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Thursday, 25 April, 2024
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दलबदल, असफल नेतृत्व, भरोसे की कमी-मणिपुर में कांग्रेस का ‘खुबक’ कैसे कमजोर होता चला गया

पिछले छह दशकों में चार से अधिक दशक तक कांग्रेस मणिपुर में सत्तासीन रही है, जो यहां की किसी भी अन्य पार्टी की सरकार के कार्यकाल से अधिक है. लेकिन 2017 के बाद से राज्य में पार्टी की पकड़ कमजोर हो गई है.

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इंफाल/थौबल जिला: मणिपुर में एक लंबे समय तक कांग्रेस की स्थिति काफी मजबूत रही है. 1963 (जब उसने पहली बार राज्य विधानसभा चुनाव जीता था) से लेकर 2017 के पिछले विधानसभा चुनाव तक (जब भाजपा ने सरकार बनाई) पार्टी ने यहां 41 साल तक शासन किया है- यह किसी ऐसे राज्य में महत्वपूर्ण उपलब्धि से कम नहीं जहां राजनीतिक परिदृश्य सालों-साल उग्रवाद से प्रभावित रहा है और जिसके कारण कई बार राष्ट्रपति शासन की नौबत भी आई.

राज्य में कांग्रेस के शासनकाल के दौरान 2002 और 2017 के बीच पूर्व मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह के तीन कार्यकाल शामिल हैं- यह मणिपुर में किसी भी सीएम का सबसे लंबा कार्यकाल है.

अब जबकि राज्य एक बार फिर विधानसभा चुनावों के लिए तैयार है—28 फरवरी और 5 मार्च को दो चरणों में मतदान होना है और नतीजे 10 मार्च को घोषित होंगे—मणिपुर में कांग्रेस के भविष्य को लेकर सवाल उठ रहे हैं जो कि 2017 के विधानसभा चुनावों में हार और पार्टी नेताओं के दलबदल के कारण कमजोर स्थिति में आ गई है.

अपना नाम जाहिर करने के अनिच्छुक इंफाल के एक 34 व्यक्ति ने कहा, ‘बचपन से ही यहां पर केवल खुबक (जनजातीय मैतेई समूह की बोली मेइतिलोन में इसका मतलब कांग्रेस का प्रतीक चिह्न ‘पंजा’ होता है) का ही दबदबा देखा है. हमने अपनी दादी-नानी और माताओं के समय यही देखा है. अब हम थंबल (कमल) को भी देख रहे हैं.’

मणिपुर में 2012 में कांग्रेस के विधायकों की संख्या 47 (60 सदस्यीय सदन में) थी जो 2017 में घटकर 28 और पिछले कुछ महीनों में मात्र 13 रह गई है. विशेषज्ञों का मानना है कि खुबक का दबदबा घटा है और इसकी वजह राज्य की राजनीतिक संस्कृति में बदलाव के साथ-साथ संगठन की आंतरिक समस्याएं भी हैं.

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सत्ता पर रही मजबूत पकड़

कांग्रेस ने 1963 में पहली बार विधानसभा चुनाव जीता और मैरेम्बम कोइरेंग सिंह मणिपुर के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री बने.

2002 तक मणिपुर में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कांग्रेस और कुछ क्षेत्रीय दलों के नेता काबिज होते रहे जिसमें कांग्रेस से टूटे कुछ गुट और वाम दल शामिल थे.

यही नहीं, 1960 के बाद से राज्य ने यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ), पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ कंगलीपाक (पीआरईपीएके) और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ऑफ मणिपुर (पीएलए) जैसे विद्रोही समूहों का उदय भी देखा—इन अलगाववादी समूहों का मानना है कि भारत संघ के साथ मणिपुर का जबरन विलय किया गया था. जनजातीय मिलिशिया—नगा और कुकी समूह—के साथ राजनीतिक पहलू जुड़ने से तनाव और बढ़ गया और यही 1990 के दशक में जातीय संघर्ष का कारण भी बना.

इसी राजनीतिक पृष्ठभूमि के बीच ओकराम इबोबी सिंह ने अपना राजनीतिक सफर शुरू किया- पहले 1984 में खंगाबोक सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव जीते, फिर एक साल बाद कांग्रेस में शामिल हो गए. 2002 के विधानसभा चुनावों के बाद जब कांग्रेस मणिपुर में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी तो इबोबी सिंह को पहली बार मुख्यमंत्री बनाया गया. इसके बाद पार्टी ने अगले दो चुनाव जीते, और इबोबी सिंह मणिपुर में सबसे लंबे समय तक सत्ता में रहने वाले मुख्यमंत्री बन गए—यह एक ऐसे राज्य में किसी महत्वपूर्ण उपलब्धि से कम नहीं है जहां पहले विद्रोह के कारण सरकारें अपना कार्यकाल तक पूरा नहीं कर पाती थी और राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ जाता था.

हालांकि, इबोबी सिंह के तीन कार्यकाल के दौरान मणिपुर के पहाड़ी और घाटी क्षेत्रों के बीच बढ़ते तनाव ने स्थिति को बिगाड़ा ही, क्योंकि यह एक ऐसा फैक्टर है जो हमेशा से ही राज्य के राजनीतिक परिदृश्य पर हावी रहा है.

मणिपुर की भौगोलिक स्थिति के लिहाज से करीब 90 फीसदी इलाका पहाड़ी क्षेत्र में आता है, हालांकि आबादी के लिहाज से उनकी हिस्सेदारी बेहद कम है. 60 सदस्यीय विधानसभा में से पहाड़ी क्षेत्रों की भागीदारी केवल 20 सीटों तक ही सीमित है.

ये क्षेत्र मुख्य रूप से नगा और कुकी जनजातियों घर हैं और ऐतिहासिक रूप से सभी विकास संकेतकों पर ये मैतेई (मणिपुर का प्रमुख जातीय समूह) लोगों के वर्चस्व वाले घाटी क्षेत्रों से पिछड़े हैं. इबोबी सिंह के सत्ता में रहने के दौरान, इनर लाइन परमिट (किसी संरक्षित क्षेत्र की यात्रा के लिए अनुमति संबंधी एक सरकारी एक दस्तावेज) की मांग को लेकर मैतेई लोगों की अगुवाई वाले विरोध प्रदर्शनों और पहाड़ विरोधी करार दिए गए तीन विवादास्पद बिलों ने खासकर पहाड़ी-घाटी विभाजन को और गहरा कर दिया.

आरोप लगाया गया कि ये बिल- मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार (सातवां संशोधन) विधेयक और मणिपुर दुकान और प्रतिष्ठान (दूसरा संशोधन) विधेयक- मैदानी इलाकों के लोगों, खासकर मैतेई को आदिवासी क्षेत्रों में अतिक्रमण का मौका देंगे.

इबोबी सिंह सरकार द्वारा एनएससीएन (आई-एम) के महासचिव थुइंगलेंग मुइवा को अपने पुश्तैनी गांव का दौरा करने के लिए राज्य में प्रवेश की अनुमति न दिए जाने से भी कांग्रेस के खिलाफ असंतोष बढ़ा, खासकर उखरुल जैसे नगा-बहुल पहाड़ी क्षेत्रों में—जो नगा आंदोलन का नेतृत्व करने वाले नेताओं का जन्मस्थान है.

फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट

हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि इबोबी सिंह का पूरा कार्यकाल खराब नहीं रहा.

राज्य के राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि उनकी सरकार ने 2004 में इम्फाल और उसके आस-पास के सात निर्वाचन क्षेत्रों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम निरस्त करने समेत कई समस्याओं पर सफलता से काबू पाया, जिसमें प्रीपेड मीटर का इस्तेमाल कर ब्लैकआउट की समस्या दूर करना और इंफाल में सड़क चौड़ीकरण परियोजनाएं शुरू करना शामिल है.

इबोबी सिंह के अस्थिर कार्यकाल के बावजूद मणिपुर में पार्टी की स्थिति अमिट रही और 2017 के चुनावों में कांग्रेस ने 28 सीटें जीतीं, जबकि 2012 के चुनावों में उसे 42 सीटें हासिल हुई थीं. इसके बाद, मणिपुर स्टेट कांग्रेस पार्टी के पांच विधायक भी अंततः कांग्रेस में शामिल हो गए, और दोनों दलों के विलय के साथ मणिपुर में कांग्रेस के विधायकों की संख्या 47 हो गई.

इस बीच, कभी इबोबी सिंह के सहयोगी रहे और 2016 में पार्टी बदलने वाले एन. बीरेन सिंह के नेतृत्व में भाजपा 2017 में अपनी सीटें शून्य से बढ़ाकर 21 करने में सफल रही.

आखिरकार, भाजपा ने अंतिम क्षणों में नेशनल पीपुल्स पार्टी, नगा पीपुल्स फ्रंट और लोक जनशक्ति पार्टी के साथ गठबंधन करके राज्य में सरकार बना ली.

इंफाल रिव्यू ऑफ आर्ट्स एंड पॉलिटिक्स के संपादक प्रदीप फांजौबम कहते हैं, ‘इबोबी सिंह सरकार के पतन की एक बड़ी वजह केंद्र में (2014 में) भाजपा का उदय रहा. कुछ सत्ता विरोधी लहर थी, फिर भी उन्होंने (कांग्रेस ने) 28 सीटें जीती थीं.’

हालांकि, उन्होंने आगे कहा कि मणिपुर की चुनावी राजनीति में दिखावे का भी बोलबाला रहता है, ‘इसमें धनबल, व्यक्तित्व और बंदूक संस्कृति के बलबूते से जीत हासिल की जाती है.’


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लगातार गिरता ग्राफ

हालांकि, 2017 के चुनावों के बाद राजनीतिक ‘कार्निवल’ अच्छी तरह चलते रहने के बीच विधानसभा में कांग्रेस की पकड़ पूरी तरह खत्म नहीं हुई है.

इन पांच वर्षों में सदन में पार्टी के विधायकों की घटकर 15 ही रह गई है क्योंकि बाकी अन्य पार्टियों के साथ चले गए.

सबसे बड़ा झटका पिछले साल अगस्त में लगा जब मणिपुर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष और बिष्णुपुर विधानसभा क्षेत्र से छह बार के विधायक गोविंददास कौंठोजम पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए.

नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के एक एसोसिएट प्रोफेसर बिमोल अकोइजम का कहना कि निश्चित तौर पर दलबदल ही मणिपुर में कांग्रेस की स्थिति कमजोर होने का कारक नहीं है, बल्कि यह राज्य की व्यापक राजनीतिक संस्कृति से जुड़ा है.

उन्होंने कहा, ‘जो भी केंद्र में सरकार बनाता है, मणिपुर जैसे छोटे राज्यों में आकर यहां की सत्ता को दशा-दिशा देने की कोशिश करता है. अगर केंद्र में कांग्रेस सत्ता में आ जाए तो भाजपा भी कमजोर पार्टी बन जाएगी. राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के पास एक अच्छी चुनावी मशीनरी है; जाहिर है कांग्रेस पर इसका कुछ प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है.’

वहीं, मणिपुर के अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी प्रभारी भक्तचरण दास दलबदल के लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहराते हैं. उन्होंने कहा, ‘भाजपा की प्रवृत्ति विभिन्न राज्यों में विस्तार की थी और इसके लिए उसने हर कीमत पर विधायकों की खरीद-फरोख्त पर जोर दिया.’

उन्होंने कहा, ‘दुर्भाग्य से हमारे कुछ विधायक साथ छोड़ गए, लेकिन जो गए वे निश्चित तौर पर वैचारिक तौर पर कांग्रेस से जुड़े नहीं थे और पार्टी के लिए उनकी कोई प्रतिबद्धता नहीं थी.’

एनपीपी नेता और मणिपुर के उप-मुख्यमंत्री युमनाम जॉयकुमार सिंह के मुताबिक, हालांकि, कांग्रेस को ‘कमजोर केंद्रीय नेतृत्व का खामियाजा’ भी भुगतना पड़ रहा है. एनपीपी इस राज्य के साथ-साथ मेघालय में भी भाजपा के साथ गठबंधन में है, लेकिन दोनों पार्टियां इस बार मणिपुर चुनाव अलग-अलग लड़ रही हैं.

दलबदल का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, ‘वे (कांग्रेस) गांधी परिवार को छोड़कर युवा पीढ़ी के किसी नेता को पार्टी में बढ़ने नहीं देते हैं. मध्य प्रदेश में क्या हुआ, राजस्थान में क्या होते बचा…यही स्थिति मणिपुर में भी रही है.’

हालांकि, अकोइजम का विचार है कि राष्ट्रीय स्तर की तुलना में मणिपुर में कांग्रेस अभी भी ‘बेहतर’ स्थिति में है, क्योंकि 73 वर्षीय इबोबी सिंह राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बने हुए हैं. उन्होंने कहा, ‘इबोबी सिंह की मौजूदगी पार्टी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और इसका फर्क नजर आता है.’

राजनेता और विशेषज्ञ कमोबेश इस बात पर सहमत हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में कांग्रेस की सीटें 2017 की तुलना में इस बार और कम होने के आसार हैं. लेकिन, इसके नतीजे आने अभी बाकी हैं कि क्या वह सरकार में वापसी कर पाएगी, खासकर यह देखते हुए कि राज्य में एनपीपी और भाजपा के बीच अटूट गठबंधन चुनावों से ऐन पहले एक अजीब मोड़ ले चुका है और दोनों पार्टियों के नेता एक-दूसरे पर निशाना साध रहे हैं.

स्थानीय कांग्रेस उम्मीदवार के लिए महिलाएं भोजन ले जाती हुई, जो उम्मीदवार के लिए उनके समर्थन को दर्शाता है | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट

दरअसल, कांग्रेस के पास 2020 में सत्ता पर पकड़ बनाने का एक सुनहरा मौका था, जब भाजपा और उसके गठबंधन सहयोगियों में बढ़ते तनाव के बीच एनपीपी ने रिश्ते तोड़ने और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लेने की धमकी दी थी.

जॉयकुमार दावा करते हैं कि वो तो कांग्रेस की ‘कमजोर कमान’, पार्टी नेताओं का दलबदल, और इसके अलावा अंतत: भाजपा नेतृत्व की तरफ से दखल दिए जाने के कारण उन्होंने अपने फैसले पर पुनर्विचार किया.


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चुनाव अभियान में पीछे

पिछले हफ्ते थौबल जिले में पार्टी के गढ़ वांगखेम निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस की एक रैली के दौरान रंगीन फेइस और फानेक्स (महिलाओं द्वारा पहने जाने वाला पारंपरिक परिधान) पहने महिलाओं का हुजूम उमड़ पड़ा था. पार्टी प्रत्याशी और मौजूदा विधायक कीशम मेघचंद्र सिंह के घर के पीछे हो रही इस जनसभा में सैकड़ों की भीड़ जमा थी.

विभिन्न लिकाई या आसपास के क्षेत्रों की महिलाएं शाही शासनकाल में एथेनपोट थुंबी के नाम से जानी जाने वाली पारंपरिक रस्म अदा करने के लिए चावल, फल और सब्जियां आदि लेकर यहां आ रही थी. इस प्रत्याशी को ये चीजें भेंट करके उसके प्रति अपना समर्थन जताया जाता है.

सफेद धोती और शर्ट पहने मेघचंद्र सिंह, इबोबी सिंह, भक्तचरण दास और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता इमरान किदवई के साथ मंच पर बैठे थे.

इबोबी सिंह ने भीड़ को संबोधित करते हुए कहा, ‘वे सभी विकास कार्य जिनके बारे में वे (भाजपा) बातें करते हैं, हमारे शासनकाल में शुरू हुए थे.’ उन्होंने पूर्वोत्तर के ही एक अन्य साथी राज्य में पिछले साल की घटना का जिक्र करते हुए कहा, ‘जब हम सत्ता में थे, तब कोई सांप्रदायिकता नहीं थी, लेकिन भाजपा के आने के बाद त्रिपुरा की तरह यहां भी ये सब शुरू हो गया है.’

कांग्रेस ने इस बार अपने अभियान के तहत मणिपुर की विकास गाथा को ‘फिर से याद दिलाने’ पर ध्यान केंद्रित किया, इसके साथ ही भाजपा पर निशाना साधते हुए इसे ‘मणिपुर की संस्कृति, इतिहास और परंपराओं पर हमला करने वाली पार्टी करार’ दिया.

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हफ्ते की शुरुआत में राज्य में इस बार के चुनाव के मौके पर अपनी पहली यात्रा के दौरान कहा था, ‘मेरा मानना है कि हर राज्य को अपनी भाषा, संस्कृति, इतिहास और खुद के बारे में एक नजरिया रखने का समान अधिकार है. लेकिन भाजपा एक विचारधारा, एक भाषा और एक संस्कृति में भरोसा करती है. भारत इन दो विचारधाराओं के बीच लड़ाई से जूझ रहा है.’

बहरहाल, भाजपा के प्रचार अभियान, जिसके तहत मणिपुर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा तक की चुनावी रैलियां हुईं, की तुलना में कांग्रेस का अभियान कमजोर ही साबित हुआ है.

हालांकि, इबोबी ने दिप्रिंट को दिए एक इंटरव्यू में दावा किया कि समर्थन जुटाने के मामले में यह ज्यादा मायने नहीं रखता है. उन्होंने कहा, ‘मैं आपको बता रहा हूं कि वे (भाजपा) वास्तव में काफी डरे हुए हैं. कांग्रेस के शासनकाल में हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अधिक से अधिक एक बार यात्रा की थी. लेकिन देखिए इस बार भाजपा के कितने केंद्रीय मंत्री यहां आए.’

जमीनी स्तर पर अलग-अलग सुर हैं. इम्फाल पूर्व में केइराव निर्वाचन क्षेत्र के एक बुनकर वाई. ओमिथा ने कहा, ‘भाजपा सरकार ने महंगाई बढ़ाई. कांग्रेस के राज में दाम कम होते थे… हम सब बुनकर हैं, हमें भाजपा के शासनकाल में कोई पैसा नहीं मिल रहा.’

लेकिन कुछ ही किलोमीटर दूर क्षत्रियगांव के निकटवर्ती निर्वाचन क्षेत्र में एक चाय की दुकान के मालिक 47 वर्षीय ओंगौ ने कहा, ‘भाजपा सरकार ने पहाड़ी-घाटी की खाई को पाटा है, पहले इसकी वजह से बहुत मुश्किलें हुआ करती थीं.’

अधिकांश लोगों के मन में चल रहे असमंजस के संदर्भ में फांजौबम कहते हैं, ‘निश्चित तौर पर यह (कांग्रेस) ऐसी पार्टी है जिसका रुतबा राज्य में लगातार घट रहा है और यह चुनाव उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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