नई दिल्ली: पिछले दो वर्षों के दौरान कोविड महामारी के तमाम तरह के असर में से एक यह भी है कि भारत में तपेदिक (टीबी) के मामलों की रिपोर्टिंग बड़े पैमाने पर घट गई है. और इस अंतर को पाटने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार अब 24 मार्च, जिसे विश्व टीबी दिवस के रूप में मनाया जाता है, से डोर-टू-डोर टीबी स्क्रीनिंग पर एक विशेष अभियान शुरू करने की तैयारी कर रही है.
पिछले साल जारी विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में महामारी के दौरान टीबी के मामलों की रिपोर्टिंग में कमी आई है जो कि वैश्विक गिरावट में 41 प्रतिशत रही है.
‘ग्लोबल ट्यूबरकुलोसिस रिपोर्ट 2021’ शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है, ‘2019 और 2020 के बीच जो देश इस वैश्विक गिरावट में सबसे आगे रहे उनमें भारत (41 प्रतिशत), इंडोनेशिया (14 प्रतिशत), फिलीपींस (12 प्रतिशत) और चीन (8 प्रतिशत) शामिल है, अगर इनके साथ 12 अन्य देशों को जोड़ लिया जाए तो 1.3 मिलियन की कुल वैश्विक गिरावट में 93 प्रतिशत हिस्सा उनका ही रहा है.’
भारत के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की तरफ से 2020 में किए गए एक विश्लेषण में भी पाया गया कि देश में टीबी के मामलों में जनवरी और दिसंबर 2020 के बीच 25 प्रतिशत की कमी आई है, जिसका प्रमुख कारण लॉकडाउन और संसाधनों को कोविड-19 पर काबू पाने के उपायों में इस्तेमाल किया जाना रहा है.
हालांकि, अगले दो से तीन हफ्तों तक चलने वाले सरकार के नए स्क्रीनिंग अभियान के तहत स्वास्थ्य कार्यकर्ता जोखिम वाली आबादी में शामिल लोगों की घर-घर जाकर जांच करेंगे कि कहीं उनमें टीबी के कोई लक्षण तो नहीं हैं, जैसे लगातार खांसी, सीने में दर्द, वजन घटना या थकान. यदि कोई रोगसूचक लक्षण मिला तो स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों, ट्रूनैट, कार्ट्रिज बेस्ड न्यूक्लिक एसिड एम्प्लीफिकेशन टेस्ट (सीबीएनएएटी) या थूक की माइक्रोस्कोपिक जांच आदि, का इस्तेमाल करके उनका टेस्ट किया जाएगा.
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रिपोर्टिंग के मामले में 2019 की स्थिति में लौटने का लक्ष्य
टीबी पर काबू पाने के कार्यक्रम में सक्रिय मामलों का पता लगाना एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा है, क्योंकि बड़ी संख्या में मामले चूक जाते हैं यानी या तो उन्हें सिस्टम में रिपोर्ट नहीं किया जाता है या उन्हें डायग्नोस नहीं किया जा पाता है. टीबी ऐसी बीमारी है जिस पर बहुत ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है और इसके मामले दर्ज होने में कमी एक खतरे की घंटी है.
कोविड महामारी से पहले आमतौर पर जोखिम वाली आबादी के बीच सक्रिय केस पता लगाने का अभियान पूरे देश में हर छह महीने में चलाया जाता था. इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सक्रिय केस का समय पर पता लगाना बेहद जरूरी है कि एक तो इसकी प्रकृति अत्यधिक संक्रामक होती है, दूसरे भारत में लोग आमतौर पर घनी आबादी के बीच रहते हैं और यही नहीं एक बार इलाज शुरू होने पर भी यह लंबा और उबाऊ हो सकता है, जिसके कारण मरीजों के इलाज बीच में ही छोड़ देने से टीबी के बैक्टीरिया की दवा प्रतिरोधक वैरायटी की उत्पत्ति होती है.
स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना है कि इस महीने विशेष अभियान का लक्ष्य कम से कम 2019 में दर्ज टीबी के मामलों के आंकड़े 24,00,025 से आगे पहुंचना है, जो उस वर्ष निर्धारित लक्ष्य 28,71,755 का करीब 84 प्रतिशत रहा था. तब से ही विभिन्न वजहों से हर साल टीबी नोटिफिकेशन के आंकड़ों में गिरावट आई है, जिसमें समय-समय पर लॉकडाउन होना और संशोधित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम (आरएनटीसीपी) से जुड़े स्टाफ को कोविड प्रबंधन संबंधी सेवाओं में लगाया जाना शामिल है.
स्वास्थ्य मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम जोखिम वाले लोगों जैसे एचआईवी के शिकार, भीड़भाड़ वाली स्थितियों में रहने वालों या कुपोषित और रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी वाले लोगों के बीच टीबी के सक्रिय मामलों का पता लगाने के लिए विशेष अभियान शुरू करेंगे. लक्षण दिखने पर संभावित मरीज का टेस्ट किया जाएगा. हम अपने कार्यक्रम के तहत सक्रिय केस का पता लगाने के लिए यह तरीका अपनाते रहे हैं लेकिन कई राज्य ऐसा करने में अक्षम रहे हैं. इसलिए दो-तीन हफ्ते के लिए व्यापक स्तर पर यह अभियान चलाया जाएगा.’
अधिकारी ने कहा, ‘दरअसल इसके पीछे विचार यह है कि 2019 में कोविड महामारी से पहले हम जहां थे, वहां तक फिर पहुंच जाएं. कुछ राज्य तो पहले ही वहां पहुंच चुके हैं, लेकिन हम चाहते हैं कि सभी राज्यों में यह काम हो पाए.’
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भारत का ‘गंभीर स्वास्थ्य संकट’
स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपनी ‘क्षय रोग उन्मूलन संबंधी राष्ट्रीय रणनीतिक योजना 2017-2025’ में टीबी को भारत का ‘गंभीर स्वास्थ्य संकट’ करार दिया है, क्योंकि इसकी वजह से हर साल अनुमानित रूप से 4,80,000 लोगों और हर दिन लगभग 1,400 लोगों को जान गंवानी पड़ती है.
स्वास्थ्य मंत्रालय की रणनीतिक योजना में बताया गया है कि भारत में हर साल एक लाख से अधिक मामले सामने आने से ‘चूक’ जाते हैं, यानी जो दर्ज नहीं हो पाते हैं, अधिकांश मामलों में या तो बीमारी का पता नहीं लग पाता है या फिर लापरवाही बरती जाती है अथवा ठीक से पता नहीं लग पाने के साथ निजी क्षेत्र में पर्याप्त उपचार मुहैया नहीं हो पाता है.
निक्षय डैशबोर्ड (टीबी से संबंधित जानकारी देने वाला सरकारी पोर्टल) पर उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक, 2020 में भारत में दर्ज टीबी के मामलों की संख्या घटकर 18,11,663 रह गई, जो इस वर्ष के लिए 29,99,030 के लक्ष्य का 60 प्रतिशत ही है. 2021 में यह संख्या मामूली तौर पर बढ़कर 21,43,760 हो गई जो इस वर्ष के लिए निर्धारित लक्ष्य 29,94,330 की करीब 71 प्रतिशत है. 2022 में, अब तक टीबी के 3,46,189 मामलों को अधिसूचित किया गया है.
इस साल के शुरू में कोविड-19 मामलों को लेकर क्लीनिकल मैनेजमेंट संबंधी सरकारी दिशानिर्देशों में टीबी को उन बीमारियों में से एक के तौर पर सूचीबद्ध किया गया था, जिसके मरीजों के सार्स कोव-2 वायरस की चपेट में आने पर गंभीर संक्रमण का ‘ज्यादा जोखिम’ हो सकता है, क्योंकि दोनों ही संक्रमणों में मुख्य तौर पर फेफड़े प्रभावित होते हैं.
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