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Saturday, 20 April, 2024
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BRICS पश्चिम विरोधी एजेंडे की जगह नहीं, भारत ध्यान रखे कि चीन गलत फायदा न उठा ले

ब्रिक्स को सॉफ्ट पावर में बदलने और उसे सुरक्षा तथा विदेश नीति का गुट बनाने की रणनीतिक कोशिशों से उसके व्यापार संबंधी पहलू कमजोर हो जाएंगे.

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लगता है, रूस-यूक्रेन युद्ध का गहरा असर दुनिया भर में ऊर्जा आपूर्तियों पर ही नहीं, बल्कि व्यापार संधि वाले गुटों में नए विचारों पर भी पड़ रहा, ताकि नई प्राथमिकताएं तय की जा सकें और नए एजेंडे पर आगे बढ़ा जा सके. ऐसे ही एक गुट, पांच देशों वाले ब्रिक्स ने विस्तार करने और अधिक देशों को जोडने में दिलचस्पी दिखाई है. ईरान और अर्जेंटीना ने ब्रिक्स में शामिल होने की ईच्छा जाहिर की है.

असल में, कहते हैं, सऊदी अरब ने भी गुट में शामिल होने के लिए अपनी दिलचस्पी बढ़ा दी है. आश्चर्य नहीं होगा कि जल्दी ही दूसरे अरब देश और पाकिस्तान भी ब्रिक्स के काफिले में सवार होना चाहें. इस साल अध्यक्षीय कुर्सी विराजमान चीन ने ‘समान विचारों वाले सहयोगियों’ के साथ काम करने में साफ-साफ दिलचस्पी दिखाई है, जो गुट में शामिल हो सकते हैं और हमारी ‘रणनीतिक साझेदारी’ को ज्यादा कारगर बनाने के लिए व्यापक सहयोग की साफ प्राथमिकताएं तय करने का वादा करते हैं.

ब्राजील, रूस, भारत, चीन (ब्रिक) फोरम में 2010 में दक्षिण अफ्रीका को शामिल किया गया और यह बहुपक्षीय संगठन बन गया. अपने वजूद के 14 साल में इस संगठन ने एशिया, अफ्रीका और यूरेशिया में आर्थिक संभावनाओं के दोहन के लिए मजबूत व्यापार गुट के रूप में विकसित हुआ है. विश्व जीडीपी का करीब 30 फीसदी होने की वजह से ब्रिक्स देशों में आपसी व्यापार 2017 में 600 अरब डॉलर के पार चला गया, जो उसके शुरुआत से 20 फीसदी का इजाफा है.

बाजार की सामूहिक और ब्रिक्स की आपसी व्यापार संभावनाएं से सदस्य देशों के बीच अधिक सहयोग का उचित माहौल बनने की उम्मीद है. चीन की उत्पादन क्षमता, दक्षिण अफ्रीका के संसाधन और बाकी अफ्रीका के समृद्ध तथा विविध खनिज संसाधनों का दरवाजा खुलने, रूस की ऊर्जा ताकत, और भारत बढ़ता उपभोक्ता आधार तथा बढ़ती टेक्नोलॉजी ताकत जैसी वजहों से यह धारणा बन रही है कि ब्रिक्स अंतरराष्ट्रीय व्यापार में गेम चेंजर साबित होगा. यह समझना आसान है कि ऐसी व्यापार संस्थाएं बतौर मोलतोल गुट सामूहिक मोलभाव और राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए अधिक महत्वपूर्ण हैं.


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चीन की ब्रिक्स योजना खुलने लगी

अलबत्ता, ब्रिक्स का सामूहिक व्यापार कई गुना बढ़ जाना चाहिए था, मगर द्विपक्षीय एफटीए और राष्ट्रीय हितों जैसी कई वजहों पर जोर बढ़ा, जिससे सामूहिक व्यापार संबंधों से ज्यादा अहम द्विपक्षीय व्यापार हो गए. इसके अलावा, पिछली सदी के अंत तक, चीन को ‘बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं और नाजायज प्रतिस्पर्धा’ की क्षमताओं का एहसास हो गया, जैसा कि पॉल क्रूगमैन ने अपने ‘एनटीटी टूलबॉक्स’ में जिक्र किया है. बेल्ट ऐंड रोड इनिसिएटिव (बीआरआई) सामूहिक व्यापार सिद्धांतों पर हावी हो गया और ब्रिक्स तकरीबन ताकतवर बीआरआई का दोयम सहयोगी बना दिया गया.

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आखिरकार, लगता है, दबी-छुपी ख्वाहिश बाहर आ गई और ब्रिक्स को पश्चिम के खिलाफ उभरती अर्थव्यवस्थाओं के रणनीतिक फोरम में बदल देने की बीजिंग की रणनीति धीरे-धीरे खुलने लगी है.

ब्रिक्स को पश्चिम विरोधी विचार में बदलने की बुनियाद अमेरिका की व्यापार क्षमताओं को चुनौती देने की चीन की रणनीति में हो सकती है. चीन का यह मान लेना नासमझी ही होगी कि सभी सदस्य देश खासकर व्यापार के मामले में अमेरिाक को अपना मुख्य विरोधी मान लेंंगे. यूक्रेन संकट को लेकर रूस और अमेरिका के बीच रिश्तों में खटास को अलग रख दें, तो मास्को भी शायद न चाहे कि ब्रिक्स जैसे फोरम को अमेरिका विरोधी मंच में बदल दिया जाए. लेकिन किनारे लगा दिए जाने और यूक्रेन के साथ टकराव खुद को अलग-थलग पाकर रूस खुशी-खुशी चीन का उपयोगी सहयोगी बन गया है.

खासकर ऐसे वक्त में जब अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश ऊर्जा संकट झेल रहे हैं, एक व्यापार गुट को अमेरिका की अगुआई वाले पश्चिम पर वार करने के लिए सुरक्षा और रणनीतिक फोरम में बदल डालने की बीजिंग-मास्को की कोशिश शीतयुद्ध का ही विस्तार कहा जा सकता है. अपनी ख्वाहिश को छुपाए बगैर, शी जिनपिंग ने ब्रिक्स सहयोगियों को चेताया कि दुनिया में शीतयुद्ध के काले बादल छाने लगे हैं और अमेरिका का नाम लिए बगैर सदस्य देशों से ‘दमनकारी देशों की एकपक्षीय दबदबे की कोशिशों के खिलाफ एकजुट’ होने की अपील की.

शुरुआती मकसद

ब्रिक्स अनिवार्य तौर पर व्यापार फोरम है, जो सदस्य देशों को अधिकतम साझा फायदा पहुंचाना चाहता है. लेकिन उसे सॉफ्ट पावर और सुरक्षा तथा विदेश नीति की रणनीतियों के हिसाब से बदलने की हर कोशिश से उसका व्यापार पक्ष कमजोर होगा और उसका मूल मकसद ही बेमानी हो जाएगा.

भारत के लिए ब्रिक्स एक अहम फोरम है. इससे काफी अवसर उपलब्ध होते हैं और निवेश नियमों के मामले में बराबरी की हैसियत मिलती है. भारत ने उभरती अर्थव्यवस्थाओं को जोडऩे और विकासशील देशों की साझाा संपत्ति के ज्यादा से ज्यादा लाभ मुहैया कराने के लिए हमेशा व्यापार गुटों के विस्तार का हिमायती रहा है. ब्रिक्स सिविल सोसायटी फोरम के 2021 की बैठक में यह साफ-साफ संदेश दिया गया कि नई दिल्ली एक नए अंतरराष्ट्रीय बहुपक्षीय व्यवस्था बनाने के उद्देश्य की ओर बढऩा चाहेगी.

लेकिन ऐसा विस्तार समावेशी व्यवस्था के नियमों के दायरे में होना चाहिए, जिसमें ‘आर्थिक एकाधिकार’ और पश्चिम विरोधी एजेंडे की कोई जगह नहीं होनी चाहिए. नई दिल्ली ब्रिक्स के सकारात्मक पहलू का हिस्सा बनी रह सकती है, मगर उसे अपने असर का इस्तेमाल करना चाहिए और व्यापार फोरम को राजी करना चाहिए कि वह अपनी गतिविधियां व्यापार तक ही सीमित रखे. उसे स्वतंत्र और टिकाऊ संस्थागत सप्लाई चेन व्यवस्था के जरिए ठोस सहयोगी तंत्र स्थापित करने की दिशा में काम करने और होड़ में जुटने से बचना चाहिए.

इस बीच, नई दिल्ली के लिए फौरन भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका वार्ता फोरम (आइबीएसए) और बिमस्टेक यानी बांग्लादेश, भूटान, भारत, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका, थाइलैंड के गुट पर भी फोकस करना महत्वपूर्ण है. आईबीएसए में एशिया, दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के तीन लोकतंत्रों का प्रतिनिधित्व है, जिससे दक्षिण-दक्षिण सहयोग (एसएससी) को बढ़ावा मिलता है और वैश्विक मामलों में करीबी सहयोग का औजार भी बना है.

(शेषाद्री चारी ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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