रमेश चंद्र केसरिया खादी की एक पट्टी लेते हैं, फिर इसे अपनी सिलाई मशीन की सुई के नीचे ठीक से रखते हैं और जल्द ही एक और भारतीय ध्वज सिलकर तैयार हो जाता है. उन्हें ठीक से याद नहीं कि उस दिन, हफ्ते या महीने में उन्होंने कितने राष्ट्र ध्वज सिले और यह बात उनके लिए कोई खास मायने भी नहीं रखती है. उनके लिए यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण है कि यह काम उन्हें विरासत में मिला है.
‘भारत की स्पोर्ट्स सिटी’ होने से लेकर फलते-फूलते इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग तक, मेरठ के पास ख्याति हासिल करने के लिए बहुत कुछ है. लेकिन भारत के राष्ट्र ध्वज के साथ शहर के संबंध को कमतर ही आंका गया है. लाल किले पर फहराया गया आजाद भारत का पहला तिरंगा मेरठ में गांधी आश्रम से आया था और इसे रमेश चंद्र के पिता ने ही सिला था.
इस वर्ष आजादी की 75वीं वर्षगांठ के मौके पर ‘हर घर तिरंगा’ अभियान चल रहा है जो नरेंद्र मोदी सरकार की अपने-अपने घरों में राष्ट्रीय ध्वज फहराने की एक पहल है. लेकिन यहां मेरठ में वो रमेश चंद्र का परिवार था जिसने 15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि— यानी भारत के ‘नियति से मिलन’ के गवाह बने पल— से एक दिन पहले खादी के 20 झंडे सिले थे.
बीआर आंबेडकर की एक तस्वीर उनके परिवार के एकमात्र बेडरूम में पूरे गौरव के साथ लगी हुई है, जबकि रमेश के पिता— जो मूलत: झंडा सिलने वाले थे— की एक फ्रेमयुक्त तस्वीर उनके सिलाई वाले कमरे की शोभा बढ़ा रही है.
रमेश चंद्र ने कहा, ‘यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हम राष्ट्र ध्वज सिल रहे हैं. वास्तव में यह सोचकर ही बहुत अच्छा लगता है कि हम भी देश के लिए कुछ कर रहे हैं. यह एक ऐतिहासिक बात है. मुझे गर्व है कि हमें इसके योग्य समझा जाता है.’
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पहला झंडा फहराना
रमेश चंद्र 42 साल से खादी के भारतीय झंडे सिल रहे हैं. उन्होंने 12 साल की उम्र में ही अपने पिता नत्थे सिंह के साथ काम करना शुरू कर दिया था. परिवार को गांधी आश्रम से खादी के झंडे सिलने का ठेका मिला हुआ है.
उन्होंने बताया कि वह भारत की आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर होने वाले समारोहों के लिए काम कर रहे हैं, जिसके कारण झंडों के थोक ऑर्डर मिले हैं. उन्होंने कहा, ‘मेरे पास सिलाई के लिए खादी की कमी हो गई है.’
1950 और 1960 के दशक में अपने पिता के समय के सुनहरे दिनों को याद करते हुए रमेश चंद्र ने कहा, ‘मेरे पिता के समय के बाद यह पहली बार है जब भारतीय झंडों की इतनी अधिक मांग रही है.’
रमेश चंद्र ने बताया, ‘पिता की मृत्यु के बाद अब मैं ही ठेका लेता हूं. झंडे सिलने के अलावा कोई और काम नहीं करता—यही मेरा एकमात्र पेशा है. कारीगर नहीं होने से उनके काम में कठिनाई भी आती है, खासकर जब वह एक लाख से अधिक झंडों का ऑर्डर करने के लिए काम कर रहे हैं. रमेश चंद्र ने कहा, ‘किसी एक व्यक्ति के लिए इतनी सिलाई करना संभव नहीं है.’
रमेश और उनका परिवार अपने परिवारिक घर में तीसरी मंजिल पर रहता है. उनका सिलाई का कमरा तिरंगे खादी के थानों से भरा पड़ा है. नीचे की दो मंजिलों पर उनके भाइयों के घर है— एक बाहर मुख्य सड़क पर ‘पॉली’ (पॉलिएस्टर) झंडे बेचता है, जबकि दूसरा बगल में जूस की दुकान चलाता है. केवल रमेश चंद्र ही अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं.
नत्थे सिंह का 2019 में 94 वर्ष की उम्र में निधन हो गया था. रमेश चंद्र के मुताबिक, उन्होंने तेल के दिए जलाकर 13 अगस्त 1947 को रात भर काम किया. फिर इस ध्वज को मलमल में लपेटकर और फूलों की पंखुड़ियों से ढककर नई लकड़ी से बनाए गए एक बॉक्स में पैक किया गया और फिर कुछ स्वतंत्रता सेनानी इसे लेकर मेरठ से नई दिल्ली पहुंचे.
फिर लाल किले पर यही नया झंडा फहराया गया, जो एक नए भारत का प्रतीक था.
रमेश चंद्र ने कहा, ‘हर कोई तिरंगे के बारे में जानता है. लेकिन हर कोई यह नहीं जानता कि पहले झंडे की सिलाई किसने की थी.’
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खादी बनाम ‘पाली’ फ्लैग
रमेश चंद्र के घर से महज दो किलोमीटर दूर स्थित गांधी आश्रम के कर्मचारी हालांकि उनकी प्रतिष्ठित विरासत को लेकर इतने आश्वस्त नहीं हैं.
आश्रम प्रमुख पृथ्वी सिंह रावत कहते हैं, ‘हमने भी यह बात सुनी है. लेकिन सच कहूं तो हमारे पास ऐसा कोई दस्तावेजी सबूत नहीं है कि सच में ऐसा हुआ था.’ वह इस बात से सहमत हैं कि नई दिल्ली से नजदीकी को देखते हुए बहुत संभव है कि झंडा मेरठ से भेजा गया हो. लेकिन रमेश चंद्र की विरासत को सत्यापित करने पर वह थोड़ी सावधानी बरतते हैं.
हालांकि, यह किस्सा लोककथाओं की तरह पूरे शहर में ख्यात है.
खादी कुर्ता खरीदने के लिए आश्रम पहुंचे एक ग्राहक ने कहा, ‘हमने यह किस्सा सुना है! अगर यह सच है, तो हमें गर्व है कि पहला झंडा मेरठ से गया था.’ एक अन्य ग्राहक ने कहा कि यद्यपि उन्हें इसके बारे में कुछ पता नहीं था लेकिन खुशी है कि मेरठ ने देश के ऐतिहासिक क्षण में ऐसी भूमिका निभाई थी.
स्वतंत्रता आंदोलन शुरू होने के समय से ही गांधी आश्रम भारतीय ध्वज बेच रहा है, और यहां तक जुलाई 1947 में वर्तमान तिरंगे को अपनाने से पहले से भी. आज, जीर्ण-शीर्ण ही सही लेकिन रीगल रेड बिल्डिंग में खादी के सामानों का भंडार है, जो मेरठ के भीड़भाड़ भरे इलाके में स्थित एक दुकान के जरिये स्थानीय लोगों को बेचा जाता है.
अभी कुछ समय पहले तक, भारतीय ध्वज खादी से बनता था और इसके निर्माण का अधिकार खादी विकास एवं ग्रामोद्योग आयोग के पास था. आयोग ने गांधी आश्रम जैसे क्षेत्रीय समूहों को यह कार्य सौंपा, जिसने बाद में रमेश चंद्र जैसे कारीगरों को ठेका दिया. हालांकि, पॉलिएस्टर और ऐसे अन्य सिंथेटिक कपड़ों से बने सस्ते और डिस्पोजेबल झंडों की आमद भी बाजार में काफी ज्यादा बढ़ चुकी है.
रमेश चंद्र कहते हैं, ‘पहले केवल खादी से बने झंडे ही राज्य कार्यालयों में फहराए जाते थे. 2002 में पेश भारतीय ध्वज संहिता ने लोगों को निजी स्तर पर झंडे लगाने की अनुमति दी, जिससे प्लास्टिक के झंडे एक लोकप्रिय विकल्प बन गए.’
1982 यानी पिछले करीब 40 वर्षों तक गांधी आश्रम में अपनी सेवाएं देने के बाद रिटायर होने जा रहे तेलूराम कहते हैं कि उन्होंने खादी के झंडों की जबर्दस्त मांग देखी है, यहां तक कि कभी-कभी तो इतनी कि इसे पूरा करना मुश्किल हो जाता था.
उन्होंने कहा, ‘इन दिनों पॉली फ्लैग का चलन अधिक हो गया है लेकिन फिर भी असली खादी के झंडों की काफी मांग है. लोग पॉली फ्लैग और प्लास्टिक के झंडे इसलिए भी लेते हैं क्योंकि ये सस्ते होते हैं.’ वे कहते हैं कि वैसे तो झंडे के लिए स्वाभाविक तौर पर खादी ही सबसे उपयुक्त कपड़ा है क्योंकि यह काफी समय तक चलता है और साथ ही सीधे तौर पर राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ा रहा है.
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हस्तिनापुर का परिवार करता है एक अन्य दावा
मेरठ से कुछ ही दूरी पर हस्तिनापुर में रहने वाले एक परिवार का भी भारतीय ध्वज के साथ खास नाता है और यह औपनिवेशिक काल से जुड़ा है.
गुरु नागर के दादा मेजर जनरल राम नागर नवंबर 1946 में मेरठ में शीर्ष स्तर के कमांडर थे. माना जाता है कि एक अन्य ऐतिहासिक घटना में उनकी अहम भूमिका रही थी. उन्होंने भारत की आजादी से पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अंतिम सत्र के इंतजाम का जिम्मा संभाला था.
नागर ने बताया, ‘ये झंडा सिर्फ हमारे परिवार के इतिहास का हिस्सा नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय इतिहास का हिस्सा है. मेरे दादा-दादी ने इसे संभाला, मेरे पिता ने इसकी देखभाल की और अब हमारी बारी है. हमें इस पर बहुत गर्व है.’
मेरठ में आयोजित इस ऐतिहासिक अंतिम सत्र में बीच में एक पूर्ण चरखे के साथ 9×14 फीट का खादी का तिरंगा फहराया गया था. ध्वजारोहण के बाद जवाहरलाल नेहरू ने यह ध्वज सुरक्षित रखने के लिए नागर परिवार को दे दिया.
नागर का परिवार तीन पीढ़ियों से इसे सहेजे है और अपनी इस राष्ट्रीय संपदा की सुरक्षा सुनिश्चित कर रहा है. ध्वज एकदम पुराना हो चुका है और कपड़े और प्लास्टिक की परतों के बीच बहुत सावधानी के साथ रखा गया है. इसे नमी से बचाने के लिए नियमित तौर पर धूप दिखाई जाती है. यह फिलहाल देहरादून में रहने वाले नागर के जुड़वां भाई के पास है, जो कपड़ा खराब होने से बचाने के लिए अलग-अलग तरीके खोज रहे हैं.
नागर की पत्नी अंजू ने कहा, ‘हमने इस झंडे की उसी तरह देखभाल की है जैसे हम अपने बेटे की करते हैं. और जब वह शादी करेगा, तो मैं यह सुनिश्चित करूंगी कि हमारी बहू भी इसे उसी तरह प्यार और सम्मान के साथ संभालकर रखे.’
नवंबर 1946 का सत्र आखिरी सत्र था जिसे कांग्रेस ने भारत के स्वतंत्र होने से पहले आयोजित किया था. उस समय आचार्य कृपलानी अध्यक्ष थे और सत्र में सरोजिनी नायडू, सरदार वल्लभभाई पटेल और आईएनए के शाहनवाज खान जैसे कांग्रेस सदस्यों ने भाग लिया था. ध्वज पर अभी भी शाहनवाज खान के हस्ताक्षर हैं, जो बाद में कई बार मेरठ से लोकसभा के लिए चुने गए.
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