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Wednesday, 20 November, 2024
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योगी ने वनटांगिया लोगों को दिया नया स्टेटस, अब सब कुछ अटक गया है क्योंकि उन्हें सड़क भी चाहिए

कानून जंगल में रहने वालों को सड़क पाने का अधिकार देता है. लेकिन घने जंगलों में से रोड बनाना काफी चुनौतीपूर्ण है.

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महाराजगंज/गोरखपुर: उत्तर प्रदेश के सोहागी बरवा वन्यजीव अभयारण्य स्थित वनटांगिया बस्तियों के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ किसी ‘मसीहा’ से कम नहीं हैं. उन्होंने वह प्रक्रिया आगे बढ़ाई है जो मायावती सरकार के समय भूमि जोत या पट्टे बांटने के साथ शुरू हुई थी. राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, उन्होंने बाघ अभयारण्य के निर्जन और दूरदराज के इलाकों में बसी करीब 42 आदिवासी बस्तियों को ‘राजस्व गांव’ के तौर पर आसपास के गांवों के जोड़ दिया है.

Villagers forced to wade through a channel flowing by the Usarhawa village of Sohagi Barwa Sanctuary area in Maharajganj district. The only wooden bridge that linked the village with the Maharajganj city collapsed last year during rainfall
महाराजगंज जिले के सोहागी बरवा सेंक्चुरी एरिया में गांव वालों को पानी में से हो के जाना पड़ता है. एकमात्र पुल जो कि महाराजगंज शहर को गांव से जोड़ता था वह पिछले साल टूट गया था । शिखा सलारिया

महाराजगंज जिले में इन समुदायों को मिली नई पहचान उन्हें मुख्यधारा में लाने का ही एक तरीका साबित हुई है. योगी ने आदिवासी समुदायों को घर, सोलर पैनल, आंगनवाड़ी केंद्र और स्कूल जैसी सुविधाओं से रू-ब-रू कराया. उन्होंने पहले अप्रैल 2021 के पंचायत चुनाव में और फिर इस साल के शुरू में यूपी विधानसभा चुनाव में पहली बार मतदान किया.

बहरहाल, अब डेवलपमेंट की ट्रेडमिल पर आ जाने के बाद वे खुद को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने वाले अन्य प्रतीक भी जल्द से जल्द चाहते हैं. इससे आदिवासी लोगों के अधिकारों और वन संरक्षण के बीच एक अजब तरह का विरोधाभास उत्पन्न हो रहा है.

2006 में यूपीए सरकार के दौरान ऐतिहासिक वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) लागू होने के बाद से पूरे भारत में इसी तरह का नीतिगत और राजनीतिक तनाव चल रहा है. कानून वनवासियों को सड़क का अधिकार देता है. लेकिन घने जंगल से होकर गुजरने वाली सड़क बनाना निश्चित तौर पर एक कठिन निर्णय होगा.

सोहागी बरवा वन्यजीव अभयारण्य के फॉरेस्ट विलेजेस में लगभग 1.5 लाख लोग रहते हैं. संरक्षित वन क्षेत्र के अंदर बसे पांच अन्य गांवों की तरह, हथियावा में भी पक्की सड़क नहीं है. 45 वर्षीय जितेंद्र साहनी कहते हैं, ‘गर्भवती महिलाओं को डिलीवरी के लिए निकटतम चौक क्षेत्र (जहां स्वास्थ्य सुविधा केंद्र है) तक खाट पर ले जाना पड़ता है, जो यहां से लगभग 12 किलोमीटर दूर है. करीब दो किलोमीटर दूर पड़ोस के बलुहैया गांव में बच्चों के स्कूल तक जाने के लिए पक्की सड़क नहीं है. सरकार ने हथियावा गांव में स्कूल तो बनवा दिया है लेकिन अभी शिक्षक की नियुक्ति नहीं हुई है.

साहनी के पूर्वजों के लिए 1900 के दशक तक वनटांगियां बस्तियां ही उनका घर थी. उसी समय अंग्रेजों ने उन्हें पेड़ लगाने और उनकी देखभाल करने के लिए गोरखपुर जैसे आसपास के इलाकों से बसने को कहा था.


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बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष

सिर्फ हथियावा ही नहीं, बल्कि सोहागी बरवा अभयारण्य के पास बाहर की तरफ स्थित अन्य गांव भी सड़क की मांग कर रहे हैं. उसरहवा गांव को महाराजगंज शहर से जोड़ने वाला इकलौता पुल पिछले साल मानसून की बारिश में बह गया था.

गांव कोटेदार के पति रामानंद ने कहा, ‘हमें महाराजगंज शहर तक पहुंचने के लिए जंगल से होते हुए 14 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता है.’ पुल बने रहने तक यह शहर से केवल आधी दूरी पर था. अब, हालात बदतर हो चुके हैं और पुरुष-महिलाएं किसी तरह अपने कपड़े समेटकर टूटे पुल वाले इस नाले को पार करते हैं.

किसी आपात स्थिति में ग्रामीण अलग-थलग पड़ जाते हैं. उसरहवा गांव की 35 वर्षीय कमलावती कहती हैं, ‘कोई एम्बुलेंस हमारे यहां तक नहीं आ सकती. यह कटेहरा गांव के पास आकर रुकती है, जो यहां से करीब एक किलोमीटर दूर है. बरसात के मौसम में स्थिति और खराब हो जाती है.’ यहां शिक्षा की स्थिति भी खराब है. उन्होंने बताया, ‘स्कूल में नियुक्त एकमात्र टीचर स्वतंत्रता दिवस पर झंडा फहराने तक नहीं पहुंचे.’

The govt primary school that has come up in Hathiyahwa village of Maharajganj. It is yet to be operational. | Shikha Salaria
महाराजगंज के हथियावा गांव में सरकारी प्राइमरी स्कूल. अभी यह चालू नहीं हुआ है । शिखा सलारिया

ग्रामीणों और स्थानीय विधायक जयमंगल कनौजिया की तरफ से दबाव के बाद लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) ने सड़क निर्माण का एस्टीमेट तैयार कर लिया है. इसने राज्य के वन विभाग को भी एक अनुरोध भेजा है.

लेकिन किसी अभयारण्य की अंदर के इलाकों में पक्की सड़क के निर्माण के लिए केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से पर्यावरण मंजूरी लेने की जरूरत होती है. और यह व्यर्थ की ही कवायद हो सकती है क्योंकि मंजूरी मिलना आसान नहीं है. यहां तक कि पीडब्ल्यूडी के अधिकारी भी इसे लेकर बहुत आशावादी नहीं हैं.

पीडब्ल्यूडी के एक अधिकारी का कहना है, ‘पहले भी, हमें ऐसे मामलों में अनुमति देने से इनकार किया जा चुका है. प्रस्ताव केंद्रीय वन मंत्रालय को भेजा जाएगा, और मामले की मेरिट तय करने में समय लगेगा.’

महाराजगंज विधायक जयमंगल कनौजिया स्वीकारते हैं कि पांच वनटांगियां गांवों में से दो हथियावा और बलुहैया के निवासियों को ‘अत्यंत दयनीय’ स्थितियों में गुजारा करना पड़ रहा है.

उन्होंने कहा, ‘बारिश के चार महीनों के दौरान वे अपने आसपास के क्षेत्र से कटे जाते हैं. इन गांवों को मेरी ओर से दो नावें उपलब्ध कराई गई हैं. उन्हें संपर्क मार्गों की जरूरत है, लेकिन मुश्किल यह है कि बहुत अधिक निर्माण गतिविधियों से वन्यजीवों को नुकसान पहुंच सकता है क्योंकि ये गांव अभयारण्य के बीच बसे हुए हैं.’

मुख्यमंत्री अगले कुछ दिनों में वन विभाग और अन्य हितधारकों के साथ बैठक कर सकते हैं. कनौजिया का प्रस्ताव है कि संरक्षित वन क्षेत्र के बाहर ग्रामीणों को खेती के लिए जमीन और घर मुहैया कराए जाएं. उन्होंने कहा, ‘यह वन्यजीवों के संरक्षण और ग्रामीणों की सुविधा दोनों के ही लिहाज से बेहतर होगा.’

अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 ग्रामीणों को सड़क के अधिकार की गारंटी देता है. केंद्र सरकार पक्की सड़क के लिए प्रति हेक्टेयर 75 पेड़ से कम पेड़ों वाली वन भूमि के डायवर्जन की अनुमति दे सकती है. लेकिन संरक्षित वन क्षेत्रों और उनसे सटे इलाकों में कोई भी निर्माण गतिविधि तभी चल सकती है जब सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों और वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत निर्धारित वन सलाहकार समिति इसकी स्वीकृति दे. अधिनियम के तहत खासकर बाघों के आवासों को अधिसूचित क्षेत्रों के तौर पर देखा जाता है.

डीएम सतेंद्र कुमार कहते हैं, ‘चूंकि वन संरक्षण अधिनियम और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम दोनों ही लागू हैं, पक्की सड़कों को बनाने की लंबी प्रक्रिया के कारण वन्यजीवों को मुश्किल होने की बात से इंकार नहीं किया जा सकता. हाल में बाघ और तेंदुओं का नजर आना घटने की सूचना मिली है.’


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शिकार बढ़ने की आशंका

वन अधिकारियों और पर्यावरणविदों को डर है कि सड़कें बनने का वन्यजीवों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है. लोगों की जरूरतों को लेकर जितनी ज्यादा आकांक्षाएं हैं, उतनी ही जंगलों और वन्य जीवों की रक्षा भी दांव पर लगी हुई है.

आशंका है कि कोई सड़क बनने से अभयारण्य में सक्रिय शिकारियों के लिए वन्यजीवों को निशाना बनाने के लिए वहां तक पहुंचना और आसान हो जाएगा. स्थानीय एक्टिविस्ट फिरोज कुमार भारती बताते हैं कि महाराजगंज के व क्षेत्र में अवैध शिकार की घटनाएं पहले भी सामने आ चुकी हैं.

दिसंबर 2021 में वन अधिकारियों ने कुख्यात शिकारी दीपू सिंह और उसके गिरोह के सात सदस्यों को पांच किलोग्राम चीतल हिरण के मांस के साथ पकड़ा था. डीएफओ पुष्प कुमार बताते हैं, हमें गुप्त सूचना मिली थी कि शिकारी अभयारण्य के साउथ चौक रेंज में हैं.’ वन अधिकारियों ने मांस के अलावा खून से सनी एक कुल्हाड़ी और एक जिंदा कारतूस भी बरामद किया था.

जुलाई 2021 में पकड़े गए एक व्यक्ति, जिसकी पहचान बाद में राम बचन के रूप में हुई, को अभयारण्य में निकलौल वन रेंज के दक्षिण बीट क्षेत्र में पांच मृत चमगादड़ों के साथ गिरफ्तार किया गया था.

तेंदुओं और प्रवासी बाघों का अभयारण्य

सोहागी बरवा अभयारण्य 61 तेंदुओं का घर है, लेकिन आज कोई बाघ नहीं हैं जो इसे अपना घर कह सके. 2018 बाघों की जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि यहां केवल प्रवासी बाघ देखे गए हैं. हालांकि, इससे अभयारण्य की अहमियत घट नहीं जाती है. वन्यजीव प्रेमियों का कहना है कि हालात ठीक रहे तो बाघ लौट आएंगे.

अभयारण्य में यूपी में दुधवा टाइगर रिजर्व और बिहार के वाल्मीकि टाइगर रिजर्व को कवर करने वाले वन क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा है. यह पैच नेपाल के शिवालिक जंगलों से भी जुड़ा है.

बाघों और शिकारियों पर राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनसीटीए) की 2008 की एक रिपोर्ट ‘स्टेटस ऑफ टाइगर्स, को-प्रिडेटर्स एंड प्रे इन इंडिया’ कहती है कि नेपाल में सोर्स पॉपुलेशन और कनेक्टिविटी समेत समग्र परिदृश्य में कोई इंतजाम किए बिना भारत में दुधवा, सोहागी बरवा और वाल्मीकि हैबिटेट में स्थितियां बहुत ज्यादा बदलने वाली नहीं है. इस ‘समग्र’ दृष्टिकोण में नेपाल की आबादी शामिल है, जिसके लिए ‘अंतरराष्ट्रीय सहयोग और प्रतिबद्धता’ की जरूरत होगी.

सोहागी बरवा वन्यजीव अभयारण्य चूंकि वाल्मीकि टाइगर रिजर्व और नेपाल स्थित रॉयल चितवन राष्ट्रीय उद्यान से जुड़ा है, इसलिए इसे एक महत्वपूर्ण पक्षी क्षेत्र (आईबीए) भी कहा जाता है. बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी और यूपी के प्रधान मुख्य वन संरक्षक और पक्षी विज्ञानी रजत भार्गव का 2016 का एक अध्ययन बताता है कि अभयारण्य ‘संरक्षण के लिहाज से एक अहम क्षेत्र’ है. इसमें कहा गया है, ‘बाघ के पगचिन्ह अभयारण्य में बाघों के पुनर्वास की क्षमता को दर्शाते हैं जो मौजूदा समय में इस क्षेत्र में आसानी से नजर नहीं आते हैं.’

भार्गव कहते हैं कि अभयारण्य में कई जगहों पर तराई घास के मैदान हैं, जिनके संरक्षण की जरूरत है. क्योंकि ये बिहार में सुहैलदेव और कतर्नियाघाट वन्यजीव अभयारण्यों से लेकर वाल्मीकि टाइगर रिजर्व तक फैले हैं. उनका कहना है, ‘अगर इस क्षेत्र में आवास के अनुकूल स्थितियां उपलब्ध कराई जाएं तो बाघ समेत तमाम पशु-पक्षियों की एक अदृश्य आबादी बाहर आने लगेगी. यह एक सुंदर और विविधता भरा क्षेत्र है जो पिन स्ट्राइप्ड टिट-बैबलर, एडजुटेंट स्टॉर्क, सारस क्रेन, और घास के मैदान में रहने वाले कई पक्षियों के अनुकूल है. ऐसे तमाम पक्षी अभयारण्य की परिधि में पाए गए हैं.’

हालांकि, इस क्षेत्र में फलने-फूलने वाले वन्य जीवों पर अधिक विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता है, भार्गव तराई घास के मैदानों के संरक्षण के महत्व पर अधिक जोर देते हैं. उनका कहना है कि आवास के लिए अनुकूल स्थितियां होने पर बाघ यहां आना शुरू कर देंगे.

लेकिन यह बात तो जगजाहिर है कि सदियों से जारी मानव-पशु संघर्ष में भूमि एक सीमित संसाधन है.

Womenfolk in Usarhawa village of Maharajganj district. | Shikha Salaria
जिले के उसरहवा गांव में महिलाएं । शिखा सलारिया

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ग्रामीणों ने अधिक भूमि जोत की मांग की

वन गांवों में 1986 के आंकड़ों के आधार पर परिवार के सदस्यों की संख्या के लिहाज से पट्टा (भूमि जोत) वितरण 2011 में हुआ था जब मायावती आधार पर मुख्यमंत्री थीं. फिर परिवार तो बढ़े, लेकिन उनकी जमीन नहीं बढ़ी. ऐसे में बस एक पट्टा नाकाफी था.

मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत घर पाने वाले हथियावा गांव के लल्लू राम कहते हैं, ‘’मेरे दो बेटे हैं और उनके लिए खेत चाहिए. जब पट्टे बांटे गए, तो यह केवल 210 परिवारों को ही घर मिले थे.’

अधिक जमीन की उनकी मांग गांवों में आम बात है. सैकड़ों ग्रामीण मांग कर रहे हैं कि उन्हें दी गई जोत को कंसॉलिडेट किया जाए, जिसे आम बोलचाल में चकबंदी कहा जाता है.

वन्यजीव संरक्षण विशेषज्ञ वन गांवों की बढ़ती आबादी के भविष्य को लेकर चिंतित हैं. महाराजगंज विधायक जयमंगल कनौजिया की तरह वे भी वनवासियों को रहने के लिए वैकल्पिक स्थान देने की वकालत कर रहे हैं.

लेकिन सभी ग्रामीण अभयारण्य छोड़कर कहीं और जाने को तैयार नहीं हैं, खासकर जब उन्होंने ‘विकास’ का स्वाद चख लिया है.

एक समय था जब ‘मुखिया’ कहे जाने वाले एक बुजुर्ग ग्रामीण रोशन लाल साहनी जंगल छोड़ने को तैयार थे. वह अभयारण्य के बीच स्थित वन ग्राम-24 में रहते हैं और उनकी मांग थी कि ग्रामीणों को महाराजगंज के माधवलिया गौ सदन क्षेत्र या चेरी फार्म क्षेत्रों में स्थानांतरित किया जाए. लेकिन अब उन्होंने यह मांग छोड़ दी है.

वह कहते हैं, ‘हम कुछ साल पहले जंगल छोड़ने के लिए तैयार थे और शहर जाना चाहते थे. लेकिन चूंकि हमारे पास घर, बिजली, स्कूल और अन्य सुविधाएं मौजूद हैं, हम यहां ठीक हैं. हमें केवल एक संपर्क मार्ग की जरूरत है.’


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वैसे जमीन किसकी है?

यह एक अबूझ पहेली, और जटिल मसला है. पर्यावरण कानून विशेषज्ञ ऋत्विक दत्ता कहते हैं कि कानूनन तो जमीन पर सरकार का मालिकाना हक होता है. एफआरए वन गांवों को राजस्व गांवों में बदलने का प्रावधान करता है. यह ग्रामीणों को तभी तक इसके वास्तविक निवासी के रूप में मान्यता देता है, लेकिन केवल तब तक जब तक उनकी उपस्थिति वन्य जीवन के लिए हानिकारक न हो.

दत्ता कहते हैं, ‘’अधिक जमीन की मांग करना अवैध होगा.’

एफआरए केवल उन लोगों को उस जमीन पर काबिज होने का हक देता है जिनकी जोत चार हेक्टेयर से अधिक नहीं है, और उन्हें भूमि के टुकड़े के विस्तार की अनुमति नहीं देता.

पर्यावरण कानूनों पर जनहित से जुड़े दिल्ली स्थित एक समूह लीगल इनीशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड इनवायरनमेंट (लाइफ) के संस्थापक दत्ता कहते हैं, ‘इन ग्रामीणों को सरकार की तरफ से पेड़ों की कटाई के लिए मजदूरों के रूप में जंगलों में लाया गया था, लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि वे जमीन के मालिक नहीं हैं.’

अधिनियम वनवासियों को उन्हें मिली जोत के विस्तार का अधिकार नहीं देता. साहनी और राम जैसे लोगों के लिए, यह अनुचित है क्योंकि उन्हें पहले तो अभयारण्य में ही दूसरी जगह फिर से बसाया गया था. यह उनके गांवों की ऐतिहासिक स्मृति से जुड़ा है. दत्ता बताते हैं, ‘समस्या यह है कि अगर आज निवासियों ने 50 एकड़ जमीन पर कब्जा कर लिया है, तो उन्हें अगले कुछ वर्षों में लगभग 80-90 एकड़ जमीन की आवश्यकता होगी और इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए और अधिक वन भूमि की आवश्यकता होगी.’

वनटांगिया निवासियों के लिए, भूमि स्वामित्व और चकबंदी एक आर्थिक और भावनात्मक मुद्दा है, हालांकि उनका मानना है कि लंबे समय तक वन क्षेत्र में रहना संभव नहीं है.

वनटांगिया समुदाय के लिए काम कर रही संस्था सर्वहितकारी सेवा आश्रम के प्रमुख विनोद तिवारी ने दिप्रिंट को बताया कि जंगल में वृक्षारोपण ग्रामीणों के पूर्वजों ने ही किया था.

पड़ोसी जिले गोरखपुर के वनटांगियां गांवों का उदाहरण देते हुए वह बताते हैं कि वहां के एक गांव में जमीन चकबंदी की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और तीन अन्य में चल रही है. वे कहते हैं, ‘’वहां गांवों के अंदर तक पक्की सड़कें पहले ही पहुंच चुकी हैं.’ उन्होंने कहा कि यह मुद्दा राजनीतिक रूप से संवेदनशील है क्योंकि वनटांगिया एक निष्ठावान वोट बैंक हैं जो लगातार योगी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को वोट दे रहे हैं.

उनके मुताबिक, ‘बेदखली की बात बेवजह का मुद्दा है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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