scorecardresearch
Saturday, 20 April, 2024
होमदेशबासु चटर्जी की फिल्मों के 'सारा आकाश' में महकती रहेगी 'रजनीगंधा' की खुशबू

बासु चटर्जी की फिल्मों के ‘सारा आकाश’ में महकती रहेगी ‘रजनीगंधा’ की खुशबू

बासु दा की फिल्में देश की बड़ी आबादी वाले मध्यम वर्ग की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती थी. उन्होंने साहित्य को अपने नज़रिए से देखा और सिनेमा के जरिए उसे और ऊंचा फलक देने का काम किया.

Text Size:

सिनेमाई पर्दे पर भागती-दौड़ती जिंदगियां अक्सर एक छलावा सी लगती हैं. आम और सामान्य जिंदगियों से इतर सिनेमा की जिंदगी ज्यादा चकाचौंध से भरी होती है जिससे जुड़ाव महसूस करना बेहद मुश्किल सा लगता है. भारत में ऐसी चकाचौंध और बिन सिर-पैर की बनी फिल्मों की विशाल सूची है, जिसे देखकर या जिसका अध्ययन कर, ये साफ तौर पर कहा जा सकता है कि इन फिल्मों का सिनेमाई कला और क्राफ्ट से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है.

ठीक इस दलील के इतर ऐसी भी फिल्मों की लंबी फेहरिस्त है, जो क्राफ्ट और अभिनय के स्तर पर सिनेमाई उत्कृष्टता को छूती है. जो न केवल सामान्य जिंदगियों से वास्ता रखती है और उसकी हकीकत को दिखाती है बल्कि उन कहानियों की जड़ हमारे-आपके ही बीत होती है.

2010 के बाद भारतीय सिनेमा में तेजी से बदलाव देखने को मिला है. कहानियां फिर से महानगरों और बड़े-बड़े इमारतों वाले शहरों से निकलकर छोटे और कस्बाई इलाकों तक पहुंची है. छोटे शहर से आए कलाकार सिनेमा के मुख्य कलाकार के तौर पर उभरे हैं. इन फिल्मों में फिर से साहित्यिक और हकीकत भरे दृष्टिकोण का समावेश देखने को मिलने लगा है.

लेकिन क्या आपको मालूम है कि भारतीय सिनेमा के कुछ निर्देशक दशकों पहले आम जिंदगियों को सिनेमाई पर्दे पर उतारने का काम कर चुके हैं और वो कहानियां लोगों की जिंदगियों से इतनी घुलती-मिलती जान पड़ती है कि वो कलात्मक तौर पर आज भी अपनी विशिष्टता बनाए हुए हैं.

ऐसे ही कुछ दिग्गज निर्देशकों में बासु भट्टाचार्य, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी, गुलज़ार जैसी शख्सियतें हैं. लेकिन आज बात बासु चटर्जी की, जिन्होंने न केवल साहित्यिक दृष्टिकोण को बड़े पर्दे पर जगह दी बल्कि सिनेमाई क्राफ्ट असल में होती क्या है, उससे दर्शकों का राब्ता कराया.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

बासु दा की 95वीं जयंती पर दिप्रिंट उनके रचनात्मक और सिनेमाई काम को याद कर रहा है.


यह भी पढ़ें: ‘अब समझ में आवत.. केतनी बुरी बेमारी बा’- कोरोना काल में ग्रामीण भारत की सच्चाई बयां करती ‘पुद्दन कथा’


बासु चटर्जी, आम जिंदगियां और ‘सारा आकाश’

भारत की आजादी से ठीक कुछ साल पहले और उसके बाद के वर्षों में भारतीय सिनेमा के ढर्रे में ज्यादा बदलाव नहीं देखने को मिला. यह सिलसिला करीब दो दशकों तक चलता रहा. इस बीच कुछ सिनेमाई प्रयोग जरूर हुए लेकिन कमोबेश आजादी के बाद समाजवादी विचारधारा से प्रभावित सिनेमा का ही जोर रहा, जो काफी आइडल स्थिति को प्रदर्शित करता था और असल जिंदगी से उसकी काफी दूरी थी.

लेकिन बासु भट्टाचार्य, ऋषिकेष मुखर्जी जैसे निर्देशक और बंगाल में सत्यजीत रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक जैसे दिग्गज लोगों ने सिनेमा की स्थूलता को बदला और कई आमूलचूल परिवर्तन किए. आम जिंदगियां, छोटे-शहर, कस्बे-मोहल्ले, गरीब-गुरबा, मध्यमवर्ग की बढ़ती आकांक्षाओं को पर्दे पर जगह मिलने लगी.

इसी क्रम को और मजबूती के साथ आगे बढ़ाने का काम बासु दा ने किया. बासु चटर्जी का जन्म राजस्थान के अजमेर में 10 जनवरी 1927 को हुआ था. कार्टूनिस्ट के तौर पर उन्होंने अपना कैरियर शुरू किया था.

ऋषिकेश मुखर्जी स्कूल ऑफ सिनेमा की विरासत लिए बासु दा ने राजेंद्र यादव के उपन्यास सारा आकाश से निर्देशन के काम की शुरुआत की. सारा आकाश (1969) नाम से ही उन्होंने इस फिल्म को बनाया, जो राजेंद्र यादव के उपन्यास के सिर्फ पहले हिस्से पर आधारित था.

2022 की भागदौड़ और व्यस्तता के दौर में इस फिल्म को टिक कर देखना एक बड़ी चुनौती से कम नहीं है. लेकिन कलात्मक तौर पर बात करें तो ये सिनेमा मानीखेज है, जो अपने शुरुआती दृश्यों से ही दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खींचती है.

सारा आकाश (1969) फिल्म की शुरुआत 2-3 मिनट तक सिर्फ कैमरा के चलते रहने से होती है. कैमरा सिर्फ शहर को दिखाता है. ये उस दौर में एक नया प्रयोग था, जब पहली बार शहर को कैमरा ने इस तरह से देखा और दर्शकों के लिए भी ये एक अलग तरह का अनुभव रहा होगा.

बासु दा की फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर भले ही ज्यादा सफलता नहीं मिली हो लेकिन उनकी फिल्में लोगों के दिलों पर राज करने वाली होती थी. उन्होंने कहा भी था कि फिल्मों को सिर्फ रुपये के मापदंड से नहीं मापना चाहिए.

बासु दा ने कई बांग्ला फिल्मों का भी निर्देशन किया था. 1992 में बासु चटर्जी को फिल्म दुर्गा के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.


यह भी पढ़ें: द साइलेंट कू: भारत में संवैधानिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक व्यवस्था के कमजोर होने की कहानी


‘रजनीगंधा’ की महक और ‘छोटी सी बात’ कहने की सलीका

बासु चटर्जी की अधिकतर सिनेमाई कृति साहित्य पर आधारित रही हैं. लेकिन ये कहना अनुचित होगा कि उन्होंने केवल साहित्य को ही पर्दे पर उतार दिया हो. बल्कि उन्होंने साहित्य को अपने नज़रिए से देखा और सिनेमा के जरिए उसे और ऊंचा फलक देने का काम किया.

बासु दा की फिल्में देश की बड़ी आबादी वाले मध्यम वर्ग की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती थी. इन फिल्मों में मध्यम वर्ग की उस सामान्य दुनिया को रचा गया जिसे हर कोई अपनी जिंदगी में जीता तो था लेकिन उसने कभी इसे बड़े पर्दे पर नहीं देखा था या ऐसी उम्मीद कभी नहीं की थी.

रजनीगंधा ऐसी ही एक फिल्म है, जो मन्नू भंडारी की कहानी यही सच है पर आधारित है. एक औरत कैसे अपने प्रेम को चुनने के फैसले को लेकर ऊहापोह में है और इस बीच उसकी जिंदगी किस तरह बीतती है और शहर किस तरह उसको प्रभावित करता है, ये कहानी का मुख्य प्लॉट है. लेकिन असल कहानी से इतर बासु दा ने सिनेमाई कृति में थोड़ा बदलाव करते हुए उसे नए ढंग से दर्शकों के बीच रखा, जिसे आज तक अनूठा माना जाता है.

इसी तरह छोटी सी बात, मध्यम वर्गीय आकांक्षाओं की बानगी है और एक बड़े तबके की हकीकत है.

चटर्जी निर्देशित फिल्म छोटी सी बात भीड़-भाड़ और बस स्टैंड पर प्रेम की तलाश में जूझते प्रेमी की कहानी है. जिसमें अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा हैं. प्रेम की तलाश में घूमते प्रेमियों को मंजिल तक पहुंचाने में बासु चटर्जी अपनी फिल्मों के माध्यम से सफल जान पड़ते हैं.

वर्तमान दौर को भी देखें तो मध्यमवर्गीय जीवन में भले ही मोबाइल फोन और सुख-सुविधाओं के तमाम साधन आ गए हों लेकिन प्रेम की तलाश और उसके इजहार के पुराने तरीके आज भी युवा पीढ़ी को रोमांटिसाइज करती हैं.

ठीक इसी तरह की फिल्म उन्होंने अमिताभ बच्चन और मौसमी चटर्जी के साथ बनाई. इस फिल्म का नाम था- मंजिल . ये फिल्म एक तरफ तो अमितभ बच्चन के एंग्री यंग मैन की छवि के विपरीत थी वहीं दूसरी तरफ एक आम शहरी अपने प्रेम को पाने के लिए क्या जद्दोजहद कर सकता है या करता है, उसका प्रतिनिधित्व करती है. इस फिल्म में कलकत्ता जिस खूबसूरती से नज़र पड़ता है, वो दर्शकों के लिए किसी खास अनुभव से कम नहीं है. इस फिल्म के रिम झिम गिरे सावन गीत को कौन भुला सकता है.

दूरदर्शन के शुरुआती दिनों में उन्होंने दो प्रसिद्ध टीवी धारावाहिक बनाए जिनमें ब्योमकेश बक्शी और रजनी शामिल है. कोरोनावायरस के बाद लगे लॉकडाउन के दौरान इन धारावाहिकों का दूरदर्शन पर फिर से प्रसारण किया गया था.

कहा जा सकता है कि बासु दा की फिल्मों के सारा आकाश में रजनीगंधा की खुशबू महकती रहेगी.


यह भी पढ़ें: ‘मुझे चांद चाहिए’ के लेखक सुरेंद्र वर्मा का प्रकाशकों पर आरोप,’फर्जी सिग्नेचर’ कर छापी उनकी किताब


अमोल पालेकर और बासु दा

बासु दा की फिल्मों में अभिनेता अमोल पालेकर की अहम भूमिका रही है. कई फिल्मों में बासु दा ने अमोल पालेकर को बतौर अभिनेता अपनी फिल्मों में लिया. रजनीगंधा, छोटी सी बात, चितचोर, अपने पराए कुछ ऐसी ही फिल्में हैं. इन फिल्मों से उन दिनों अमोल पालेकर हर घर में पहुंच गए थे और चकाचौंध भरी फिल्मों के अभिनेताओं के बरक्स अपनी एक अलग पहचान बनाई थी.

बासु दा की मध्यमवर्गीय कहानियों पर बनी फिल्मों के हीरो थे अमोल पालेकर. उनकी अदाकारी जितनी सामान्य जिंदगी के तौर पर दिखती थी, ठीक वैसा ही बतौर निर्देशक बासु दा चाहते थे. दोनों की जोड़ी ने कमाल की विरासत सिनेमा के चाहने वालों को दी है.

एक बात जो सबसे खास है, वो है बासु दा की फिल्मों का संगीत. उनकी फिल्मों का संगीत मधुर और प्रकृति के नजदीक रहता था. इन फिल्मों की खूबसूरती ये है कि ये जीवन जीना सिखाती है.

ठीक ये जानना भी दिलचस्प है कि जिस दौर में बासु दा फिल्में बना रहे थे, जो लीक से हटकर थीं, उसी दौर में भारतीय सिनेमा जगत में राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन सरीखे अभिनेता उभर रहे थे, जो नए ढंग से अपनी पहचान बना रहे थे- एंग्री यंग मैन और मासूमियत भरे प्यार के सहारे.

लेकिन इस सबसे इतर बासु दा भले ही अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी फिल्में आम जिंदगियों को हमेशा छूती रहेंगी, क्योंकि भारतीय मध्यमवर्ग की विशालता इतनी है कि वो न तो कभी कम होगी और न ही बासु दा की फिल्मों में वर्णित सच्चाईयां हीं धुंधली पड़ेंगी.


यह भी पढ़ें: ऋषिकेश मुखर्जी एक नया सिनेमा लेकर आए, गोल्डन एरा के बाद फिल्मों का एक दौर रचा


 

share & View comments