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Friday, 22 November, 2024
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भारत पहले भी रूस के खिलाफ मतदान करने से बचता रहा है, इसके पीछे दिल्ली के अपने सुरक्षा हित जुड़े हैं

भारत ने रूस की 'आक्रामकता' के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपना पारंपरिक रुख ही अपनाया. यह भारत की सुरक्षा को प्रभावित करने वाले मामलों पर पश्चिमी दिशों और यूएनएससी की कार्रवाइयों के खिलाफ एक ‘ऐतिहासिक नाराजगी’ की उपज है.

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नई दिल्ली: यूक्रेन के साथ रूस द्वारा छेड़े गए युद्ध के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में मतदान से दूर रहने का भारत का निर्णय पश्चिमी देशों के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा नई दिल्ली के अपने राष्ट्रीय सुरक्षा हितों की रक्षा करने में निभाई गई भूमिका के प्रति गहरी नाराजगी से जुड़ा है- चाहे यह जम्मू और कश्मीर का मामला हो, बांग्लादेश का हो या फिर चीन के संबंध में हो.

शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टी.एस. तिरुमूर्ति ने ठीक वही करने का फैसला किया जो भारत ने हमेशा पारंपरिक रूप से ऐसे हालात में किया है जब उसके द्वारा रूस के खिलाफ कोई रुख अपनाने की उम्मीद की गई है. भारत ने अमेरिका द्वारा प्रायोजित यूएनएससी के उस प्रस्ताव पर मतदान से परहेज किया, जिसमें यूक्रेन के खिलाफ रूस की ‘आक्रामकता’ की ‘कड़ी शब्दों में निंदा’ की गई थी. हालांकि, तिरुमूर्ति ने ‘अफसोस’ जताया कि ‘कूटनीति के मार्ग को छोड़ दिया गया है’ और उन्होंने सभी पक्षों से ‘इस पर लौटने’ का आग्रह किया.

15-सदस्यीय सुरक्षा परिषद में इस प्रस्ताव के पक्ष में 11 मत और इसके विरुद्ध सिर्फ एक मत (रूस का) प्राप्त हुआ. तीन सदस्य- भारत, संयुक्त अरब अमीरात, चीन- मतदान से अनुपस्थित रहे.

आधिकारिक सूत्रों ने कहा, ‘इससे (मतदान से) दूर रहकर, भारत ने संवाद और कूटनीति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से अंतर को पाटने और कोई बीच का रास्ता खोजने के प्रयास में प्रासंगिक पक्षों तक पहुंचने का विकल्प बरकरार रखा.’

सूत्र ने कहा कि प्रस्ताव के पहले वाले मसौदे में इसे संयुक्त राष्ट्र चार्टर के चैप्टर-VII के तहत स्थानांतरित करने का प्रस्ताव दिया था, जो वह फ्रेमवर्क (रूपरेखा) प्रदान करता है जिसके तहत सुरक्षा परिषद इस लागू करवाने के लिए कार्रवाई (एनफोर्समेंट एक्शन) कर सकती है. मगर, इस प्रावधान को प्रस्ताव के उस अंतिम संस्करण में हटा दिया गया था जिसे मतदान के लिए पेश किया गया था.

भारत ने बाद में अपने वोट के बारे में एक स्पष्टीकरण भी जारी किया, जिसमें उसने ‘राज्यों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने’ का आह्वान किया.


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जब भारत ने 1948 में यूएनएससी में क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का मुद्दा उठाया था

1 जनवरी, 1948 को यूएनएससी को लिखे एक पत्र में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सुरक्षा परिषद से जम्मू और कश्मीर की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करने और ‘पाकिस्तान से भारत के खिलाफ उसकी आक्रामकता वाली कार्रवाई को तुरंत समाप्त करने का आग्रह किया था’.

इसके बाद ब्रिटिश पक्ष ने हस्तक्षेप किया और भारत को जानकारी में रखे बिना, उन्होंने इस बारे में पाकिस्तान की जवाबी प्रतिक्रिया को समायोजित करते हुए एक प्रस्ताव पारित करवाया, जिसकी वजह से भारत और पाकिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र आयोग (यूएनसीआईपी) की स्थापना हुई और बाद में जम्मू और कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का मैंडेट जारी किया गया.

पूर्व भारतीय राजदूत और न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र में स्थायी प्रतिनिधि रहे अशोक मुखर्जी ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमारी स्थिति हमारे अपने हित में है. हमें इतिहास को पलट कर देखने और यह जानने की जरूरत है कि 1948 में हमारे साथ उस वक्त क्या हुआ था जब हमने यूएनएससी में अपनी क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता (की रक्षा) के मुद्दे को उठाया था. यूएनएससी ने हमारी शिकायत पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की और पाकिस्तान को हमारे क्षेत्र पर कब्जा जमाये रखने की अनुमति दी, जो आज तक बना हुआ है.’

मुखर्जी ने कहा, ‘हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि कोई राजनीतिक समाधान निकालने में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय और यूएनएससी की क्या भूमिका है? संयुक्त राष्ट्र चार्टर का चैप्टर VI इस बारे में एक विस्तृत रोडमैप प्रदान करता है कि किसी भी विवाद के राजनीतिक समाधान के लिए यूएनएससी द्वारा कूटनीति का उपयोग किस प्रकार से किया जाना चाहिए. मिन्स्क समझौतों, जिन्हें 2015 में यूएनएससी के एक प्रस्ताव द्वारा अनुमोदित किया गया था, में निहित सभी विवरणों के बावजूद मसौदा प्रस्ताव में इस मुद्दे पर कोई बात नहीं की गई थी.’

बता दें कि मिन्स्क समझौते 2014 और 2015 में यूक्रेन सरकार और रूस समर्थित अलगाववादियों के बीच की हिंसा को रोकने के प्रयास से किये गए दो समझौते थे.

विजय नांबियार, जो न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के स्थायी प्रतिनिधि (2002 से 2004 तक) और साथ ही भारत के उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी रहे हैं, ने कहा, ‘भारत द्वारा यूक्रेन के मुद्दे पर रूस के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में मतदान से परहेज किये जाने को लेकर हमें इस कदम को इस दृष्टिकोण से देखना होगा कि हमने अब तक रूस के साथ कैसे काम किया है और सोवियत संघ के जमाने से ही उसने हमें पारंपरिक रूप से जो समर्थन प्रदान किया है, उसे भी ध्यान में रखना होगा.‘

नांबियार, जो पाकिस्तान में भारत के उच्चयुक्त भी थे, ने कहा, ‘एकमात्र पी-5 देश जिसने हमारे सबसे महत्वपूर्ण चिंता वाले मामलों में हमारी मदद की, वह है रूस. रूस हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी चिंताओं पर, विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर के संबंध में निरंतर रूप से हमारा समर्थक रहा है. इसलिए, हमारे लिए भी रूस की राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी चिंताओं के प्रति समान रूप से संवेदनशील होना अहम बात है.’ पी-5 देश यूएनएससी के पांच स्थायी सदस्य हैं- चीन, फ्रांस, रूस, यूके और यूएस.

उन्होंने कहा, ‘भारत हमेशा से क्षेत्रीय अखंडता और राज्यों की संप्रभुता के सिद्धांतों का पुरजोर समर्थन करता रहा है और हमें इन सिद्धांतों से दूर जाते हुए नहीं देखा जा सकता है. इसलिए हमने (यूक्रेन पर) सेक्रेट्री जेनरल (संयुक्त राष्ट्र महासचिव) के बयान का समर्थन किया है और मोटे तौर पर हमने राजनयिक समाधान की आवश्यकता के विचार का ही समर्थन किया है.’


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हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, अफगानिस्तान और कंबोडिया जैसे मुद्दों पर रूस के लिए भारत का समर्थन

मॉस्को के साथ एक समय की कसौटी पर खरे उतरने वाले भागीदार के रूप में भारत ने ऐतिहासिक रूप से रूस की आलोचना करने से परहेज किया है, तब भी जब उसने 1956 में हुई हंगेरियन क्रांति और 1968 में चेकोस्लोवाकिया के प्राग स्प्रिंग को दबाने के लिए प्रयास किया था.

सैमुएल वासापोलो ने मॉस्को स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस, रूस के लिए लिखे गए अपने पेपर में उल्लेख किया है कि, ‘हंगेरियन और चेक संकट, 1948 में सोवियत संघ और यूगोस्लाविया के बीच आयी दरार के बाद से पूर्वी यूरोप में सोवियत संघ के लिए इतिहास की सबसे दर्दनाक घटनाओं में से एक थे.‘

वासापोलो के अनुसार, ये दोनों देश कम्युनिस्ट (वामपंथी) शासन के विरोधी थे. वे लिखते हैं, ‘यूएसएसआर (सोवियत संघ) प्रशासन की व्यापक और पुरानी समस्याएं बड़े पैमाने पर प्राग में भी उसी तरह से मौजूद थीं, जैसे कि पोलैंड, हंगरी और पड़ोसी देशों में. इनमें खाने के सामान की कमी और सोवियत खुफिया पुलिस, जिन्होंने किसी भी आंतरिक अशांति को रोकने के लिए हिंसा और धमकी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया था, से जुड़े निरंतर दमन जैसी समस्याएं भी शामिल थीं. ‘

यहां एक दिलचस्प बात यह है कि जयराम रमेश ने अपनी पुस्तक ‘ए चेकर्ड ब्रिलिएंस: द मैनी लाइव्स ऑफ वी.के. कृष्णा मेनन ‘ में उल्लेख किया है कि मेनन, जो 1957 में संयुक्त राष्ट्र में भारत के विशेष प्रतिनिधि थे, ने हंगरी के मामले में नेहरू के ‘सोवियत रुख का समर्थन न करने के निर्देशों’ की अनदेखी करने का विकल्प चुना. बाद में, रूसियों ने भारत के इस ‘कदम’ का जवाब यूएनएससी द्वारा कश्मीर में जनमत संग्रह कराने के लिए भारत को प्रेरित करने वाले आह्वान पर रोक लगाकर दिया.

बाद में, साल 1957 से 1962 तक भारत के रक्षा मंत्री के रूप में मेनन ने रूसियों की मदद से भारत के हथियार उद्योग की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

साल 1979 भी भारत-रूस संबंधों के लिए काफी महत्वपूर्ण था, जब इन्हें एक बार फिर से संयुक्त राष्ट्र की मेज पर परखा गया.

उस साल के सितंबर महीने में संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत ब्रजेश मिश्रा ने वियतनामी हस्तक्षेप द्वारा कंबोडिया से पोल पॉट शासन को सत्ता से बाहर किये जाने के मसले पर चीन, दक्षिण पूर्व एशियाई देशों और यूएसएसआर के बीच संतुलन साधने की भरपूर कोशिश की. उस वक्त रूस और वियतनाम पर कम्पूचियन लोगों पर आक्रमण के रूप में युद्ध थोपने का आरोप लगाया गया था.

यही वह साल भी था जब 24 दिसंबर, 1979 को यूएसएसआर ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया था. एक महीने बाद, जनवरी 1980 में भारत पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासन के तहत, यूएसएसआर के कदम का ‘समर्थन’ करने का आरोप लगाया गया क्योंकि नई दिल्ली ने एक बार फिर मास्को का समर्थन किया था.

तब भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को बताया था कि अफगानिस्तान में हाफिजुल्ला अमीन की वामपंथी सरकार के अनुरोध पर ही सोवियत सैनिकों ने काबुल में प्रवेश किया था.


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जब यूएनएससी ने 1971 के बांग्लादेश युद्ध को मान्यता नहीं दी

‘इंडिया इन यूएन 1971’ विषय पर एक व्याख्यान को संबोधित करते हुए मुखर्जी ने इस बात का उल्लेख किया था कि जब यूएनएससी ने 21 दिसंबर, 1971 को रेसोल्यूशन 307 को पारित किया था तो कैसे भारत को अमेरिका की ओर से कोई समर्थन नहीं मिला था और उसे यूएसएसआर, फ्रांस और यूके के साथ सहयोग करना पड़ा था.

उन्होंने कहा, ‘इस संकल्प पत्र में युद्धविराम, भारत और पाकिस्तान के सशस्त्र बलों को एक-दूसरे के क्षेत्रों से वापस बुलाने और संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षकों की तैनाती का आह्वान किया गया था.’

साथ ही उन्होंने उल्लेख किया कि, ‘सोवियत संघ ने एक मसौदा प्रस्ताव का प्रस्ताव रखा जिसमें पूर्वी पाकिस्तान में युद्धस्थिति की समाप्ति की पूर्व शर्त के रूप में कोई राजनीतिक हल निकाले जाने का आह्वान किया गया था.’


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2014 के क्रीमियन आक्रमण के दौरान भी भारत मतदान से अलग रहा

2014 की शुरुआत में यूक्रेन के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में बड़े पैमाने पर राजनीतिक संकट छिड़ गया था. इस प्रायद्वीप पर औपचारिक रूप से कब्जा करने से पहले मार्च 2014 में रूसी सैनिकों ने क्रीमिया क्षेत्र में चुपके से प्रवेश किया था. बाद में क्रीमिया के लोगों ने एक विवादित स्थानीय जनमत संग्रह के द्वारा रूस में शामिल होने के पक्ष में मतदान किया.

तब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने क्रीमिया और दक्षिण-पूर्व यूक्रेन में रूसी नागरिकों और रूसी भाषा बोलने वालों के अधिकारों की रक्षा करने की आवश्यकता का हवाला दिया था. न्यूयॉर्क स्थित थिंक टैंक काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस (सीएफआर) ने उल्लेख किया है कि इस संकट ने (यूक्रेन में) जातीय विभाजन को और बढ़ा दिया, तथा दो महीने बाद पूर्वी यूक्रेन के डोनेत्स्क और लुहान्स्क क्षेत्रों में रूस-समर्थक अलगाववादियों ने कीव से स्वतंत्रता की घोषणा करने के लिए एक जनमत संग्रह आयोजित किया.

संयुक्त राष्ट्र में पूर्व भारतीय दूत, हरदीप सिंह पुरी, जो वर्तमान में केंद्रीय मंत्री हैं, ने अपनी पुस्तक ‘पेरिलस इंटरवेंशन्स: द सिक्योरिटी काउंसिल एंड द पॉलिटिक्स ऑफ कैओस ‘ में जिक्र किया है कि 6 मार्च, 2014 को पूर्व विदेश सचिव शिवशंकर मेनन, जो उस समय भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे, ने कहा था ‘वहां रूस के वैध हित शामिल हैं और हम आशा करते हैं ..उनके लिए एक समाधान उपलब्ध है.’

बाद में दिसंबर 2014 में जब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अपनी वार्षिक शिखर वार्ता के लिए नई दिल्ली का दौरा किया, तो उनके साथ अनौपचारिक रूप से क्रीमिया के कार्यवाहक राष्ट्रपति सर्गेई अक्स्योनोव भी थे तथा इस बात ने अमेरिका को नाराज भी किया था.


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यूक्रेन पर मतदान के बाद अमेरिका के साथ हमारे रिश्तों पर पड़ेगा असर?

यूक्रेन के मुद्दे पर गुरुवार को हुए मतदान के बाद संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी मिशन द्वारा जारी एक संयुक्त बयान में कहा गया है कि वाशिंगटन और अन्य 50 देशों, जिन्होंने रूस के खिलाफ कार्रवाई का समर्थन किया था, का कहना है कि वे अब इस मामले को संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) में ले जाएंगे, जहां रूसी वीटो लागू नहीं होता है और दुनिया के देश रूस को जवाबदेह ठहराते रहेंगे.’

मगर, यह भारत के अमेरिका, जो उसका एक रणनीतिक साझेदार हैं, के साथ द्विपक्षीय संबंधों को भी प्रभावित कर सकता है. ज्ञात हो कि भारत अमेरिका का एक प्रमुख रक्षा भागीदार है और इंडो-पैसिफिक स्ट्रेटेजिक कंस्ट्रक्ट (हिंद-प्रशांत रणनीतिक संरचना) में भी एक प्रमुख सहयोगी है.

मुखर्जी ने कहा, ‘वाशिंगटन को यह स्वीकार करना चाहिए कि हमारी अनुपस्थिति इस संकट के राजनयिक समाधान के लिए आवश्यकता और जगह दोनों को बढ़ावा देने से जुड़े हमारे अपने राष्ट्रीय हितों को प्रतिबिंबित करती है. यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि हम दूसरा शीत युद्ध नहीं चाहते. भारत और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों, जिन्होंने इस मसौदा प्रस्ताव पर मतदान से परहेज किया, ने इस बात को समझाया है कि क्यों हम इस संकट को दूर करने के लिए कूटनीति के उपयोग को प्राथमिकता देते हैं.’

नांबियार के अनुसार, ‘अपनी स्थिति को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने के साथ भारत ऐसे महत्वपूर्ण समय में ऐतिहासिक रूप से अपनी पकड़ बनाने में सक्षम रहा है. हम जागरूक हैं और हमें सावधान रहना चाहिए कि हम इस बारे में कैसे आगे बढ़ते हैं.’

उन्होंने कहा, ‘अब जब यह प्रस्ताव यूएनजीए में जाता है, तो मेरा अनुमान है कि हम फिर से अनुपस्थित रहेंगे लेकिन अपने बयान में हमें संयम, सभी देशों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं के सम्मान और लोगों के आत्मनिर्णय के बारे में भी बात करनी होगी. जम्मू-कश्मीर पर हमारे रुख के बावजूद यही सच है. हमेशा से हमारा रुख औपनिवेशिक और विदेशी वर्चस्व के तहत जी रहे लोगों के लिए आत्मनिर्णय के समर्थन का रहा है.’

उन्होंने कहा, ‘हालांकि हम मानते हैं कि अमेरिका के साथ हमारे संबंध काफी विकसित हुए हैं और हमें उनके साथ अपने संबंधों को संवेदनशीलता के साथ संभालना है, मगर वे भी यह जानते हैं कि जब भी वास्तव में हमारे हितों के समर्थन की बात आती है, तो हमेशा मास्को ही हमारे लिए आगे आया है, न कि वाशिंगटन.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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