरा गांधी की राजनीति से सीख लेने की जरूरत है.

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सावरकर को भारत रत्न के ताजा विवाद में सबसे दिलचस्प ये देखना है कि कैसे इसने कांग्रेस को बदहवास कर छोड़ा है. नाज़ी, घृणास्पद धर्मांध और तकनीकी आधार पर बच निकले गांधी हत्याकांड के ‘षड़यंत्रकारी’ के रूप में सावरकर को पूरी तरह से खारिज करने से लेकर मनमोहन सिंह के ‘हम सावरकर जी का सम्मान करते हैं लेकिन उनकी विचारधारा से सहमत नहीं हैं’ कहने तक, इतने संवेदनशील मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी का औपचारिक रुख स्पष्ट नहीं है. ये स्थिति तब है जबकि, महाराष्ट्र में चुनाव अभियान ज़ोरों पर है.

मनमोहन सिंह के सतर्क पर अधिक समझदारी भरे बयान के अगले ही दिन पार्टी उनके बयान से दूरी बनाने की कोशिश करते दिखी. कांग्रेस ने इसके लिए अपने प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला को लगाया. लेकिन, मनमोहन सिंह के बयान के और अधिक ‘सूक्ष्म विभेद’ की उनकी कोशिश हताशापूर्ण और दयनीय थी. क्योंकि सिंह के बयान में ना तो कुतर्क था, ना ही अन्यमनस्क अस्पष्टता.

उन्होंने जो कहा वो शुरू से ही उनकी पार्टी का रुख हो सकता था और तब पार्टी को आज की तरह एक कदम आगे और दो कदम पीछे की आत्मघाती कवायद नहीं करनी पड़ती. खास कर जब सावरकर के प्रशंसक इंदिरा गांधी द्वारा 1970 में उनके सम्मान में जारी स्मारक डाक-टिकट, उनके सम्मान में (हालांकि कूटनीतिक कुशलता के साथ) बोले गए – कुछ लिखित शब्दों की प्रतियां निकाल रहे हों. साथ ही, इस बात का भी खूब उल्लेख हो रहा है कि इंदिरा गांधी ने सावरकर के जीवन पर एक वृतचित्र के निर्माण को संरक्षण दिया था और उनके नाम पर बनी स्मारक निधि में 11 हजार रुपये (आज के मूल्य में करीब 5 लाख रुपये) का योगदान भी दिया था. ऐसे में कांग्रेस अपने मौजूदा रुख का उनके रुख से तालमेल कैसे बिठाती है?

इंदिरा गांधी कोई पीवी नरसिम्हा राव नहीं थी जिनसे कांग्रेस ने उनकी ‘नरम धर्मनिरपेक्षता’– यदि गुप्त हिंदुत्व या ‘धोती के नीचे खाकी निक्कर पहनने’ की बात ना भी की गई हो– के कारण किनारा कर लिया और भुला दिया. कांग्रेस में पार्टी को पुरानी शैली की दृढ़ धर्मनिरपेक्षता की राह पर वापस लाने की मांग भी सामने आई है.

इंदिरा गांधी की बात अलग है. कांग्रेस पार्टी में कोई भी उन पर धर्मनिरपेक्षता, हिंदुत्व या किसी अन्य बात पर नरम होने का आरोप लगाने की हिम्मत नहीं करेगा. उनकी ‘सख्ती’ के सबूत भूगोल (बांग्लादेश, जहां सख्ती कामयाब रही) और इतिहास (आपातकाल, जहां कामयाब नहीं रही) में बिखरे पड़े हैं.

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ये एक जानी-मानी बात है, जिसे मौजूदा संदर्भ में दोहराए जाने की ज़रूरत है, कि आपातकाल के दौरान हिरासत में लिए गए लोगों में से करीब 60 से 75 प्रतिशत आरएसएस और जनसंघ के थे. उनके धर्मनिरपेक्षता और देशभक्ति से भरे निरंकुश दिल में इन लोगों के लिए कोई नरम कोना नहीं था.

सच्चाई ये है कि इंदिरा गांधी अपने विरासतियों की तुलना में विचारधारा के मुकाबले राजनीति को कहीं अधिक महत्व देती थीं. इतिहासकार इस बात के और सबूत ढूंढेंगे कि सावरकर मामले में उन्होंने वैसा क्यों किया था, पर मेरा अनुमान ये है कि चूंकि उन्हें आरएसएस/जनसंघ से बहुत चिढ़ थी. इसलिए वह नहीं चाहती थी कि वे लोग स्वतंत्रता आंदोलन में किसी तरह का योगदान करने वाले, किसी भी विचारधारा के व्यक्ति को पूरी तरह अपने पाले में ले जा सकें. हालांकि, आरएसएस पर वह हमेशा स्वतंत्रता आंदोलन में भाग नहीं लेने और अंग्रेजों के साथ सौदा करने का आरोप लगाती थीं.

उनमें चाहे जितनी कमियां रही हों, पर आरएसएस की जमात में से मात्र सावरकर ही ऐसे थे जिन्हें कि स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों की पंक्ति में खड़ा करने की कोशिश की जा सके और इंदिरा गांधी ऐसा होने नहीं दे सकती थी. उनकी सोच को बेहतर समझने के लिए आप इस बात पर सावधानी से गौर करें कि मोदी-शाह की भाजपा ने कांग्रेस पार्टी की ऐतिहासिक विभूतियों को लेकर कैसा रवैया अपना रखा है. हम इस कॉलम में विगत में चर्चा कर चुके हैं कि कैसे आरएसएस/भाजपा एक बड़ी समस्या का सामना कर रही है: स्वतंत्रता संग्राम के नायकों के अभाव की समस्या. भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसी गैर-कांग्रेसी विभूतियां भी उनकी विचारधारा से बहुत दूर थीं. यही वजह है कांग्रेस से नायकों के ‘आयात’ के उतावलेपन की.

गांधी-नेहरू खानदान के अलावा (हालांकि मेनका और वरुण गांधी उनके खेमे में हैं) वे किसी को भी अपनाने के लिए तैयार हैं. सरदार पटेल को तो पहले ही वे ले जा चुके थे, पर यह सरकार उन्हें भारतीय गणतंत्र के नेहरू से भी बड़े संस्थापक के रूप में स्थापित करने का प्रयास कर रही है. इस बात पर कौन ध्यान देता है कि पटेल आरएसएस के प्रशंसकों में से नहीं थे और महात्मा गांधी की हत्या किए जाने के बाद उन्होंने उस पर प्रतिबंध लगा दिया था. उनके आरएसएस विरोधी रुख के पक्ष में तमाम दस्तावेज उपलब्ध हैं. लेकिन, चूंकि नेहरू से उनके मतभेद गहरे थे, जिसके अच्छे दस्तावेजी सबूत भी उपलब्ध हैं, इसलिए कांग्रेस के पुराने दिग्गजों में से भाजपा सर्वप्रथम उनको ले गई.

अगली बारी लालबहादुर शास्त्री की थी. मदन मोहन मालवीय जैसे कांग्रेस के पुराने हिंदूवादियों को अपने खेमे में खींचना तो भाजपा के लिए बहुत आसान था. ये सब पिछले तीन दशकों के दौरान हुआ है या सही राजनीतिक संदर्भ में कहें तो, इंदिरा के बाद के युग में.

ये तीन दशक एक और परिघटना के गवाह रहे, कांग्रेस पार्टी का तेजी से वैचारिक वामपंथ की ओर गमन. ये सही है कि पार्टी हमेशा से वामपंथी विचारों के ज़्यादा करीब रही है. इंदिरा गांधी समाजवाद को एक घातक राजनीतिक अस्त्र की तरह इस्तेमाल करती थी, हालांकि ये अर्थव्यवस्था के लिए विनाशकारी था.

 

इंदिरा गांधी ने अपने वामपंथी पिछलग्गुओं के सामाजिक-लोकलुभावन आर्थिक विचारों का इस्तेमाल किया, पर उन्हें कभी अपनी राजनीति में दख़लंदाजी की इजाज़त नहीं दी. साथ ही, उन्होंने अभी हिंदू पहचान को भी कभी नहीं छोड़ा. वह रुद्राक्ष माला, पूजा, साधु और तांत्रिक जैसे धार्मिक प्रतीकों से जुड़ी रहीं. जाहिर है, उनके क्रांतिकारी दरबारियों में से किसी ने इस पर उनकी आलोचना करने की हिम्मत नहीं की. आज की तुलना में वो कितनी अलग स्थिति थी, क्योंकि हमारे राजनीतिक-वैचारिक वामपंथी आज मंदिर यात्राओं के लिए राहुल गांधी और सावरकर संबंधी विचार के लिए मनमोहन सिंह की खुलकर आलोचना करते हैं कि उन्होंने नरम हिंदुत्व के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया है. उन्हें इस कठोर सच्चाई को स्वीकारना चहिए कि इंदिरा गांधी ने सावरकर को दुश्मन या आतंकवादी नहीं माना था. अपनी बात पर ज़ोर देने के लिए मैं खुद को दोहरा रहा हूं, वह किसी भी स्वतंत्रता सेनानी को अस्वीकार करने या आरएसएस को सौंपने के लिए तैयार नहीं थीं. वह राजनीति जानती थीं.

आरएसएस के एक अग्रणी बुद्धिजीवी और उसके मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ के पूर्व संपादक शेषाद्री चारी इस बारे में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक टिप्पणी करते हैं. वह याद दिलाते हैं कि इंदिरा गांधी ने कभी भी संघ/भाजपा को हिंदू दल नहीं कहा. वह अपनी राजनीति को हिंदूवाद के मुकाबले खड़ा करने, या भारतीय बहुसंख्यकों के धर्म को अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी के हवाले करने का काम कभी नहीं कर सकती थी. उन्होंने दृढ़ता से और जानबूझ कर उसे महज एक ‘बनिया’ पार्टी कहकर खारिज किया था.

आप अंतर पर गौर करें. यदि आप उन्हें ‘हिंदू’ कहते हैं, आप बहुत से हिंदुओं को अपने से दूर कर रहे होंगे. दूसरी ओर बनिया मतदाताओं का छोटा-सा समूह है. साथ ही, चूंकि वे धनपतियों, मुनाफाखोरों और साहूकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए खास कर ग्रामीण भारत में, बाकी हिंदू समाज उनसे उतना लगाव महसूस भी नहीं करता है. इसके जरिए उन्हें जनसंघ/भाजपा के आर्थिक सुधार या मुक्त-बाज़ार समर्थक दावे को भी खारिज करने में मदद मिली कि वे ‘अनुपयोगी’ व्यापारी मात्र हैं. बनिया हैं.

चारी के अनुसार सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस ने वणिकवाद की जगह हिंदुत्व/हिंदूवाद से लड़ना शुरू किया और उनकी बात समझ में आती है. इंदिरा युग और उसके बाद के कांग्रेस के बीच मौलिक अंतर ये है. इंदिरा ने वामपंथी बुद्धिजीवियों को दरबारियों के रूप में काम और संरक्षण दिया तथा उनका और उनके विचारों का अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल किया. सोनिया के बाद के काल में कांग्रेस ने उत्तरोत्तर वामपंथियों और उनके बुद्धिजीवियों को अपनी राजनीति चलाने दिया है.


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यदि आपको सबूत चाहिए तो आप कांग्रेस के 2019 के चुनावी घोषणा-पत्र को देख सकते हैं जिसमें राजद्रोह कानून को रद्द करने, अफस्पा कानून को हल्का करने और कश्मीर में सेना की तैनाती कम करने के वायदे किए गए थे. यदि किसी ने इंदिरा गांधी को इस तरह की सलाह दी होती तो उसे शायद उनकी लात खानी पड़ती. या शायद, वह सवाल करतीं कि चुनाव भारत में लड़े जाने हैं या जेएनयू में.

नेहरू एक समाजवादी थे और उनकी खुद की अपार मेधा थी. उन्हें किसी की मदद की जरूरत नहीं थी. वास्तव में, स्वर्गीय जयपाल रेड्डी अक्सर कहा करते थे कि यदि महात्मा गांधी का असर नहीं होता तो नेहरू एक ‘अपुनर्निर्मित मार्क्सवादी’ होते. इंदिरा वैसी मेधा की दावेदारी नहीं करती थी, इसलिए उन्हें अपना लोकलुभावनवाद निर्मित करने के लिए बाहरी लोगों की जरूरत थी, पर उनकी राजनीति पूर्णतया उनकी अपनी थी. उन्होंने राष्ट्रवाद और समाजवाद का एक मारक मिश्रण तैयार किया था जिससे पार पाना किसी ‘बनियों की पार्टी’ के बस की बात नहीं थी.

समीकरण अब उलट चुका है. इंदिरा के विरासतियों का सामना मोदी-शाह की भाजपा से है. जिसके पास राष्ट्रवाद, धर्म और समाजवाद का एक घातक त्रिशूल है. सोनिया-राहुल की कांग्रेस इसका कैसे मुकाबला करती है? उन्हें ओर-छोर का पता नहीं है और इसलिए सबरीमाला, तीन तलाक़ और अयोध्या जैसे मुद्दों पर वे दुविधाग्रस्त दिखते हैं. और यदि वे केवल नए, कठोर, वामपंथी समाजवाद पर ज़ोर देते हैं तथा राष्ट्रवाद और धर्म (संस्कृति भी) को भाजपा के विषय मानते हैं, तो इस लोकसभा में 52 के आंकड़े को छूकर भी वे खुद को भाग्यशाली समझें. मनमोहन सिंह जैसा गैर-पेशेवर राजनेता इस बात को समझता है. पर उनकी पार्टी ने कभी उनकी नहीं सुनी.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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