जिन्हें हासिल करना अधिकतर लोगों को नामुमकिन लगता हो, ऐसे महत्वाकांक्षी लक्ष्य तय करके मोदी सरकार अपनी ज़िंदगी आसान तो नहीं ही बना सकती है. ये लक्ष्य हैं- जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में मैनुफैक्चरिंग का योगदान मौजूदा 17 प्रतिशत से 2022 में बढ़ाकर 25 प्रतिशत करना, किसानों की आमदनी भी 2022 तक बढ़ाकर दोगुनी करना और जीडीपी, जो पिछले साल 2.7 खरब डॉलर थी उसे 2025 तक बढ़ाकर 5 खरब डॉलर करना (यानी 4 फीसदी मुद्रास्फीति के बावजूद सालाना औसतन 8 प्रतिशत की वृद्धिदर हासिल करना). सरकार की महात्वाकांक्षा बेशक इस बात से बढ़ी है कि उसने कुछ दूसरे क्षेत्रों में भारी प्रगति की है, भले ही लक्ष्यों को हासिल न किया हो. जैसे- रसोई गैस की उपलब्धता, हाइवे निर्माण, अक्षय ऊर्जा, बैंकिंग के दायरे का विस्तार और खुले में शौच पर रोक आदि.
लेकिन निश्चित लक्ष्यों- मसलन शौचालयों के निर्माण (प्रयास और साधनों का समन्वय तथा समर्पित प्रोजेक्ट लीडरशिप के बूते बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है) के लक्ष्य को हासिल करना एक बात है और महत्वाकांक्षी वृहद आर्थिक लक्ष्यों को हासिल करना अलग बात है. इन लक्ष्यों के वास्ते निश्चित समयसीमा और सही नीतिगत ढांचे के अंतर्गत समन्वित सिलसिलेवार कार्रवाई के लिए थोड़ी ढीली व्यवस्था की जरूरत होती है. पहले मामले में तो सरकार का काम अच्छा है मगर दूसरे मामले में नहीं. निर्यात में वृद्धि को ही लें, जो पिछले पांच वर्षों में मात्र 5 प्रतिशत रही.
सवाल है कि अगले छह वर्षों में 100 प्रतिशत वृद्धि के लिए क्या परिवर्तन और प्रयास चाहिए, जबकि ग्लोबल ट्रेडिंग का माहौल खराब हुआ है? मोदी के पहले कार्यकाल में, जीडीपी में मैनुफैक्चरिंग का योगदान स्थिर रहा है (अगर जीडीपी के
आंकड़े में छेड़छाड़ को छोड़ दें). इसलिए अगले चंद वर्षों में इस योगदान में 50 फीसदी की वृद्धि की उम्मीद कैसे की जा सकती है? जहां तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बात है, सरकार के पास इसके लिए न तो नीति है और न वित्तीय साधन.
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कुछ अयथार्थपूर्ण लक्ष्य कुछ साल पहले तय किए गए थे, वे मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के शुरू के वर्षों में इस तरह की मूर्खतापूर्ण बातों के नमूने हैं कि जीडीपी वृद्धि दर जल्द ही दहाई अंक में पहुंच जाएगी. आज के अधिक यथार्थपरक मूड में अगरअरविंद सुब्रमण्यम द्वारा उठाए गए मसलों को परे भी कर दें और जीडीपी के सरकारी आंकड़े को मान लें तो साफ हो जाएगा कि पिछले दो वर्षों में वृद्धि दर औसतन 7 प्रतिशत ही रही है. ज़्यादातर अनुमान यही कहते हैं (कुछ उम्मीद के साथ) कि यही दर अगले साल भी बनी रहेगी. अगर 2024-25 तक 5 खरब डॉलर वाले लक्ष्य को गंभीरता से लिया जाए तो जीडीपी वृद्धि दर को औसतन 8.5 प्रतिशत पर लाना होगा, जो कि 2008 के वित्तीय संकट के
बाद कभी हासिल नहीं हुई. चुनौती मानने वाले लोग कह सकते हैं कि लक्ष्य हासिल करने में एक साल में हुई गिरावट से बहुत फर्क नहीं पड़ता. लेकिन जैसा कि पी. चिदंबरम कहते हैं, यह ‘मौजूदा वृद्धिदर का महज निर्धारण है.’
असली मुद्दा यह है कि सरकार की नीति किस दिशा में जा रही है. उदाहरण के लिए, संरक्षणवाद और टैरिफ नीति पर वह उस दिशा से एकदम उलटी दिशा में जा रही है, जो दिशा निर्यात के मामले को लेकर गठित उच्चस्तरीय सलाहकार समूह ने सुझाई है. श्रम कानून के कुछ मसलों को तय की गईं दो श्रम संहिताओं के जरिए निबटाया जा रहा है. अधिक उदार श्रम बाज़ार देने के प्रमुख मसले का आंशिक समाधान ही किया जा रहा है. ग्लोबल सप्लाई चेन से ज्यादा जुड़ाव के लिए कम ही प्रयास किया गया है.
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प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की संभारतंत्र सलाहकार कमिटी ने पिछले दिसंबर में जो रिपोर्ट दी थी उससे साफ है कि आगे की राह आसान नहीं है. रिपोर्ट में कहा गया है कि दूसरे देशों के निर्यातकों पर बुनियादी ढांचे और लागतों के मामले में जितने भार डाले जाते हैं. उनसे ज्यादा भार भारतीय निर्यातकों पर डाले जाते हैं. बंदरगाह के इंतजाम (जहाजरानी समेत) के एवज में ढुलाई वाले माल की कीमत के 7-8 प्रतिशत को अतिरिक्त लागत के तौर पर जोड़ दिया जाता है. यह काफी कष्टप्रद है. दूसरी लागतें- परिवहन, पूंजी, बिजली की भी ऊंची हैं. प्रक्रियाओं और कागजात के मामलों को सरल और सुगम बनाने की भी जरूरत है.
नई सरकार के ये शुरू के दिन हैं. 100 दिन के ऐक्शन प्लान की बातें तो की जा रही हैं और सबको पता है कि प्रधानमंत्री को ‘बिग बैंग’ वाले तरीके की जगह निरंतर वृद्धि वाला तरीका ज्यादा पसंद है. फिर भी, बड़े लक्ष्यों को अगर शर्मिंदगी की वजह नहीं बनने देना है, तो उनकी सरकार को अपने इरादों के प्रति ज्यादा गंभीरता दिखानी होगी.
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