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Thursday, 25 April, 2024
होमदेशखुशबू और शानदार स्वाद वाले बिहार के कतरनी चावल का वजूद क्यों संकट में है

खुशबू और शानदार स्वाद वाले बिहार के कतरनी चावल का वजूद क्यों संकट में है

सुगंधित और स्वादिष्ट कतरनी धान की नस्ल को विलुप्त होने से बचाने और इसे विशिष्ट पहचान दिलाने के लिए साल 2018 में बौद्धिक सम्पदा अधिकार, नई दिल्ली की ओर इसे जीआई टैग प्रदान किया जा चुका है.

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नई दिल्ली: बिहार के भागलपुर के कतरनी चावल की खुशबू देश के अलावा विदेशों में भी लोकप्रिय है. 2018 में कतरनी के विकास के लिये सरकार के प्रयास से जीआई टैग भी मिल चुका है. जीआई टैग मिलने के लगभग 4 साल बाद  कतरनी चावल के विकास और उनके किसानों की स्थिति क्या है.

खीर की खुशबू को तरस रहा है कतरनी का नैहर

चानन नदी के किनारे का इलाका अमरपुर, रजौन, कजरेली, भदरिया के साथ जगदीशपुर इलाका कतरनी चावल के उत्पादन का मुख्य केंद्र रहा है. अब हालात यह है कि यहां के लोग भी कतरनी चावल के खीर खाने को तरस रहे हैं.

भदरिया निवासी उमेश मंडल (46 वर्ष) बताते हैं कि, ‘वर्षों तक भदरिया इलाका कतरनी का नैहर कहलाता रहा. हालांकि अब यह समय है कि यहां के लोग भी कतरनी चावल के खीर खाने को तरस रहे है. खीर की प्राकृतिक खुशबू गायब हो गई है. 3-4 साल पहले भी गांव में 30-40 बीघा देशी कतरनी का खेती होती थी. इस बार 10 बीघा में भी खेती नहीं हुई थी.’

भादरिया गांव के बुजुर्ग हरिशंकर बाबू बताते हैं कि, ‘लगभग 50 साल पहले इस इलाके में सिर्फ कतरनी चावल की खेती होती थी. भदरिया के बाद ही इसका चलन रजौन और जगदीशपुर की ओर बढ़ा. उस वक्त गांव के मोहनलाल भगत के यहां सिर्फ 300-400 एकड़ में कतरनी चावल की खेती होती थी. पहले मजदूरों की कमी नहीं थी और लोग खेती पर आश्रित भी थे. अब अधिकांश किसानों ने खेती छोड़ दी है. बाकी बचे बटाईदार किसान अधिक उपज के लिए कतरनी को छोड़ चुके है.’

कम उत्पादन की वजह से छोड़ रहे हैं किसान

भदरिया गांव के मुकेश अब भी कतरनी चावल की खेती करते है. मुकेश बताते हैं कि, ‘देसी कतरनी चावल की सुगंध और स्वाद भले ही बेमिसाल हो. मगर वर्तमान समय में इसकी खेती मुनाफा वाली नहीं है. देसी कतरनी का उत्पादन दर बहुत कम है. एक एकड़ में 10 से 15 मन धान भी नहीं उपजता है. जबकि सामान्य धान 30 से 40 मन उपज जाता है. साथ ही कई किसान किसी महीन चावल को कृत्रिम सुगंध का मिलावट करके महंगे दर पर बेच लेते हैं. पहले लोग शौक से इसकी खेती करते थे. हालांकि अब खेती शौक नहीं बल्कि मुनाफा के लिए होती है.’

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समय के साथ क्यों कम हो रहे कतरनी चावल के किसान

धीरे-धीरे कतरनी चावल के पैदावार में क्यों कमी आ रही हैं? इस सवाल का जबाव बीएयू के पौधा प्रजनन विभाग के वैज्ञानिक डॉ. मंकेश कुमार विस्तार से दिप्रिंट को बताते हैं कि ‘2015-16 में भागलपुर, बांका व मुंगेर में 968.77 एकड़ में कतरनी का उत्पादन होता था, जो घटकर अब 500-600 एकड़ रह गया है. किसान के कतरनी चावल को छोड़ने की बहुत मुख्य वजह है. सबसे मुख्य समस्या सिंचाई का है. कतरनी चावल के उत्पादन का मुख्य केंद्र चानन नदी पर निर्भर था, जो धीरे-धीरे सूख रही है. साथ ही अन्य चावल की अपेक्षा कतरनी चावल के उत्पादन में अधिक समय लगता है. जहां दूसरे किस्म के धान का पौधा अक्टूबर में कट जाता है वहीं कतरनी का पौधा दिसंबर में कटता है. जिस वजह से कतरनी चावल के किसान गेहूं की खेती भी नहीं कर पाते हैं.’

‘साथ ही अन्य चावल की अपेक्षा सरकार के द्वारा कतरनी चावल पर एमएसपी लागू नहीं है. इस सब के बावजूद असली कतरनी चावल आने से पहले ही नकली कतरनी चावल बाजार में गिरा रहता है. बिचौलिया मुनाफा कमाने के लिए सोनम धान में 70 से 80 रुपये किलो सुगंध डालकर कतरनी के नाम से बेच रहे हैं. सोनम धान कतरनी से मिलता-जुलता है लेकिन उसमें प्राकृतिक सुगंध नहीं होती है और उत्पादन भी अन्य धान की तरह ही होता है.’ आगे मंकेश कुमार बताते हैं.


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चानन नदी का पानी खेत तक नहीं पहुंच रहा

बीएयू के पौधा प्रजनन विभाग के वैज्ञानिक डॉ. मंकेश कुमार दिप्रिंट को बताते हैं कि, ‘चानन नदी का कतरनी के उत्पादन में विशेष योगदान है. चानन नदी के बेल्ट में कतरनी चावल बहुत ही सुगंधित रहता है. बाकी जगहों पर कतरनी के उत्पादन व अन्य स्थलों पर उस तरह का कतरनी का उत्पादन नहीं हो पा रहा है. स्पष्ट है कि चानन के बालू में कुछ दूसरे तत्व हैं, जो कतरनी के उत्पादन में सहायक भूमिका निभा रहे हैं.’

भागलपुर जिला के जगदीशपुर क्षेत्र के हाट बाजार व्यापारी विकास संघ के अध्यक्ष प्रह्लाद झा दिप्रिंट को बताते हैं कि, ‘जगदीशपुर क्षेत्र में अधिक मात्रा में कतरनी धान की खेती होती है. धीरे-धीरे क्षेत्र के अधिकतर लोग खेती को छोड़ रहे हैं. इसकी मुख्य वजह चानन नदी में पानी का सूखना है. चानन नदी में पानी नहीं आ रहा है. जो पानी आ भी रहा है, वह गहराई अधिक होने से किसानों के खेत तक नहीं पहुंच रहा है.’

आगे प्रह्लाद झा बताते है, ‘चानन नदी के सूखने की मुख्य वजह नदी से लगातार माफिया द्वारा अवैध खनन है. बालू के लिए नदी का अवैध खनन किए जाने के कारण नदी के पानी से खेतों में सिंचाई संभव नहीं हो पा रही है. नदी से रेत उत्खनन कर नदी की गहराई बढ़ जाने से एक भी सिंचाई नाला विगत 10 वर्षों से काम नहीं कर रहा है. जिससे असली कतरनी की खुशबू लगभग खत्म हो गई है. भले ही सरकारी आंकड़ों से बालू माफिया पर अंकुश का दावा किया जाता है लेकिन धरातल की सच्चाई कुछ और ही है.’

खुशबू ही बनती जा रही कतरनी का दुश्मन

विश्व में अपनी स्वाद व खुशबू के लिए प्रसिद्ध कतरनी के लिए अब उसकी खुशबू ही दुश्मन बनती जा रही है. तभी तो सोनम और महीन चावल में सुगंधित इत्र डालकर कतरनी के नाम पर बेचा जा रहा है.

भागलपुर में 20 वर्ष कृषि विभाग में अपनी सेवा दे चुके रिटायर्ड कृषि पदाधिकारी अरुण कुमार झा बताते हैं कि, ‘2010-12 के आसपास कतरनी धान में आखिर खुशबू कैसे आती है? इसकी जांच करने पांच सदस्यीय टीम फिलिपिंस से भागलपुर आई थी. जगदीशपुर समेत अन्य जगहों पर जाकर कतरनी की फसल व मिट्टी की जांच की. विदेशी वैज्ञानिकों के मुताबिक़ यहां की मिट्टी में कोई जिवांश है जो धान में सुगंध भर देता है.’

अरुण झा बताते है, ‘लेकिन आज बाजार में मिलावटी कतरनी चावल की भरमार है. लोग खुशबू से कतरनी की पहचान कर लेते हैं. लेकिन हकीकत यह है कि बाजार में क्या खेतों में भी कतरनी उपलब्ध नहीं है. बाजार में नकली कतरनी को 70 से 80 रुपये किलो बेचा जा रहा है. जबकि असली कतरनी यदि 100 रुपये प्रति किलो की दर से बिक्री की जाए तो ही किसानों को इससे लाभ होगा.’

2017 में ही सरकार को किया गया था अलर्ट

2017 में डॉ. राजीव कुमार सिन्हा के नेतृत्व में तिलकामांझी भागलपुर विवि स्थित कृषि आर्थिक अनुसंधान केंद्र ने कतरनी चावल की दुर्दशा पर हुए शोध की रिपोर्ट कृषि मंत्रालय को भेजकर इसके अस्तित्व को बचाने की गुहार लगाई गई थी. रिपोर्ट में इस बात को स्पष्ट रूप से लिखा गया था कि अगर समय रहते इसे बचाने की पहल नहीं की गई तो कतरनी धान कल की बात हो जाएगी.

राजीव बताते हैं कि, ‘हम लोगों के द्वारा रिपोर्ट भेजने के बाद बिहार सरकार के कृषि रोडमैप में कतरनी को भी स्थान मिला था. इसके बावजूद इस खुशबूदार धान को बचाने के लिए राज्य सरकार भी कोई पहल नहीं कर रही है. अब तो भागलपुर व बांका जिले में कतरनी धान की खेती सिमट गई है.’

2018 में कतरनी धान को मिला GI Tag

सुगंधित और स्वादिष्ट कतरनी धान की नस्ल को विलुप्त होने से बचाने और इसे विशिष्ट पहचान दिलाने के लिए साल 2018 में बौद्धिक सम्पदा अधिकार, नई दिल्ली की ओर इसे जीआई टैग प्रदान किया जा चुका है. गौरतलब है कि भागलपुरी कतरनी धान की पहचान के लिए भी 20 जून 2016 को ही भागलपुर कतरनी धान उत्पादक संघ ने आवेदन दिया था. बता दें कि GI Tag के ज़रिये किसी खाद्य पदार्थ, प्राकृतिक और कृषि उत्पादों तथा हस्तशिल्प के उत्पादन क्षेत्र की गारंटी दी जाती है.

महात्मा बुद्ध ने भी चखा था कतरनी धान से तैयार खीर का स्वाद

साहित्यकार और भदरिया निवासी परमानंद प्रेमी बताते हैं कि ‘प्रसिद्ध साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक महाबोधि सभा में भी कतरनी चावल का जिक्र किया है. पुस्तक के अनुसार महात्मा बुद्ध बौद्ध काल में अपनी शिष्या विशाखा से मिलने आने पर भादरिया में कतरनी चावल के खीर का स्वाद चखा था. भादरिया में बुद्ध के साथ उनके 1200 बौद्ध भिक्षु भी पहुंचे थें.’

(राहुल स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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