सवर्ण गरीबों के लिए लाए गए EWS आरक्षण की न्यायिक पड़ताल अब शुरू होने वाली है. गरीबों के आरक्षण को संविधान संशोधन के तत्काल बाद सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाओं को जरिए चुनौती दी गई थी. अभी तक ये मामला (जनहित अभियान बनाम भारत सरकार) सुनवाई के लिए नहीं आया था. लेकिन अब ये मामला टाला नहीं जा सकता.
इसकी वजह मद्रास हाई कोर्ट का एक फैसला है. इस आदेश में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी के बिना मेडिकल एडमिशन (NEET नाम से लोकप्रिय) के ऑल इंडिया कोटा में EWS आरक्षण नहीं दिया जा सकता. कोर्ट के इसी आदेश में ऑल इंडिया कोटा में 27% ओबीसी आरक्षण को मंजूरी दी गई है.
मद्रास हाई कोर्ट के फैसले की वजह से NEET ऑल इंडिया कोटा में EWS आरक्षण पर रोक लग गई है, जिसे अब मद्रास हाई कोर्ट की बड़ी बेंच या सुप्रीम कोर्ट ही हटा सकता है. इस बीच, 27 डॉक्टरों ने केंद्र सरकार की उस अधिसूचना को चुनौती दी है जिसके जरिए ऑल इंडिया कोटा में OBC और EWS आरक्षण लाया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर उसकी प्रतिक्रिया पूछी है.
इस मामले को टाल पाना सुप्रीम कोर्ट के लिए आसान नहीं होगा, क्योंकि इसे टालने का मतलब होगा NEET में EWS कोटे का अंत और फिर ये मामला बाकी एडमिशन टेस्ट और आगे चलकर नौकरियों में EWS आरक्षण के लिए भी नजीर बन जाएगा. इस केस में फैसला न देना भी एक फैसला ही होगा.
EWS कोटा देने के लिए लाए गए 103वें संविधान संशोधन के लिए ये परीक्षा की घड़ी है. इस संविधान संशोधन कानून के जरिए अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन करके आर्थिक आधार जोड़ दिया गया था.
EWS कोटा सुनकर ऐसा लगता है कि ये गरीबों को आर्थिक आधार पर मिलेगा. लेकिन संविधान संशोधन में ही स्पष्ट कर दिया गया है कि ये आरक्षण SC, ST, OBC यानी देश की बहुसंख्य आबादी के गरीबों के लिए नहीं है. दरअसल ये सवर्ण गरीबों को दिया जाने वाला आरक्षण है. इस मायने में EWS आरक्षण का नामकरण गलत और भ्रामक है.
गरीबी के आधार पर दिया जाने वाला ये एकमात्र आरक्षण है, लेकिन सरकार ने गरीबी की जो परिभाषा तय की है वह गरीबी रेखा या BPL नहीं है. वर्तमान में EWS के लिए आय सीमा 8 लाख रुपए सालाना रखी गई है, यानी 66 हजार रुपए तक प्रति माह कमाने वाले परिवार गरीब माने गए हैं.
अब आप समझ गए होंगे कि ये विभिन्न धर्मों के मध्यवर्गीय सवर्णों के लिए लाया गया आरक्षण है. मिडिल क्लास के लोग ही इसका लाभ उठा पाएंगे.
मेरा तर्क है कि इस आरक्षण की न्यायिक समीक्षा बेशक चलती रहे, लेकिन इस बीच संसद को भी अपने बनाए इस कानून पर पुनर्विचार करना चाहिए. इसके चार कारण हैं.
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व्यापक चर्चा के बिना लाया गया संविधान संशोधन
यह संविधान संशोधन कानून बेहद आनन-फानन में लाया और पास कराया गया. लगभग चोरी-छिपे, गुपचुप तरीके से. संविधान संशोधन (124वां) विधेयक 8 जनवरी, 2019 को ऐसे लाया गया मानो, किसी को पहले से पता चल गया, तो राष्ट्र की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी! दो दिन के अंदर इसे दोनों सदनों से पारित करके अनुमोदन के लिए राष्ट्रपति के पास भेज दिया गया और राष्ट्रपति भवन से अनुमोदन फटाफट आ भी गया. सबकुछ देख कर ऐसा लग रहा था मानों हर कोई जल्दबाजी में है कि कोई अड़चन आने से पहले इसे पास कर दिया जाए.
इसे 12 जनवरी, 2019 को भारत सरकार के गजट में छाप कर नोटिफाई और लागू भी कर दिया गया.
जिस संविधान संशोधन के जरिए संविधान के मौलिक अधिकारों के अध्याय में मूलभूत बदलाव किए गए और दो उप अनुच्छेद 15(6) और 16(6) जोड़े गए और पहली बार आरक्षण में सामाजिक पिछड़ेपन के अलावा कोई आधार बनाया गया, उस पर संसद में चर्चा न होने देना आश्चर्यजनक है और सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करता है. कायदे से तो इसे स्थायी समिति के पास चर्चा के लिए भेजा जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
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संविधान संशोधन के लिए आंकड़ा नदारद
इस संविधान संशोधन विधेयक के ‘उद्देश्य और कारण ‘ वाले हिस्से में जो वजहें दी गई हैं, उनके लिए कोई भी तथ्य और आंकड़ा पेश नहीं किया गया है. इसमें कहा गया है कि (हिंदी अनुवाद): जो लोग गरीब हैं वे अमीरों के साथ असमान प्रतियोगिता के कारण सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में आम तौर पर नहीं पहुंच पा रहे हैं.’ लेकिन ऐसा किस आधार पर कहा गया है, इसका जिक्र नदारद है. ये महज अनुमान है.
केंद्र सरकार ने आज तक ऐसा कोई आंकड़ा नहीं जुटाया है कि 8 लाख रुपए से कम सालाना आमदनी वाले कितने लोग सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में हैं. फिर सरकार ये कैसे कह रही है कि ऐसे लोग इन जगहों पर नदारद हैं?
इस बात की ज्यादा संभावना है कि 8 लाख रुपए तक आमदनी वाले सवर्ण अपनी संख्या से ज्यादा अनुपात में इन स्थानों पर पहले से मौजूद हैं.
आखिर सरकार के पास इस बात का आंकड़ा तो मौजूद है कि सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा संस्थानों में एससी, एसटी, ओबीसी का कोटा पूरा नहीं हो रहा है. फिर इनकी जगहों पर कौन बैठे हैं? इस बात का पता लगाने के लिए सरकार चाहे तो जाति आधारित जनगणना करा सकती है. लेकिन ये तभी होगा, जब सरकार की मंशा सच जानने की होगी.
एक स्थिति ये हो सकती है कि सुप्रीम कोर्ट सरकार से EWS कोटे के दायरे में आने वाले लोगों की संख्या और उनकी हिस्सेदारी के बारे में पूछे. अभी तो सरकार ने बिना इन आंकड़ों के उन्हें 10% कोटा दे दिया है. लेकिन जाति जनगणना न होने की स्थिति में सरकार कोर्ट को आंकड़ा कहां से देगी?
बिना इन आंकड़ों के गरीब सवर्णों को आरक्षण देना कानून के नजरिए से गलत है और इसे सवर्ण तुष्टीकरण ही कहा जाएगा.
एक बात और गौर करने के लायक है. EWS से पहले के हर आरक्षण को लेकर कोई न कोई तर्क और आधार था. SC को अतीत में छुआछात का शिकार होने और ST को आदिवासी होने के कारण आरक्षण मिला. OBC आरक्षण का आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन है. SC और ST को क्रमश: 15% और 7.5% आरक्षण आबादी में उनकी हिस्सेदारी के हिसाब से दिया जा रहा है. ओबीसी के बारे में मंडल कमीशन ने माना कि उनकी संख्या 52% है लेकिन चूंकि SC और ST को पहले से मिलाकर 22.5% आरक्षण दिया जा रहा है और कुल आरक्षण की सीमा पर 50% की रोक कोर्ट ने लगा रखी है. इसलिए ओबीसी आरक्षण 27% ही किया जा सका.
लेकिन EWS आरक्षण 10% क्यों हैं? 5% या 15% क्यों नहीं? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. ये मनमानापन है.
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50% की सीमा
तीसरी बात. आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% रखने की बात सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बेंच ने इंदिरा साहनी केस में की है. ये सीमा अभी लागू है. इस केस में कोर्ट ने कहा था कि– आरक्षण सब कुछ असफल हो जाने की स्थिति में उठाया गया कदम है, इसलिए इसे कम (आधे से कम) सीटों पर ही लागू किया जाना चाहिए.
हालांकि संविधान में इसकी कोई सीमा तय नहीं की गई है, इसके बावजूद संविधान की भावना आबादी के अनुपात में अवसरों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है. इसलिए समानता के सिद्धांत को संतुलित तरीके से लागू करने के लिए जरूरी है कि आरक्षण 50% से ज्यादा न हो.
सुप्रीम कोर्ट की इस सीमा के कारण आरक्षण बढ़ाने संबंधित राज्य सरकारों के कई फैसले अटक गए हैं. ओबीसी आरक्षण को आबादी के हिसाब से करने की मांग भी नहीं मानी गई हैं. लेकिन बेहद सुविधाजनक तरीके से सरकार ने सवर्ण गरीबों (दरअसल मिडिल क्लास) को आरक्षण देने के लिए इस सीमा का उल्लंघन कर दिया और संविधान संशोधन करते समय इस सीमा का जिक्र तक नहीं किया.
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सवर्णों का पिछड़ापन कहां है
चौथी बात. EWS आरक्षण संविधान की भावना के खिलाफ है.
संविधान सभा ने आरक्षण के मसले को कभी भी आर्थिक आधार पर नहीं देखा और इसलिए गरीबी उन्मूलन के तौर पर आरक्षण कार्यक्रम की कल्पना भी नहीं की गई. अनुच्छेद 16 यानी समानता के अधिकार वाले अनुच्छेद में ही आरक्षण का प्रावधान है. इस अनुच्छेद के मूल ड्राफ्ट में हिस्सेदारी में कमी के आधार पर आरक्षण देने का अधिकार सरकारों को देने की बात थी.
संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन बाबा साहब डॉ. बी.आर. आंबेडकर के आग्रह पर ही इसमें पिछड़ेपन की शर्त जोड़ी गई, जिसे संविधान सभा ने पारित भी किया. अब केंद्र सरकार ने पिछड़ेपन के साध अमीरी-गरीबी की बात जोड़ दी है. जबकि सामाजिक पिछड़ापन का चरित्र स्थायी होता है. गरीबी और अमीरी तो बदलते रहने वाली स्थिति है. वैसे भी अमीरी से जातीय भेदभाव खत्म नहीं होता.
सरकार को भी ये समझने की जरूरत है कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है. जैसा कि प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं- आरक्षण राष्ट्र निर्माण की संवैधानिक योजना है, ताकि जिनकी राजकाज और अवसरों में हिस्सेदारी नहीं हो पाई है, उनकी हिस्सेदारी सुनिश्चित की जा सके.
(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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