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Wednesday, 20 November, 2024
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यूपी में ‘आएगा तो मोदी ही’ की गूंज के बीच अब…’आएगा तो गठबंधन ही’!

लोकसभा चुनाव अभी समाप्त नहीं हुए हैं, लेकिन उनके बाद की राजनीतिक संभावनाओं की तलाश शुरू हो गई है. यूपी में जनविश्वास की तरह प्रचारित ‘आएंगे तो मोदी ही’ वाला भाजपा का मुहावरा ‘आयेगा तो गठबंधन ही’ में बदल गया है.

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लोकसभा चुनाव अभी समाप्त नहीं हुए हैं, लेकिन उनके बाद की राजनीतिक संभावनाओं की तलाश शुरू हो गई है. इस क्रम में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में एक बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि शुरू में जनविश्वास की तरह प्रचारित ‘आएगा तो मोदी ही’ वाला भाजपा का मुहावरा ‘आयेगा तो गठबंधन ही’ में बदल गया है. अलबत्ता, यह जनविश्वास बसपा-सपा व रालोद के गठबंधन को लेकर नहीं है.

दरअसल, जब से वरिष्ठ कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल और भाजपा महासचिव राम माधव ने अलग-अलग साक्षात्कारों में माना है कि उनकी पार्टियों को अकेले अपने दम पर बहुमत मिलने वाला नहीं है. जानकार लोगों ने मान लिया है कि किसी एक पार्टी के बहुमत वाली सरकारों का 1989 में खत्म हो चुका जो दौर 2014 में नरेन्द्र मोदी के महानायकत्व के बूते लौट आया था, उसकी कुल उम्र पांच वर्ष ही थी और 23 मई को नतीजे आने के बाद जो भी नई सरकार बनेगी, किसी न किसी गठबंधन की ही होगी.

ये पंक्तियां लिखने तक राम माधव ने ‘भूल सुधार’ करते हुए भाजपा को अकेले दम पर बहुमत मिल सकने की बात भी कह दी है, लेकिन उनके पहले के साक्षात्कार में कही गई बात इतनी दूर तक चली गई है कि भूल सुधार को कोई कान नहीं दे रहा.


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बहरहाल, अभी चुनाव बाद के गठबंधनों को लेकर कुल तीन संभावनाएं जताई जा रही हैं. पहली यह कि भाजपा अकेले दम पर न सही, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बैनर पर बहुमत प्राप्त कर ले. ऐसा हुआ तो नरेन्द्र मोदी, नितिन गडकरी या किसी अन्य नेता के नेतृत्व में देश की सत्ता में उसकी सबसे बड़ी हिस्सेदारी बनी रहेगी. यहां नेता यानी प्रधानमंत्री बदलने की बात इस समझदारी के तहत कही जा रही है कि भाजपा में भी कई लोगों को लगता है कि मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान विभिन्न विरोधी दलों पर ‘क्रूर’ या निजी हमले करके इतनी तल्खियां पैदा कर डाली हैं कि उनके नाम पर ‘नये सहयोगियों के समर्थन’ की तलाश मुश्किल मानी जा रही है.

दूसरी संभावना यह है कि कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) जैसे-तैसे बहुमत जुटा ले और भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद नई सरकार बनाने का दावा पेश करे. लेकिन इस संभावना की राह में एक बड़ा अड़ंगा है. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ऐसे किसी दावे को शायद ही स्वीकार करें.

निश्चित ही भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने पर पहले उसको ही न्यौता देंगे. भाजपा ने उनका न्यौता स्वीकार कर सरकार बना ली और बहुमत सिद्ध करने का मौका प्राप्त कर लिया तो लोकसभा में उसके विश्वास मत प्रस्ताव को गिराने के बाद ही कांग्रेस समर्थित संप्रग की गठबंधन सरकार अस्तित्व में आ सकेगी. यह भी हो सकता है कि बहुमत सिद्ध करने के लिए मिले समय के दौरान भाजपा बाजी पलटने में कामयाब हो जाये.

तीसरी संभावना पर विचार करें तो ज्यादातर क्षेत्रीय दल मिलकर कोई नया मोर्चा बना सकते हैं और भाजपा या कांग्रेस से उसे अन्दर या बाहर से समर्थन देने की मांग कर सकते हैं. ऐसे में देखने की बात यह होगी कि उसकी इस मांग को भाजपा पहले लपकती है या कांग्रेस. तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता के. चन्द्रशेखर राव ने इसके लिए अभी से कवायदें आरंभ कर दी हैं.

कहते हैं कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से बात करके उन्होंने यह सुनिश्चित करने में मदद देने को कहा है कि तीसरे मोर्चे में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों की बहुतायत के कारण महत्वाकांक्षाओं का कोई संघर्ष इसके आड़े न आये.

इधर उत्तर प्रदेश में मायावती अभी से अपना प्रधानमंत्री बनना सुनिश्चित करने में लग गई दिखती हैं. इस क्रम में उन्होंने अमेठी व रायबरेली में मतदान से 24 घंटे पहले कांग्रेस के प्रति सारी कटुता भुलाते हुए अपने गठबंधन का एक-एक वोट राहुल व सोनिया को देने की अपील कर डाली. उनकी इस ‘सदाशयता’ को इस रूप में लिया जा रहा है कि वे चाहती हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री बनने के लिए समर्थन की जरूरत पड़े तो कांग्रेस उसे पूरी करने में हिचके नहीं.


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उनके गठबंधन सहयोगी सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव भी उनका नाम आगे करने में लगे हैं. वे कह रहे हैं कि देश का अगला प्रधानमंत्री ‘यूपी से’ नहीं ‘यूपी का’ होना चाहिए, साथ ही किसी राष्ट्रीय दल का नहीं, क्षेत्रीय दल का. इसका मतलब आसानी से समझा जा सकता है.

दूसरी ओर कई सयाने भाजपाइयों को ‘उम्मीद’ है कि ‘फिर मोदी सरकार’ के लिए कुछ सीटें कम हुईं तो विपक्षी अरमानों को धता बताकर मायावती उसकी तारनहार भी हो सकती हैं. वे पहले भी भाजपा से ऐसी ‘सौदेबाजियां’ कर चुकी हैं. लेकिन कुद हलकों में इसका खंडन करते हुए यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि क्या भाजपा मायावती या बसपा का समर्थन पाने के लिए छह-छह महीने के प्रधानमंत्रियों वाला कोई प्रयोग करेगी? ज्ञातव्य है कि एक समय उसने उत्तर प्रदेश में छह-छह महीने के मुख्यमंत्रियों वाला अद्भुत प्रयोग किया था, जो चला नहीं और अकाल मौत का शिकार हो गया था.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं)

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