राय मोशाय और बंगाल की पहचान इतनी एक हो चुकी है कि दोनों को एक-दूसरे से अलग कर नहीं देखा जा सकता. जब कभी बंगाल की चर्चा होती है तो राय मोशाय यानी कि सत्यजित राय अपनी कला, सिनेमा के जरिए एक मजबूत स्तंभ की तरह खड़े दिखते हैं. कहा जाए तो उनके बिना बंगाल अधूरा है और वे बंगाल के बिना अधूरे.
सत्यजित राय भारतीय कला परंपरा में एक ऐसे किरदार हैं जिनके एक ही वक्त में कई विविध रूप नज़र आते हैं. कभी वे दृढ़ संकल्पित फिल्मकार के तौर पर अपनी मौजूदगी रखते हैं तो कभी चित्रकार, संगीतकार के तौर पर रंग बिखेरते हैं. लेकिन अफसोस है कि वे आज हमारे बीच नहीं हैं और पूरी दुनिया उनकी जन्म शताब्दी वर्ष मना रही है, वो भी उनकी कला, संगीत, सिनेमा के लिए किए गए बेमिसाल कामों को याद कर.
जन्म शताब्दी वर्ष के दौरान सत्यजित राय पर कई गोष्ठियां, कई कार्यक्रम किए गए और अभी भी जारी हैं लेकिन इस बीच उनके शुरुआती काम और उसे लेकर किए गए संघर्ष को दर्ज करती एक किताब हाल ही में प्रकाशित हुई है.
लोकमित्र प्रकाशन से छपी लेखक और पत्रकार जयनारायण प्रसाद की किताब एक जीनियस फिल्मकार- सत्यजित राय, राय मोशाय के शुरुआती और संघर्ष भरे जीवन को समझने और उसके इर्द-गिर्द की कहानियों को बखूबी दर्ज करती है.
लेखक जयनारायण प्रसाद किताब की शुरुआत में लिखते हैं, ‘यह किताब सत्यजित राय के सिनेमा का विश्लेषण नहीं है बल्कि उनके मानिक बनने और फिर सत्यजित राय बनने से लेकर एक ऑस्कर विजेता फिल्मकार बनने की कहानी भी है. वहीं लेखक उन्हें आजाद हिंदुस्तान की अनूठी और दुर्लभ प्रतिभाओं में से एक बताते हैं.
लेखक ने इस किताब में सत्यजित राय के निर्देशन में बनी पहली फिल्म पाथेर पांचाली के बनने और उसे लेकर आई चुनौतियों का जिक्र किया है. इस किताब से ये उम्मीद लगाना ठीक नहीं होगा कि इसमें सत्यजित राय के संपूर्ण जीवन की झलक मिलेगी बल्कि सत्यजित राय कैसे वैश्विक पटल पर उभरे, उसके शुरुआती कारण की खोज इसमें की गई है.
सत्यजित राय के जन्मशताब्दी वर्ष के दौरान दिप्रिंट एक जीनियस फिल्मकार- सत्यजित राय के बारे में बता रहा है.
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सत्यजित राय पर ‘बाइसिकिल थीव्स’ का असर
सत्यजित राय की पहले फिल्म पाथेर पांचाली के बनने की कहानी से पहले लेखक किताब में उनके पूर्वजों के बारे में बताते हैं, जो कि मूलत: बांग्लादेश के मैमनसिंह से ताल्लुक रखते थे. उनके पूर्वज जमींदार थे लेकिन बाद में कलकत्ता आकर बस गए. उनके दादा उपेंद्रकिशोर रायचौधरी बांग्ला भाषा के एक बड़े लेखक होने के साथ-साथ चित्रकार और दार्शनिक भी थे. राय के पिता सुकुमार राय भी बंगाल के बड़े लेखक थे जिनके मुरीद वहां के मुख्यमंत्री रहे विधानचंद्र राय और खुद कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर भी थे.
लेखक बताते हैं कि जिल्दबंद किताबों की डिजाइन करते-करते एक युवक कैसे ग्लोबल हो जाता है, यह हम सत्यजित राय के जीवन से सीख सकते हैं. वो बताते हैं कि अपने दादा और पिता के गुण सत्यजित राय में भी आए और बाद में उन्हें सिनेमा में मन लगने लगा.
राय मोशाय ने अपने जीवन में सिर्फ दो नौकरियां की. पहली नौकरी उन्होंने ब्रिटिश विज्ञापन कंपनी डीजे कीमर में की जहां उन्हें 80 रुपए प्रतिमाह मिलते थे. इस नौकरी के सिलसिले में उन्हें एक बार इंग्लैंड जाने का मौका मिला जहां उन्हें विश्व का बेहतरीन सिनेमा देखने को मिला.
बताया जाता है कि इटली के निर्देशक विक्टोरिया डीसिका की चर्चित फिल्म बाइसिकिल थीव्स फिल्म ने उन्हें सबसे ज्यादा प्रेरित किया. ये बात अमर्त्य सेन ने अपनी सुविख्यात किताब द आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन में भी लिखी है.
विश्व सिनेमा से रू-ब-रू होने के बाद उन्होंने अपनी फिल्म पर काम करना शुरू किया जो कि आसान नहीं था लेकिन बंगाल के विख्यात लेखक विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की रचना पाथेर पांचाली का फिल्मांकन करने की उन्होंने योजना बनाई. गौरतलब है कि सत्यजित राय ने ज्यादातर फिल्में साहित्य को आधार बनाकर ही फिल्मायी.
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‘सपने को साकार करने की लड़ाई थी पाथेर पांचाली’
विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की रचना पाथेर पांचाली जिसे उन्होंने झारखंड के घाटशिला में लिखी था, इस पर सत्यजित राय ने इसी नाम से 1955 में अपनी पहली फिल्म बनाई. पाथेर पांचाली का मतलब होता है छोटे पथ का गीत. इस फिल्म को बनाने के लिए सत्तर हजार रुपए लगे लेकिन उस समय ये इतनी बड़ी रकम थी कि राय मोशाय को इसे जुटा पाना आसान नहीं था.
लेखक जयनारायण प्रसाद ने किताब में लिखा है, ‘सत्यजित राय के लिए एक सपने को साकार करने की लड़ाई थी पाथेर पांचाली. इसके लिए उन्होंने अपनी पत्नी विजया राय के गहने तक बेच डाले फिर भी पैसे पूरे नहीं हुए.’
सत्यजित राय की मुसीबतें देखकर उनकी मां सुप्रभा देवी उन्हें बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय के पास ले गई जो उनके पिता सुकुमार राय से अच्छी तरह परिचित थे. आखिर में विधानचंद्र राय ने इस फिल्म को सरकारी फंड दिलाया जिसके बाद ये पूरी हो सकी.
फिल्म रिलीज होने के बाद दुनियाभर में इसे सराहा गया और भारत में इसे राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला. इसके बाद विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की रचना पर ही उन्होंने अपू ट्रिलाजी बनाई जिसमें पाथेर पांचाली, अपराजितो और अपू संसार शामिल है.
पाथेर पांचाली को रंगीन बनाने का भी कुछ साल पहले प्रयास किया गया था लेकिन सत्यजित राय के बेटे संदीप राय ने इस पर आपत्ति जताई थी, जिसके बाद इसे रोक दिया गया.
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नए किरदारों ने ‘पाथेर पांचाली’ में जान फूंकी
लेखक जयनारायण प्रसाद ने किताब में बताया है कि सत्यजित राय ने अपनी फिल्म में जिन-जिन कलाकारों को लिया वो लगभग नौसिखिए थे जिन्होंने पहले कभी सिनेमा में काम नहीं किया था. और वो ये भी बताते हैं कि कई कलाकार तो ऐसे हैं जिनकी वो पहली और आखिरी फिल्म साबित हुई.
लेखक ने पाथेर पांचाली के लगभग सभी मुख्य कलाकारों के बारे में विस्तार से लिखा है और उन गुमनाम चेहरों को फिर से याद किया है जिन्हें भुला दिया गया. साथ ही उन साथियों का भी जिक्र किया है जो उनकी पहली फिल्म के बाद लंबे समय तक उनके साथ रहे. जिनमें बंसी चंद्रगुप्त, सुब्रत मित्र शामिल हैं.
लेखक बताते हैं कि सत्यजित राय बॉलीवुड गायक किशोर कुमार के मामा थे और कुमार ने उन्हें पाथेर पांचाली बनने के दौरान पांच हजार रुपए की आर्थिक मदद भी की थी जिसे बाद में राय मोशाय ने लौटा दिया था. साथ ही सत्यजित राय ने अपनी दो फिल्मों चारुलता और घरे-बाइरे में किशोर कुमार से गाना भी गंवाया था जो काफी हिट हुआ था.
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सत्यजित राय और टैगोर
रवींद्रनाथ टैगोर उन कुछ लोगों में शामिल थे जिन्होंने सत्यजित राय पर काफी असर डाला था. टैगोर की मृत्यु के बाद सत्यजित राय ने उन पर करीब एक घंटे की डॉक्युमेंट्री भी बनाई थी जिसमें कविगुरु के पूरे जीवन को फिल्माया गया है.
टैगोर से सत्यजित राय की पहली मुलाकात उनकी मां सुप्रभा देवी ने करायी थी और कविगुरु ने उनकी नोटबुक में हस्ताक्षर के साथ एक कविता भी लिखकर दी थी. जिसके कुछ सालों बाद सत्यजित राय शांतिनिकेतन के विश्वभारती विश्वविद्यालय में पढ़ने भी गए जिसकी टैगोर ने ही स्थापना की थी.
विश्वभारती विश्वविद्यालय में उन्होंने फाइन आर्ट्स की पढ़ाई की थी जो उनके बाद के कामों में झलकता भी है.
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सिनेमा का असर
सत्यजित राय ने अपने पूरे जीवन में कुछ दर्जन ही फिल्में बनाई लेकिन जो भी बनाई वो वैश्विक ऊंचाईयां छूती गई और सिनेमा जगत के लिए अनूठी साबित हुई. पाथेर पांचाली से शुरू हुआ सफर काफी लंबा चला और उन्होंने हिंदी में भी दो फिल्में बनाईं- सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी.
राय मोशाय के सिनेमा को सम्मानित करने के लिए 1992 में उनकी मृत्यु से कुछ दिन पहले उन्हें ऑस्कर पुरस्कार भी दिया गया.
लेखक जयनारायण प्रसाद की किताब सत्यजित राय के जीवन की कुछ झलकियां दिखाती हैं जो उनके संपूर्ण जीवन को जानने और समझने के लिए प्रेरित करती है. किताब में संपादन और प्रूफ की काफी गलतियां होने के बावजूद ये पठनीय है और सत्यजित राय में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए एक कुंजी पुस्तिका है.
किताब में फिल्म संरक्षण और उससे जुड़े पीके नायर की कहानी भी है जिन्हें सेलुलायड मैन ऑफ इंडिया कहा जाता है.
सत्यजित राय का जीवन और सिनेमा एक असर पैदा करता है, जो सिनेमा-प्रेमियों के बीच आज तक जीवंत है और आगे भी रहेगा.
(लेखक और पत्रकार जयनारायण प्रसाद की किताब एक जीनियस फिल्मकार- सत्यजित राय को लोकमित्र प्रकाशन ने छापा है.)
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