आज की जरूरत है- निजीकरण. रेलवे स्टेशन और रेलगाड़ियों से लेकर हवाईअड्डों, कंटेनर कॉर्पोरेशन, शिपिंग कॉर्पोरेशन, हाइवे परियोजनाओं, एअर इंडिया, भारत पेट्रोलियम तक सबका निजीकरण होने वाला है और हम विनिवेश की नहीं बल्कि असली निजीकरण की बात कर रहे हैं. जिसमें नियंत्रण करने वाले हाथ बदल जाएंगे. यह पिछली बार वाजपेयी सरकार में अरुण शौरी ने किया था. ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी अंततः अपने इस विचार पर अमल करने जा रहे हैं कि बिजनेस सरकार का बिजनेस नहीं है.
इसके पीछे कुछ दूसरे कारण भी होंगे. मसलन सरकार की यह साख बनाना कि वह सकारात्मक पहल भी कर सकती है, खासकर तब जबकि यह माना जा रहा है कि 2016 में की गई नोटबंदी और अटपटे ढंग से लागू की गई जीएसटी के कारण भी आर्थिक सुस्ती आई है. दूसरा मकसद बढ़ते वित्तीय घाटे को पूरा करना भी हो सकता है. सरकार खर्चे बढ़ाने के एक के बाद एक कई कार्यक्रमों और टैक्स में छूट की घोषणा करती रही है. सो, बिल तो बड़ा होता गया और टैक्स से आमदनी घटती गई. तो पैसे तो कहीं से जुटाने पड़ेंगे, ताकि वित्तीय घाटा परेशानी का सबब न बन जाए. भारतीय रिजर्व बैंक पर दबाव डालकर एकमुश्त भुगतान करवाया गया. लेकिन, यह काफी नहीं होगा. इसलिए निजीकरण ही आसान उपाय है, सिवाय इसके कि वित्तीय वर्ष के छह महीने से भी कम बाकी रह गए हैं और जिन सरकारी परिसंपत्तियों को बेचने की घोषणा की गई है. वे मार्च के अंत तक शायद ही बिक पाएंगी.
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इस सबके बावजूद निजीकरण का स्वागत है. राजकोषीय मामले में आदर्शवादी लोग चालू खर्चों- मसलन किसानों को भुगतान या स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम के लिए परिसंपत्तियों को बेचने का विरोध करेंगे, इस तर्क के साथ कि यह सब हमेशा नहीं चल सकता. एक समय आएगा जब बिक्री के लिए उपलब्ध परिसंपातियों की सूची खाली हो जाएगी. लेकिन, फिलहाल तो यह दूर की बात लगती है. इस सकारात्मक पहलू पर जरूर गौर किया जाना चाहिए कि निजी हाथों में जाने से उनके बेहतर इस्तेमाल और उनकी बेहतर सेवा से व्यवस्थागत लाभ होगा, जो कि निजीकरण का असली मकसद है.
क्या यह कारगर होगा? हां, अगर पिछली बार एयर इंडिया के मामले में जो किया गया उसके बदले सरकार बिक्री या लीज की समझदारी भरी शर्तें रखे. खरीदार कौन होगा, तो यह सच है कि अधिकतर घरेलू व्यवसाय घराने कर्जे कम करने में जुटे हैं. कई स्थापित व्यवसायी दिवालिया होने की प्रक्रिया के कारण या कर्ज के बदले जमानत पर रखे शेयरों को न्यूनतम कीमत पर बेचे जाने के कारण निवेश की अपनी क्षमता खो बैठे हैं. अनिल अंबानी, रूइया बंधु और सुभाष चंद्रा
दूसरे कई इस वजह से परेशानी में पड़ चुके है, जबकि गौतम थापर और कभी रनबक्सी के सिंह बंधु वित्तीय और सामाजिक पूंजी भी खोने का दर्द झेल चुके हैं. दूसरी ओर, पिछले कुछ वर्षों से कॉर्पोरेट फायदा लेने की प्रवृत्ति इस स्तर पर पहुंच चुकी है कि कुछ कंपनियां भारी नकदी के ढेर पर बैठी हैं या ज्यादा कर्ज लेने की स्थिति में हैं, लेकिन निवेश से परहेज कर रही हैं क्योंकि उपभोग में गिरावट बनी हुई है. नये व्यवसाय में उतरने या बढ़िया परिसंपत्ति हासिल करने का मौका उन्हें अपने चेकबुक खोलने के लिए प्रेरित कर सकता है. इसके अलावा कुछ अंतरराष्ट्रीय हित भी हो सकते हैं.
इस सबके साथ राजनीतिक जोखिम जुड़ा है. आरएसएस के सरसंघचालक ने आर्थिक नीति के कुछ पहलुओं पर चेतावनी जारी कर दी है और मजदूर संघों में असंतोष की लहर है. मोदी सरकार इतनी मजबूत है कि इस प्रतिरोध से निपट सके. लेकिन, उसे अपनी साख को जोखिम का एहसास तो होना ही चाहिए. भारत सहित कई देशों में निजीकरण के साथ विवाद भी जुड़े रहे हैं. जोखिम तब और बढ़ जाता है जब दीर्घकालिक लीज से जुड़े जटिल वित्तीय मामलों को बिना जरूरी सलाह-मशविरा के जल्दबाज़ी में आगे बढ़ाया जाता है. हवाई अड्डों के लीज अडानी ग्रुप को सौंपे जाने के मामले में ऐसा ही कुछ कहा जा रहा है.
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इस बीच, यह स्पष्ट नहीं है कि ट्रांसपोर्ट सेक्टर की इकाइयों पर क्यों ज़ोर दिया जा रहा है? जबकि, निजीकरण की मुहिम का मास्टरमाइंड पीएमओ और नीति आयोग है, तो इसका मतलब यह हुआ कि ट्रांसपोर्ट सेक्टर दो गतिशील मंत्रियों नितिन गडकरी और पीयूष गोयल के हाथों में है. लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरे सेक्टरों की सरकारी इकाइयों के सामने प्रस्तुत कठिन विकल्पों पर खास ध्यान न दिया जाए- खासकर घाटे से त्रस्त दो टेलिकॉम विभागों के, जिन्हें पुनर्जीवित किए जाने की कोई उम्मीद नहीं दिखती, और उन सरकारी बैंकों के जिन्होंने पिछले पांच वर्षों में करदाताओं के 2 खरब डकार लिये.
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Modi harao
सराहनीय भारत को विकास ही विकास होगा