अमेजन प्राइम वीडियो पर हिंदी और मराठी में रीलिज हुई शैलेष नरवाडे की जयंती देश में जाति-विरोधी फिल्मों में एक मील का पत्थर है. आखिर आजादी के पुरे 38 साल बाद पहली बार किसी हिंदी फिल्म में आंबेडकर की तस्वीर दिखी थी, पर अब एक पूरी फिल्म उनकी विचारधारा और किताबों को खुलकर प्रदर्शित करती है.
इतना ही नहीं शायद पहली दफा किसी एक फिल्म में एससी, एसटी, ओबीसी और मुस्लिम पात्रों को एक साथ खुलकर इस्तेमाल किया गया है.
यह फिल्म 12 नवंबर 2021 में थिएटरों में रीलिज हुई थी और महामारी के बाद परदे पर दिखने वाली पहली मराठी फिल्म बनी. यह करीब 50 दिनों तक थिएटरों में रही और उसकी आइएमडीबी रेटिंग 8.3 रही है. अमेरिका, कुवैत, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा में जितने शो हुए उसमे सिनेमा हॉल खचाखच भरे रहे. नरवाडे की पहली फिल्म होने के बावजूद जयंती ने है और उसने सूर्यवंशी और अंतिम जैसे बड़े बजट की बॉलीवुड फिल्मों से होड़ ली. यह इस मायने में जयंती की बड़ी उपलब्धि है
जाति-विरोधी फिल्म में ओबीसी प्रमुख भूमिका में
महाराष्ट्र में ‘जयंती’ का मतलब दो महापुरुषों छत्रपति शिवाजी और डॉ. बी.आर. आंबेडकर के जन्मदिन की वर्षगांठ. लेकिन अक्सर उनके अनुयायियों के बीच दरार पैदा करने की सोची-समझी कोशिशें हुई हैं.
रयतेचा राजा (जनता का राजा) शिवाजी को महाराष्ट्र और बाकी देश में भी हिंदुत्व के प्रतिक की तरह लंबे समय से पेश किया जाता रहा है. इस प्रक्रिया में मध्य जातियां हिंदुत्व के नैरेटिव की ओर आकर्षित हुईं, जबकि दलितों के खिलाफ अत्याचार जारी रहे. मंडल आयोग की रिपोर्ट में शामिल कई समुदाय इस तथ्य से वाकिफ नहीं थे कि यह उनके फायदे के लिए बनाया गया और संविधान का मसविदा तैयार करने में आंबेडकर की कड़ी मेहनत का नतीजा है. इसलिए जब मंडल रिपोर्ट आखिरकार आई तो कई लाभार्थी ओबीसी जातियों को कमंडल की राजनीति से जोडऩा आसान था.
जयंती इसी टकराव की पृष्ठभूमि में बनाई गई है. लेखक-निर्देशक नरवाडे ने जाति-विरोधी फिल्मों में परंपरागत दलित पात्र के बदले ऋतुराज वानखेडे को संत्या के मुख्य किरदार में उतारा, जो संख्या-बहुल ओबीसी समुदाय से है. यह साहसी फैसला था. जयंती में भूमिका के लिए ऋतुराज वानखेडे को अप्रैल 2022 में मराठी फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला.
संत्या (वानखेडे) स्थानीय विधायक (किशोर कदम) का अशिक्षित कार्यकर्ता है और मुसलमानों से नफरत करता है. उसे एक पढ़ी-लिखी बौद्ध महिला पल्लवी (तितीक्षा तावडे) से प्यार हो जाता है, मगर वह तब उसका जाति नहीं जानता है. दबंग और विधायक के लिए बुरे काम करने वाले संत्या से पल्लवी दुरी बनाये रखती है . लेकिन संत्या की जिंदगी पूरी तरह बदल जाती है, जब एक ओबीसी शिक्षक तथा सामाजिक कार्यकर्ता माली सर (मिलिंद शिंदे) उसका परिचय आंबेडकर, फुले और शिवाजी के पुस्तकों से कराता हैं .
जाति की सच्चाइयां दिखाने और जाति-नाश के लिए फिल्म का इस्तेमाल करने वाले कुछेक भारतीय निर्देशकों की अहम सफर में जयंती एक कदम और आगे जाती है. वह नागराज मंजुले, पा रंजीत और नीरज घयवान के काम को आगे बढ़ाती है.
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सिनेमा में फोटो फ्रेम और किताबें
जाति की सच्चाइयां दिखाने और जाति-नाश के लिए फिल्म का इस्तेमाल करने वाले कुछेक भारतीय निर्देशकों की अहम सफर में जयंती एक कदम और आगे जाती है. वह नागराज मंजुले, पा रंजीत और नीरज घयवान के प्रभावी कार्य को आगे बढ़ाती है.
हाल में कॉलीव सक्रियता के दस साल पूरे करने वाले निर्देशक पा रंजीत ने न्यूयॉर्क में 2019 पहली दफा दलित फिल्म फेस्टिवल में कहा था,” ‘मैं आंबेडकर की तस्वीर फिल्मों में सिर्फ अदालतों या पुलिस थानों की दीवालों पर ही नहीं चाहता, मैं उसे हीरों के घर में देखना चाहता हूं.’
ये सिर्फ खोखले शब्द नहीं थे, पा रंजीत ने इसे अत्ताकथी, काला, सरपट्टा परमबरै में कर दिखाया. नरवाडे की जयंती उसी कारवां आगे ले जाती है . वे सिर्फ आंबेडकर की फोटो ही नहीं दिखाते, बल्कि दर्शकों को उनकी किताब, उनके विचारों, दर्शन और विचारधारा से भी वाकिफ कराते हैं.
पहली दफा हम आंबेडकर की ‘हू वेयर शुद्राज?’, फुले की ‘गुलामगीरी’, शाहू महाराज की जीवनी, और गोविंद पनसारे की लोकप्रिय ‘’शिवजी कौन थे’ किताबों को फिल्म में देखते हैं. दरअसल फिल्म के पोस्टर में पल्लवी फुले की एक किताब लिए खड़ी दिखती है.
निर्देशक नरवाडे कहते हैं, ‘दमनकारी जातियां माध्यम (सिनेमा) की ताकत समझती हैं और अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए उसका कारगर इस्तेमाल करती हैं. बहुजन उस मोर्चे पर उतना कामयाब नहीं हुए है .. मैं हमेशा हैरान होता रहा हूं कि कुछ मेसेज देने के लिए सिर्फ आंबेडकर की फोटो ही क्यों दिखाई जाए? फिल्मों में आंबेडकर, महात्मा फुले, शाहू महाराज और शिवाजी महाराज के विचार और दर्शन क्यों न दिखाए जाए जब की वे अधिक प्रगतिशील हैं.’
भारतीय जाति व्यवस्था की जटिलता
नरवाडे सभी समुदायों को आईना दिखाते हैं, दलितों को भी, जो आंबेडकर जयंती मनाने को तो बढ़-चढक़र जुटते हैं लेकिन उनके राष्ट्र-निर्माण संबंधी योगदान और शिक्षा पर उनके जोर से नावाकिफ रहते हैं. वे मध्य जातियों की पुरानी पीढ़ी को भी आईना दिखाते हैं, जो जाति का विष अपने बच्चों में डाल देते हैं.
संत्या की मां को उसके दलित वस्ती के लडक़ों से मिलने-जुलने से मन करती है. वे आंबेडकर की किताब अपने घर में नहीं देखना चाहतीं और आखिरकार अपने लड़के को घर से बाहर निकाल देती हैं. फिल्म का वह दृश्य सबसे खास है, जिसमें संत्या अपनी मां से ‘हू वेयर द शुद्राज?’ पढऩे की अपील करता है.
जयंती की पृष्ठभूमि महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र है और इस जाति-विरोधी फिल्म में एक अंतरजातीय प्रेम कथा भी है, जिसमें लडक़ी दलित (बौद्ध) और लडक़ा ओबीसी है. यह सैराट , मसान, परियेरम पेरुमल और फैंड्री जैसी फिल्मों मेंं ‘ऊंची जाति की लडक़ी और दलित लडक़े’ की प्रेम कथा से भी स्वागतयोग्य बदलाव है.
नायिका पल्लवी का किरदार बढ़िया दिखया गया है. वह काफी पढ़ी-लिखी आंबेडकरवादी है और प्रशासकीय सेवा की तैयारी कर रही है. उसे न सिर्फ समाज सुधारकों और देश निर्माण में उनके योगदान की जानकारी है, बल्कि वह सामाजिक न्याय के लिए लडऩे और सुधारकों के बारे में प्रचलित मिथकों को तोडऩे के भी काबिल है.
व्यावसायिक फिल्मों में ऐतिहासिक साक्ष्यो और किताबों का सामाजिक सौहार्द के लिए कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है, इसकी बेहतरीन मिसाल जयंती है
जयंती एक और क्षेत्रीय फिल्म है जो मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों को जाति-विरोधी विषयों को कैसे दिखाया जाए, इसकी राह दिखाती है.
ओटीटी पर हिंदी, अंग्रेजी सबटाइटिल में रीलिज के जरिए फिल्म के निर्माता जयंती को समूची भारतीय जनता तक पहुंचना चाहते हैं. आशा है की इसमें वे कामयाब हों.
(रवि शिंदे स्वतंत्र लेखक और स्तंभकार हैं. वे सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों पर लिखते हैं और बहुलता के पैरोकार हैं. विचार निजी है)
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