scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होमराजनीतिपिछले 50 सालों में पहले दलित अध्यक्ष के रूप में क्या खड़गे कांग्रेस के भाग्य को बदल पाएंगे

पिछले 50 सालों में पहले दलित अध्यक्ष के रूप में क्या खड़गे कांग्रेस के भाग्य को बदल पाएंगे

भले ही खड़गे अपनी जातिगत पहचान को भुनाने के लिए कभी आगे नहीं आए हों. लेकिन पार्टी के भीतर उनकी पदोन्नति ऐसे समय में हुई है जब भारत में दलित राजनीति के लिए जगह बनती नजर आ रही है.

Text Size:

नई दिल्ली: कांग्रेस के अध्यक्ष पद चुनाव को लेकर मल्लिकार्जुन खड़गे के पार्टी के साथ 55 साल के जुड़ाव पर काफी कुछ कहा गया. लेकिन एक तथ्य जिस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया, वह यह है कि पार्टी के 137 साल के इतिहास में खड़गे उस पद को संभालने वाले केवल तीसरे दलित हैं.

पार्टी के अंदरूनी सूत्रों ने बताया कि खड़गे कभी इस पहचान के साथ आगे आने के लिए उत्सुक नहीं रहे हैं. उन्होंने कई बातचीतों में कहा है कि अपने लंबे राजनीतिक जीवन में उन्होंने जो हासिल किया वह ‘योग्यता के आधार पर किया, न कि जातिगत पहचान के आधार पर’. उन्होंने कहा कि ‘इंदिरा गांधी ने मुझे ब्लॉक अध्यक्ष बनाया था’.

हालांकि इस सबके बावजूद इस तथ्य से इंकार नहीं किया सकता कि जिस पार्टी को कभी गरीबों और पिछड़ों के लिए स्वाभाविक पसंद के रूप में देखा जाता था, उसके संगठनात्मक शीर्ष पर उनके अलावा अनुसूचित जातियों के सिर्फ दो अन्य पुरुष विराजमान रहे हैं.

कांग्रेस अध्यक्ष बनने वाले पहले दलित आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दामोदरम संजीवय्या थे, जिन्होंने दो बार पद संभाला था. 1969 में कांग्रेस के बंटवारे के बाद जगजीवन राम इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले गुट कांग्रेस (आर) के अध्यक्ष बने थे.

संयोग से खड़गे संजीवय्या को राजनीति में आने की अपनी प्रेरणाओं में से एक मानते हैं.

सही मायने में पार्टी की पहली ‘पसंद’ राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बाहर होने के बाद खड़गे अध्यक्ष पद की दौड़ में आखिरी समय में शामिल हुए थे. जब गहलोत को राजस्थान में एक बगावत के बाद अपना नाम वापिस लेना पड़ा तो पार्टी को काफी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी थी. दरअसल इस साल की शुरुआत में उदयपुर में ‘एक व्यक्ति , एक पद’ मानदंड का पालन करने की घोषणा की गई थी. गहलोत के चुनाव लड़ने के ऐलान के बाद राजस्थान में मुख्यमंत्री बदलने को लेकर चर्चा शुरू हो गई और फिर उनके समर्थन में उतरे कुछ विधायकों ने बगावत कर दी थी.

तभी खड़गे नेतृत्व की ‘पसंद’ के रूप में आए. हालांकि आधिकारिक स्थिति यह है कि गांधी परिवार ने इस मुकाबले में किसी का पक्ष नहीं लिया है. खड़गे खुद को पीसीसी (प्रदेश कांग्रेस कमेटी) के प्रतिनिधियों द्वारा खड़ा किए गए उम्मीदवार के रूप में सामने आए हैं.

पूर्व राज्यसभा सांसद और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष पी.एल. पुनिया ने कहा,  ‘यह (खड़गे का चुनाव) पार्टी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. यह ऐसे समय में आया है जब राहुल गांधी अपनी एकता के संदेश के साथ अपनी भारत जोड़ो यात्रा पर देश की यात्रा कर रहे हैं और दूसरी ओर हमें एक ऐसा कांग्रेस अध्यक्ष मिल रहा है जो खुद एक वंचित जाति से हैं. इससे दलित, पिछड़े और गरीब एक बार फिर पार्टी से जुड़ेंगे. राजनीतिक रूप से हम इस कदम का फायदा उठा सकते हैं.’

हालांकि पार्टी के भीतर एक वैकल्पिक नजरिया भी है कि उसके नए अध्यक्ष की जातिगत पहचान को रेखांकित करने के प्रयास किए जाने चाहिए या नहीं.

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘भारत एक युवा देश है और हमारी औसत उम्र 25 साल है. युवाओं की एक खास बात यह है कि उनमें आकांक्षाएं होती हैं. वे जीवन में कुछ हासिल करना चाहते हैं और वे इसे अपने दम पर करना चाहते हैं, न कि उस जाति के कारण जिसमें वे पैदा हुए हैं. हमें उन आकांक्षाओं को समझना चाहिए और उनका सम्मान करना चाहिए. बजाय इसके कि वे राजनीति करने के प्रलोभन में पड़ें, जैसा कि परंपरागत रूप से किया जाता रहा है.’


यह भी पढ़ें: अब ‘वंशवाद’ का मुद्दा खत्म होने के बाद खड़गे की कांग्रेस पर निशाना साधने के लिए क्या है BJP की रणनीति


वह व्यक्ति जो कभी सीएम नहीं बन पाया

खड़गे 1996 और 2008 में कर्नाटक विधानसभा में दो बार विपक्ष के नेता रहे हैं. वह दो बार मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में भी थे. पहली बार 1999 में, जब उनकी बजाय एस.एम. कृष्णा को ये जिम्मेदारी सौंप दी गई और दूसरी बार 2004 में, जब पार्टी ने धर्म सिंह के साथ जाने का फैसला किया.

उनके सहयोगियों ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष पद चुनाव प्रचार के दौरान कई बार खड़गे ने मजाक में कहा था, ‘मैं तो मुख्यमंत्री बनना चाहता था. लेकिन वे मुझे कांग्रेस अध्यक्ष बना रहे हैं.

खड़गे कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री देवराज के सानिध्य में आगे बढ़े थे. उनके मंत्रिमंडल में वे 1976 में पहली बार जूनियर मंत्री बने. बाद में वे राज्य मंत्री और केंद्रीय कैबिनेट मंत्री बने, लेकिन कभी मुख्यमंत्री नहीं बन पाए.

यह राजनीतिक इतिहास का एक पहलू है, जिसके बारे में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के नवनिर्वाचित महासचिव और पूर्व राज्यसभा सांसद डी. राजा भी दलितों के साथ कांग्रेस पार्टी के संबंधों के बारे में जिक्र करते हुए करते हैं. लेकिन दूसरा तथ्य यह भी है कि जगजीवन राम कभी भी प्रधानमंत्री नहीं बने, भले ही उन्होंने उप प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया हो.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘वे (कांग्रेस) अध्यक्ष के रूप में किसे चुनते हैं, यह उनका विशेषाधिकार है. लेकिन भारतीय समाज में तीन बुनियादी मुद्दे हैं: वर्ग, जाति और पितृसत्ता. जैसा कि अम्बेडकर ने कहा था, आप जहां भी जाते हैं, जाति एक ऐसा राक्षस है जो आपके रास्ते में आड़े आ जाता है. ऐसे में खड़गे का चुनाव निश्चित तौर पर एक संदेश देगा. कांग्रेस पार्टी द्वारा इसका इस्तेमाल करने के लिए एक सचेत प्रयास किया सकता है.’

कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए अपना नामांकन दाखिल करने के तुरंत बाद खड़गे ने ‘एक व्यक्ति, एक पद’ नियम के अनुरूप राज्यसभा में विपक्ष के नेता के पद से अपना इस्तीफा दे दिया था.

एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘पिछले आठ सालों में या उसके बाद से जब से भाजपा सरकार सत्ता में आई है, दलित अलग-थलग और लक्षित महसूस कर रहे हैं. यह (चुनाव) उन्हें नैतिक शक्ति, एक आवाज देगा और कांग्रेस को वोट वापस हासिल करने में कुछ मदद भी दिला सकता है, जब पार्टी देश भर में क्षेत्रीय दलों से हार रही है.’

राजनीति में दलितों के लिए जगह

बहुजन समाज पार्टी की राजनीतिक शक्ति क्षीण होने– मौजूदा लोकसभा में इसके सिर्फ 10 सांसद हैं – और सुप्रीमो मायावती की कम होती पहुंच के साथ, कई लोगों को लगता है कि दलित राजनीति में मुख्यधारा की पार्टी के लिए जगह बनी है और खड़गे का आगे लाना कांग्रेस को सही प्रोफ़ाइल दे सकता है.

दलित आधार वाली छोटी पार्टियों जैसे चंद्रशेखर आज़ाद की भीम आर्मी या प्रकाश अंबेडकर की भारिपा बहुजन महासंघ के पास सीमित और स्थानीय आधार हैं. भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पारंपरिक रूप से यह स्टैंड लिया हुआ है कि जाति कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे राजनीतिक प्रवचन में उजागर करने की जरूरत है. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जाति व्यवस्था को त्यागने का आह्वान किया.

हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक सुधा पई बताती हैं कि अध्यक्ष पद के चुनाव से पहले कांग्रेस या खड़गे ने खुद अपने सबसे प्रमुख दावेदार की दलित पहचान को उजागर करने का कोई प्रयास नहीं किया है.

पई ने दिप्रिंट से कहा, ‘इसका ज्यादा उल्लेख नहीं किया गया है. मुझे नहीं लगता कि कोई इसे बहुत महत्व दे रहा है. खड़गे उनके अपने ही आदमी हैं. वह मंत्री रहे हैं, विपक्ष के नेता रहे हैं. पार्टी में उनकी एक जगह है, कर्नाटक का एक कद्दावार नेता जिसका सभी सम्मान करते हैं. अगर कांग्रेस किसी प्वाईंट पर इसे आगे लेकर आना चाहती है, तो इससे उन्हें कुछ फायदा हो सकता है. लेकिन यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि अध्यक्ष बनने के बाद खड़गे इसके साथ कैसे खेलना चाहते हैं. मुझे लगता है कि अभी हमें इंतजार करना होगा और देखना होगा.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: खड़गे के अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभालते ही शशि थरूर ने कहा, ‘कांग्रेस का पुनरुद्धार शुरू हुआ’


share & View comments