नोएडा: संदीप सूद ने 2017 में नोएडा सेक्टर-79 के गौर स्पोर्ट्सवुड में एक बड़े 3-बीएचके फ्लैट के लिए प्रीमियम दाम चुकाए. उन्हें वादा किया गया था कि बालकनी से गोल्फ कोर्स, क्रिकेट स्टेडियम और एरेनाज का शानदार नज़ारा मिलेगा—जो नोएडा की प्लान की गई स्पोर्ट्स सिटी का हिस्सा थे. आठ साल बाद, वह अपनी 11वीं मंज़िल की बालकनी में बैठकर एक उजड़ा हुआ मैदान और उसकी झाड़ियों को गिनते हैं.
सूद ने कहा, “विधायक, सांसद, हाउसिंग मिनिस्टर… सब यहां आए और समाधान का वादा किया, लेकिन चुनाव के बाद सब गायब हो जाते हैं.”
50 साल के यह बहुराष्ट्रीय कंपनी के एक्जीक्यूटिव नोएडा के सेक्टर 78, 79 और 150 में उन हजारों फ्लैट मालिकों में से हैं, जिन्होंने न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट अथॉरिटी (नोएडा) की उस योजना में निवेश किया था जिसमें एक वर्ल्ड-क्लास स्पोर्ट्स सिटी बननी थी. इस भव्य योजना में रेजिडेंशियल और कमर्शियल कॉम्प्लेक्स के साथ दो गोल्फ कोर्स, एक क्रिकेट स्टेडियम, ओलंपिक साइज का स्विमिंग पूल और एक वर्ल्ड-क्लास स्पोर्ट्स सेंटर शामिल था.
लेकिन यह सपना अब तकरीबन टूट चुका है. नोएडा को मानचित्र पर ऊपर लाने के बजाय, यह योजना अब शहर के 50 साल के इतिहास पर एक दाग बन गई है. इसके नाम पर अब केवल नोएडा अथॉरिटी का एक बोर्ड दिखता है, जो लोगों को ज़मीन पर न घुसने की चेतावनी देता है. और वे फैंसी अपार्टमेंट्स जिनके नाम हैं ‘स्टेडिया’, ‘स्पोर्ट्सवुड’, और ‘गोल्फ व्यू’.
798 एकड़ में फैली यह स्पोर्ट्स सिटी 9,000 करोड़ रुपये का घोटाला बन चुकी है, जिसमें एफआईआर, हाई कोर्ट केस और कैग रिपोर्टें शामिल हैं. यह योजना अब आपराधिक साजिश, जालसाजी और आपराधिक विश्वासघात जैसे आरोपों में सीबीआई जांच के घेरे में है. सीबीआई ने मार्च में दर्ज की गई एफआईआर में नोएडा अथॉरिटी के अधिकारियों और तीन बिल्डरों को नामजद किया है.

“एक स्पोर्ट्स सिटी नोएडा को कई महत्वपूर्ण फायदे दे सकती थी, जिससे उसकी अर्थव्यवस्था, बुनियादी ढांचे और समग्र छवि पर सकारात्मक असर पड़ता,” रियल एस्टेट सेवा फर्म CBRE के चेयरमैन और सीईओ- इंडिया, साउथ ईस्ट एशिया, मिडिल ईस्ट और अफ्रीका अंशुमन मैगजीन ने कहा. “यह केंद्र वैश्विक खेल ब्रांडों, अकादमियों और संबंधित कंपनियों को आकर्षित कर सकता था.”
स्पोर्ट्स सिटी को पहली बार प्रस्तावित हुए 20 साल हो चुके हैं, लेकिन अब तक पूरा नहीं हुआ है. घर खरीदार अपने फ्लैट रजिस्टर नहीं करवा पाए हैं और न ही वे रेज़िडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन बना सके हैं. इसके बजाय वे इलाहाबाद हाई कोर्ट में चल रहे ढेरों मुकदमों में उलझे हुए हैं. दिप्रिंट ने नोएडा अथॉरिटी के अधिकारियों से संपर्क किया, लेकिन उन्होंने यह कहकर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया कि मामला अदालत में विचाराधीन है.
नोएडा एक्सटेंशन फ्लैट ओनर्स एंड मेंबर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष और वकील अनु खान ने आरोप लगाया, “स्पोर्ट्स सिटी घोटाला बिल्डरों और अथॉरिटी अधिकारियों के गठजोड़ की कहानी है.”
“हजारों घर खरीदार इस योजना की वजह से परेशान हैं. यह परियोजना निवासियों और उनके बच्चों को विश्वस्तरीय सुविधाओं में प्रशिक्षण देने के लिए थी. सभी इस प्रोजेक्ट को लेकर उत्साहित थे, लेकिन 15 साल से ज्यादा बीतने के बाद भी कुछ नहीं हुआ.”
घर खरीदने वाले फंसे
इस घोटाले से करीब 32,000 घर खरीदार प्रभावित हुए हैं. निवासियों में से एक, जो अपना नाम नहीं बताना चाहते, ने सेक्टर 79 की सिविटेक सोसाइटी में फ्लैट इस उम्मीद में खरीदा था कि वे अपनी बेटी को किसी खेल कार्यक्रम में दाखिला दिला सकें. लेकिन अब वह सपना खत्म हो चुका है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “प्लॉट की कीमत आज 1.67 करोड़ रुपये है, लेकिन अगर मैं इसे बेचना चाहूं तो बिल्डर मुझसे भारी ट्रांसफर फीस वसूलेगा.”
कुछ फ्लैट मालिकों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट का रुख किया है और नोएडा अथॉरिटी को फ्लैट रजिस्टर करने के निर्देश देने की मांग की है. कोर्ट ने स्पोर्ट्स सिटी प्रोजेक्ट में फैली गड़बड़ी को “गंदा बिल्डर-अथॉरिटी गठजोड़” कहा है.
कुछ खरीदारों को अब तक अपने फ्लैट पर कब्जा नहीं मिल पाया है, जबकि अन्य लोग इन प्रोजेक्ट्स में वर्षों से रह रहे हैं—उनके स्टांप ड्यूटी पेपर्स अलमारियों में धूल खा रहे हैं.
गौर स्पोर्ट्सवुड के निवासी और वकील पंकज उपाध्याय ने कहा, “जब मैंने यह फ्लैट खरीदा, तब मैं गुरुग्राम में रह रहा था. हमें बताया गया था कि 70 प्रतिशत हिस्सा खेल क्षेत्र होगा, और हम इन्हीं उम्मीदों के साथ यहां आए थे. मैंने बहुत महंगे दाम पर फ्लैट खरीदा. मुझे लगता है मेरे साथ बहुत धोखा हुआ.”
यह एक ऐसा प्रोजेक्ट था जिसका कई निवासी, खासकर खेल प्रशिक्षक, बेसब्री से इंतजार कर रहे थे.
नोएडा सेक्टर 78 में ग्रासरूट्स क्रिकेट अकादमी चलाने वाले अभिषेक ध्यानी ने कहा, “नोएडा में अच्छे खेल ढांचे की कमी के कारण बच्चे दूर-दूर से प्रशिक्षण के लिए आते हैं. खेल के लिए कोई ज़मीन आवंटित नहीं की गई है, और यह प्रोजेक्ट शहर में खेलों को बढ़ावा देने के लिए बेहद अहम था.”
शहर में जो कुछेक अकादमियां हैं, वे बहुत महंगी हैं.
ध्यानी ने जोड़ा, “कई माता-पिता कहते हैं कि वे 3,000–4,000 रुपये महीना क्रिकेट कोचिंग के लिए नहीं दे सकते. अगर यहां एक सही खेल ढांचा होता, तो खेल कोचिंग ज्यादा सुलभ हो जाती.”

यह सब ग़लत कैसे हुआ?
नोएडा: साल 2004 में, जब शहर अपनी 25वीं सालगिरह मना रहा था, तब नोएडा प्राधिकरण ने राष्ट्रमंडल खेलों की मेज़बानी का फैसला किया. वे चाहते थे कि अगर भारत को 2020 ओलंपिक की मेज़बानी मिलती है, तो वे उसके लिए भी तैयार रहें.
लेकिन इस प्रोजेक्ट पर काम बहुत धीमी गति से हुआ. दिसंबर 2010 तक जाकर ही प्राधिकरण ने 11,500 रुपये प्रति वर्ग मीटर की आरक्षित कीमत तय की और बिल्डरों और डेवलपर्स से निविदाएं मंगाईं.
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की 2017 की एक रिपोर्ट यह बताती है कि यह प्रोजेक्ट कैसे असफल होने के लिए ही डिजाइन किया गया था, जिससे सरकारी खजाने को ₹9,000 करोड़ का नुकसान हुआ.
CAG के अनुसार, नोएडा प्राधिकरण को स्पोर्ट्स सिटी बनाने का कोई अधिकार नहीं था.
रिपोर्ट में कहा गया, “नोएडा का मूल उद्देश्य एक औद्योगिक नगर का विकास करना था. उत्तर प्रदेश औद्योगिक क्षेत्र विकास अधिनियम 1976 (UPIAD) के तहत खेल विकास उसकी जिम्मेदारी में शामिल नहीं है.”
स्पोर्ट्स सिटी परियोजना को 2011-12 और 2015-16 के बीच चार विकास योजनाओं में शुरू किया गया. 32,30,500 वर्ग मीटर भूमि के चार आवंटन स्वीकृत किए गए. सेक्टर 78, 79 और 150 में एक टेनिस सेंटर, 9-होल गोल्फ कोर्स, एक बहुउद्देश्यीय स्पोर्ट्स हॉल, एक क्रिकेट अकादमी और वरिष्ठ नागरिकों के लिए निवास सुविधा होनी थी. एक अन्य सेक्टर में अंतरराष्ट्रीय स्तर के क्रिकेट स्टेडियम के लिए 5 लाख वर्ग मीटर भूमि दी गई थी.
कैग रिपोर्ट के अनुसार, बोली के आधार पर तीन डेवलपर्स को भूमि सस्ती दरों पर आवंटित की गई. सेक्टर 78 और 79 में 32 लाख वर्ग मीटर से अधिक ज़मीन ज़ानाडू एस्टेट्स को दी गई. दो अन्य कंपनियां, लॉजिक्स इन्फ्रा और लोटस ग्रीन्स, को सेक्टर 150 में दो प्रोजेक्ट्स का विकास करना था. लॉजिक्स इन्फ्रा को सेक्टर 78 और 79 में खेल ढांचा तैयार करना था. एटीएस बिल्डर्स को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम बनाने की ज़िम्मेदारी दी गई थी.
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बाद में कहा कि जिन बिल्डरों को खेल शहर विकसित करने के लिए बोली में जीत मिली थी, उन्होंने कभी ज़रूरी खेल ढांचा बनाने का इरादा ही नहीं रखा था. यह परियोजना एक कंसोर्टियम के लिए थी, लेकिन दो प्रमुख बिल्डरों ने एक जाल बनाकर कंपनियों का समूह बनाया ताकि वे एक इकाई की तरह दिखें. नतीजतन, इस बड़े प्रोजेक्ट का भार दो कंपनियों पर पड़ गया, जो पर्दे के पीछे काम कर रही थीं. उन्होंने बाद में भूमि को अन्य बिल्डरों को उप-लीज पर दे दिया, कोर्ट ने कहा.
नोएडा प्राधिकरण के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “स्पोर्ट्स सिटी चार हिस्सों में बंटी थी और आवंटन तीन अलग-अलग समय (2011, 2013, 2015) में हुआ. बिल्डरों को अपने प्रोजेक्ट तीन साल में पूरे करने थे और स्पोर्ट्स सेंटर पर 410 रुपए करोड़ खर्च करने थे. लेकिन हुआ ये कि उन्होंने ज़मीन के टुकड़े कर दिए और खेल ढांचा कभी नहीं बनाया.”
स्पोर्ट्स सिटी की योजना बनाने के लिए ग्रांट थॉर्नटन नामक सलाहकार फर्म को जोड़ा गया था. फर्म ने शर्त रखी थी कि बोली में भाग लेने के लिए कंपनियों का न्यूनतम नेट वर्थ 100 करोड़ रुपए और पिछले तीन साल में 400 करोड़ रुपए का टर्नओवर होना चाहिए. लेकिन नोएडा प्राधिकरण ने इसे घटाकर 80 करोड़ रुपए नेट वर्थ और 200 करोड़ रुपए टर्नओवर कर दिया, कैग रिपोर्ट के अनुसार. प्राधिकरण ने दलील दी कि 2008 में जब प्रोजेक्ट की बोली लगी थी, तब किसी ने आवेदन नहीं किया था, इसलिए ये छूट दी गई. लेकिन कैग ने इसे ‘तर्कहीन’ बताया.
कैग रिपोर्ट में कहा गया, “यह स्पष्ट है कि नोएडा प्राधिकरण ने परियोजनाओं के पैमाने का समुचित आंकलन नहीं किया और ऐसी कंपनियों को ज़मीन दी जिनकी वित्तीय स्थिति कमज़ोर थी.”
रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि प्राधिकरण ने यह स्पष्ट नहीं किया कि किस तरह का खेल ढांचा विकसित किया जाना चाहिए. ना तो स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया से परामर्श लिया गया, ना किसी खेल महासंघ से। और जिन बिल्डरों को ज़िम्मेदारी दी गई, उनके पास इस क्षेत्र का कोई अनुभव भी नहीं था.
नोएडा के एक रियल एस्टेट डेवलपर ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “नोएडा में ऐसे ही चलता है, राम भरोसे। प्राधिकरण ने एसएआई या किसी विशेषज्ञ संस्था से सलाह क्यों नहीं ली, इसका जवाब तो उन्हें देना चाहिए.”
कैग की रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि डेवलपर्स की वित्तीय स्थिति इस परियोजना के लायक नहीं थी, फिर भी उन्हें लाभकारी शर्तों पर ज़मीन दी गई. होल्डिंग कंपनियों के ज़रिए, सहायक कंपनियों के खातों की राशि को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया ताकि वे स्पोर्ट्स सिटी की बोली जीत सकें.
रिपोर्ट में कहा गया, “स्पोर्ट्स सिटी के प्लॉट्स के आवंटन ऐसे आवेदकों को किए गए जो अनिवार्य तकनीकी मानदंड भी पूरे नहीं करते थे. उनके वित्तीय प्रस्तावों पर विचार ही नहीं किया जाना चाहिए था, फिर भी उन्हें ज़मीन दी गई. इस तरह, अंतरराष्ट्रीय स्तर के खेल ढांचे के लिए नियत ज़मीन को अयोग्य संस्थाओं को सौंप दिया गया.”

आवासीय परियोजनाएं आ रही हैं
स्पोर्ट्स सिटी प्रोजेक्ट के मूल सिद्धांतों में से एक यह था कि आवासीय और व्यावसायिक इमारतों को आवंटित ज़मीन के केवल 30 प्रतिशत हिस्से तक सीमित रखा जाएगा, जबकि बाकी ज़मीन पर खेल सुविधाएं बनाई जाएंगी.
लेकिन जिस साल बिल्डरों ने बोली जीत ली, उसी साल उन्होंने अधिग्रहित ज़मीन को अपनी ही पूर्ण स्वामित्व वाली कंपनियों को सब-लीज़ पर देना शुरू कर दिया.
इन पूर्ण स्वामित्व वाली कंपनियों ने आगे ज़मीन को सब-लीज़ पर दे दिया. सेक्टर 150 की ज़मीन को 12 कंपनियों में बांटा गया, जिनमें से 6 कंपनियां तो सब-लीज़ के समय मौजूद ही नहीं थीं. सेक्टर 78 और 79 को 23 हिस्सों में बांटा गया.
इस ज़मीन के सब-लीज़ में स्पोर्ट्स सिटी के लिए 70 प्रतिशत ज़मीन आरक्षित रखने की शर्त को नजरअंदाज कर दिया गया, ऐसा कैग ने कहा.
पहले ज़मीन को सहायक कंपनियों को स्थानांतरित किया गया और फिर अलग-अलग बिल्डरों को बेच दिया गया, और इस प्रक्रिया में नोएडा प्राधिकरण ने कोई ट्रांसफर शुल्क नहीं लगाया, जिससे सैकड़ों करोड़ का नुकसान हुआ.
जिन छह कंपनियों को ज़मीन दी गई थी, वे ज़मीन आवंटन के समय अस्तित्व में ही नहीं थीं. प्राधिकरण ने ज़मीन को अलग-अलग कंपनियों को ट्रांसफर करते समय और नक्शे मंज़ूर करते समय कोई ट्रांसफर शुल्क नहीं लिया. खेलों के लिए तय ज़मीन पर कब्ज़ा करके भी नोएडा से साइन लिए जा रहे थे, जबकि सरकारी खज़ाने को 290 करोड़ रुपये से ज़्यादा का नुकसान हो चुका था. ये सब बातें सीएजी रिपोर्ट में दर्ज हैं.
हालांकि, बिल्डरों में से एक गौरसन्स स्पोर्ट्सवुड ने दिप्रिंट से कहा कि उनकी ज़मीन आवंटन पूरी तरह वैध था.
कंपनी के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर मनोज गौर ने कहा, “मैंने 40,000 स्क्वायर फीट ज़मीन खरीदी थी और वहां विकास का काम पूरा कर चुका हूं. मैंने प्राधिकरण को सभी बकाया राशि भी चुका दी है. सभी नक्शे प्राधिकरण द्वारा पास किए गए थे, और आवंटन उनकी पूरी जानकारी में हुआ था.”
गौर ने अपने अपार्टमेंट्स के लिए कंप्लीशन सर्टिफिकेट पाने के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट का रुख किया था, लेकिन कोर्ट ने बिल्डर को आनुपातिक खेल सुविधाएं बनाने का निर्देश दिया है.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “हमने प्राधिकरण से कहा है कि हम आनुपातिक खेल सुविधाएं बनाने या उसके लिए जरूरी राशि देने को तैयार हैं.”
नोएडा में स्पोर्ट्स सिटी परियोजना रोकी गई
जब सीएजी रिपोर्ट में ज़मीन आवंटन में गड़बड़ियों और बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार का खुलासा हुआ, तो नोएडा प्राधिकरण ने 2021 में स्पोर्ट्स सिटी प्रोजेक्ट पर चल रहे सभी काम रोकने का फैसला लिया. प्राधिकरण ने इस परियोजना से जुड़ी समस्याओं की जांच के लिए एक कमेटी भी बनाई और मामला उत्तर प्रदेश सरकार को भेज दिया गया.
बिल्डरों ने अपने प्रोजेक्ट पूरे कर लिए और फ्लैट्स की पजेशन खरीदारों को दे दी, लेकिन नोएडा प्राधिकरण कंप्लीशन सर्टिफिकेट जारी करने में नाकाम रहा. इसके चलते बिल्डर खरीदारों को लीज डीड भी नहीं दे पाए. कई खरीदार ऐसे हैं जो लगभग एक दशक से अपने फ्लैट्स में रह रहे हैं, लेकिन अब तक आधिकारिक रूप से उनके मालिक नहीं बन पाए हैं.
एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले सूद फ्लैट रजिस्ट्रेशन में हो रही देरी से बेहद परेशान हैं.
“स्पोर्ट्स सिटी की जगह मुझे सिर्फ झाड़ियां देखने को मिल रही हैं,” उन्होंने शिकायत की. “जब ज़मीन का सब-लीज़ देना मंज़ूर कर दिया गया था, तब नक्शे क्यों पास किए गए? अगर उस समय निर्माण की अनुमति नहीं दी जाती, तो हम जैसे मासूम खरीदार अपनी मेहनत की कमाई बचा पाते. कंप्लीशन के वक्त एनओसी क्यों रोक दी गई?”
उत्तर प्रदेश विधानसभा की पब्लिक अकाउंट्स कमेटी की रिपोर्ट ने भी 2023 में नोएडा प्राधिकरण को स्पोर्ट्स सिटी पर काम फिर से शुरू करने का निर्देश दिया था, लेकिन कोई काम शुरू नहीं हुआ.
ज़मीन के आवंटन से लेकर स्पोर्ट्स सिटी बनाने में नाकामी तक, पूरा प्रोजेक्ट आरोप-प्रत्यारोपों के जाल में फंस चुका है, और इलाहाबाद हाई कोर्ट में लंबित याचिकाएं इसे और भी जटिल बना रही हैं.
अदालत में मामला
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 24 फरवरी को नोएडा की तीन स्पोर्ट्स सिटी परियोजनाओं से जुड़े 10 अलग-अलग मामलों में फैसले सुनाए. कोर्ट ने डेवलपर्स के खिलाफ सीबीआई और ईडी जांच का आदेश भी दिया.
बिल्डर और कंपनियों का समूह इलाहाबाद हाई कोर्ट पहुंचा था जब नोएडा प्राधिकरण ने उनसे बकाया राशि की मांग की. बिल्डरों का कहना था कि उन्हें पूरी जमीन नहीं सौंपी गई थी और आरोप लगाया कि प्राधिकरण ने ज़मीन को छोटी-छोटी कंपनियों में बांट दिया. लेकिन कोर्ट ने बिल्डरों के प्रति नरमी नहीं दिखाई.
कई कंपनियों ने दिवालिया होने की दलील देकर नोएडा प्राधिकरण को बकाया भुगतान नहीं किया. लेकिन ज़ानाडू डेवलपर्स और 8 अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले में हाई कोर्ट ने कहा कि यह दिवालियापन दिखावे के लिए किया गया था.
“यह दिवालियापन सिर्फ बकाया भुगतान, सिविल और आपराधिक ज़िम्मेदारियों से बचने और स्पोर्ट्स सिटी विकसित करने की जिम्मेदारी से भागने के लिए बनाया गया बहाना है. यह नोएडा प्राधिकरण, राज्य और अन्य हितधारकों के साथ किया गया एक धोखा है,” कोर्ट ने टिप्पणी की.
सेक्टर 150 में एटीएस बिल्डर्स नोएडा ने आरोप लगाया कि उन्हें 25 एकड़ ज़मीन कभी सौंपी ही नहीं गई, जिसकी वजह से वे प्रोजेक्ट पूरा नहीं कर पा रहे हैं.
इसी दौरान, नोएडा प्राधिकरण ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में दाखिल कई याचिकाओं पर जवाब देते हुए कहा कि वे होम बायर्स के हितों की देखरेख के लिए बाध्य नहीं हैं, क्योंकि खरीदार और प्राधिकरण के बीच कोई कानूनी अनुबंध नहीं है.
2023 में हाउसिंग और शहरी मामलों के मंत्रालय द्वारा गठित अमिताभ कांत समिति की सिफारिशें भी कोई मदद नहीं कर पाईं. समिति ने सुझाव दिया था कि घर की रजिस्ट्री को बिल्डरों के बकाए से अलग किया जाए और लंबे समय से कब्जे में रह रहे खरीदारों को डीड रजिस्ट्री की अनुमति दी जाए.
रजिस्ट्री न होने की वजह से खरीदार अपने अपार्टमेंट बेच नहीं सकते. बिल्डर ट्रांसफर फीस भी वसूलते हैं, जो मनमानी हो सकती है. वे अपनी सोसाइटी का संचालन खुद भी नहीं कर सकते क्योंकि रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (आरडब्लूए) बना ही नहीं सकते.
“हम बिल्डरों की रहम पर जी रहे हैं,” अपार्टमेंट मालिकों द्वारा बनाए गए अनौपचारिक समूह के प्रमुख विपुल अग्रवाल ने कहा. “हमने अपार्टमेंट ओनर्स एसोसिएशन बनाने की कोशिश की, लेकिन चूंकि सीबीआई और ईडी जांच चल रही है, इसलिए नई संस्थाएं रजिस्टर्ड नहीं हो सकतीं.”
अग्रवाल की सोसाइटी की बालकनी की प्लास्टर गिर रही है, सीलन दिख रही है, और पेंट उखड़ रहा है. लेकिन निवासी कहते हैं कि बिल्डर कोई जवाब नहीं दे रहा. वे नोएडा प्राधिकरण से भी मदद नहीं मांग सकते, क्योंकि उनके पास रजिस्टर्ड डीड नहीं है, इसलिए रिकॉर्ड में वे ‘मौजूद’ नहीं हैं.
रिटायर्ड केमिस्ट्री टीचर सुनील चंद्र अग्रवाल ने कहा, “इस बिल्डर, प्राधिकरण और सरकार की मिलीभगत में हम होमबायर्स कहीं नहीं आते.”
यह रिपोर्ट ‘Noida@50’ सीरीज का हिस्सा है.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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