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Wednesday, 4 December, 2024
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ब्राह्मण, बनियों की पार्टी कही जाने वाली BJP को कैसे मिल गए OBC के वोट

मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस ने अपनी गलतियों से ओबीसी मतदाताओं को बीजेपी खेमे में धकेल दिया. बीजेपी को ओबीसी के लिए कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ी

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कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जाति जनगणना से संबंधित मामलों का अध्ययन करने के लिए सात सदस्यों की समिति का गठन किया है. इस समिति की अध्यक्षता कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और ओबीसी नेता एम. वीरप्पा मोइली कर रहे हैं. कांग्रेस की अधिकारिक विज्ञप्ति में इस समिति द्वारा अपनी रिपोर्ट सौंपने के लिए किसी समय सीमा का जिक्र नहीं था, जबकि जनगणना बिल्कुल सिर पर है और किसी भी दिन इसकी घोषणा हो सकती है.

यह हमें कांग्रेस के कामकाज के तरीके बारे में, और उससे भी ज़्यादा अन्य पिछड़ा वर्ग या ओबीसी के प्रति इसके दृष्टिकोण, के बारे में बहुत कुछ बताता है. जनगणना हर दसवें साल में 1 फरवरी से शुरू होकर 28 फरवरी तक समाप्त हो जाती है. इस साल, कोविड-19 की वजह से जारी प्रतिबंधों के कारण देरी हुई है.

जनगणना में जाति का कॉलम जोड़ने की बहस पुरानी है. इसलिए यह बेतुका है कि प्रमुख विपक्षी दल के पास जातीय जनगणना से संबंधित कोई नीति नहीं है, और इसने सितंबर के महीने में जाकर इस पर विचार करने के लिए एक समिति बनाई है. इस समिति में मोइली के अलावा आरपीएन सिंह ही ओबीसी हैं. आरपीएन सिंह ने भी अपनी ओबीसी पहचान को कभी सामने नहीं रखा है.


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जातीय जनगणना और कांग्रेस

ये कहना पूरा सच नहीं है कि जाति जनगणना पर कांग्रेस की कोई नीति नहीं है. यह कांग्रेस पार्टी ही थी जिसने आज से दस साल पहले, जाति जनगणना पर लोकसभा में बनी राष्ट्रीय सहमति को नष्ट करने का काम किया था और इस कारण 2011 की जनगणना में जाति का कॉलम नहीं जोड़ा जा सका था. 1951 से जनगणना में जाति का कॉलम हटाने का फैसला भी कांग्रेस ने किया था.

जनगणना में जाति का कॉलम जोड़ने को लेकर 7 मई 2010 को लोकसभा में लंबी चर्चा हुई थी. चर्चा में हिस्सा लेने वाले सभी राजनीतिक दलों ने जाति जनगणना का समर्थन किया था. सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह ने सदन की भावना के अनुसार कदम उठाने का आश्वासन दिया.

लेकिन बाद में, सरकार ने इस पर दोबारा विचार करने के लिए तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के नेतृत्व में मंत्रियों के समूह (जीओएम) का गठन किया, जिसमें संयोगवश मोइली भी एक हिस्सा थे. इस जीओएम की बैठकों में तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने जनगणना के तहत जातियों की गणना के खिलाफ जोरदार तर्क दिए थे.

जीओएम ने अंततः जनगणना-2011 में जाति की गणना न करने का फ़ैसला लिया और इसके बजाय उसने अलग सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना, SECC-2011 की घोषणा की. ये एक बड़ी त्रासदी थी क्योंकि 28 दिन में पूरी होने वाली जनगणना की जगह इसे पूरा होने में पांच साल से ज्यादा समय लग गया. यूपीए सरकार ने इस अलग से होने वाली गिनती को जनगणना अधिनियम, 1948 के तहत नहीं करने का सोचा-समझा निर्णय लिया था. सरकार को मालूम था कि इस गिनती से कोई भरोसेमंद आंकड़ा नहीं आएगा. इसकी रिपोर्ट 2016 में एनडीए सरकार के समय में आई, जिसे जारी न करने का फैसला नरेंद्र मोदी की कैबिनट ने कर लिया.

किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि ओबीसी जातियों के कल्याण के लिए महत्वपूर्ण माने जाने वाले इस विषय पर कांग्रेस ने ऐसा क्यों किया! लेकिन यह कोई अपवाद नहीं था. यूपीए-2 के दौरान कांग्रेस ने ओबीसी वर्ग के हितों के खिलाफ लगातार कई काम किए और मैं तो यह तर्क दूंगा कि कांग्रेस की इन नीतियों ने भारतीय जनता पार्टी के लिए केंद्र में आने का रास्ता साफ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.


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यूपीए-2 सरकार की ओबीसी संबंधी नीति

कांग्रेस ने अपनी ओबीसी नीतियों में चार बड़ी गलतियां कीं. जाति जनगणना को रोकना और जातियों की गिनती अलग से कराना कांग्रेस द्वारा ओबीसी वर्गों के साथ किया गया सबसे बड़ा छल था. अन्य तीन गलतियां कुछ इस प्रकार हैं:

ओबीसी सहयोगी दरकिनार: यूपीए-2 में ओबीसी की कोई हैसियत ही नहीं रह गई थी. बल्कि यूपीए-1 तुलनात्मक रूप से अधिक समावेशी गठबंधन था. इसमें लालू प्रसाद, अंबुमणि रामदास, टी.आर. बालू, शीश राम ओला और दयानिधि मारन जैसे नेता केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल थे. राष्ट्रीय जनता दल, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, पट्टाली मक्कल काची, झारखंड मुक्ति मोर्चा और लोक जनशक्ति पार्टी जैसी पार्टियों के मंत्री होने से सरकार को ज्यादा व्यापक सामाजिक आधार मिला. इस दौरान ही निजी क्षेत्र में आरक्षण जैसी मांग उठी और मनरेगा जैसे कदम उठाए गए.

दूसरी ओर, यूपीए-2 कैबिनेट में कांग्रेस ने ऐसी कोई कोशिश नहीं की. कांग्रेस ने 2009 लोकसभा में अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन के बाद मान लिया कि उसे सहयोगियों की ज्यादा जरूरत नहीं है. लगभग सारे ओबीसी नेता सरकार से बाहर रखे गए. इसने द्रमुक के मंत्रियों को भी अपने शासन काल के बीच में ही खो दिया. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल को छोड़कर, 2014 में कांग्रेस शासन में कोई सहयोगी नहीं था. इस सारी प्रक्रिया में उसने वंचित वर्गों (सबल्टर्न) का समर्थन खो दिया. 2014 के लोकसभा चुनाव के समय तक मनमोहन सिंह कैबिनेट के पास ओबीसी चेहरे के रूप में केवल वीरप्पा मोइली थे, जिनके प्रति उत्तर भारत में कोई आकर्षण नहीं था और बीजेपी यहीं से ताकत हासिल कर रही थी.

अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोपों की काट में अक्षमता: कांग्रेस की दूसरी बड़ी गलती यह थी कि उसने बीजेपी के इस आरोप को बल प्रदान किया कि सरकार में हिंदू लापता हैं. ये सही है कि मनमोहन सरकार राजकाज और नीतियों का फायदा देने के मामले में सवर्ण हिंदुओं के हितों का भरपूर ख्याल रख रही थी, लेकिन शिखर पर वे दिख नहीं रहे थे. मनमोहन सिंह सिख खत्री समुदाय से आते हैं, जबकि यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ईसाई मूल की हैं. भाजपा ने सफलतापूर्वक एक ऐसी छवि तैयार की कि देश को सोनिया गांधी चला रही हैं और मनमोहन सिंह उनके आदेशों का पालन कर रहे हैं.

कांग्रेस को 2012 में राष्ट्रपति के रूप में किसी ओबीसी की चुनना चाहिए था लेकिन उसने प्रणब मुखर्जी को चुना और इसी तरह उसने ‘अगड़ी जाति’ के मुस्लिम नेता हामिद अंसारी को उप-राष्ट्रपति के रूप में चुना. मोंटेक सिंह अहलूवालिया योजना आयोग चला रहे थे और साथ ही संघ लोक सेवा आयोग, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक और केंद्रीय सतर्कता आयोग जैसे तमाम संस्थानों में कोई ओबीसी चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था.

समर्थकों को दंडित करना: कांग्रेस की तीसरी बड़ी गलती अर्जुन सिंह, लालू प्रसाद और द्रमुक नेतृत्व को दंडित करना था. मनमोहन कैबिनेट में मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने 2006 में केंद्रीय शिक्षा संस्थानों में ओबीसी आरक्षण लागू करके ओबीसी की एक पुरानी मांग को पूरा किया. 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को इसका फायदा भी मिला. लेकिन अर्जुन सिंह ऐसा करके कांग्रेस पार्टी के अंदरूनी ढांचे में खलनायक बन गए.

उस समय के विज्ञान और टेक्नोलॉजी मंत्री कपिल सरकार ने खुलेआम बयान देकर ओबीसी आरक्षण का विरोध कर दिया. दिलचस्प है कि मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार में अर्जुन सिंह को हटा दिया गया और उनकी जगह कपिल सिब्बल को मानव संसाधन विकास मंत्री बनाया गया. 2009 के लोकसभा चुनाव में अर्जुन सिंह और उनके परिवार के किसी सदस्य को कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया, जिसके लिए वे सार्वजनिक तौर पर रोए.

जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि राहुल गांधी ने उस प्रस्तावित विधेयक को फाड़ दिया, जिससे यह सुनिश्चित होता कि लालू यादव चुनाव लड़ पाएंगे. लालू प्रसाद तब और आज भी, कांग्रेस के सबसे भरोसेमंद सहयोगी हैं, और उन्होंने भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से लड़ने की अपनी क्षमता का लगातार प्रदर्शन किया है. लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस के कुलीन नेतृत्व को ओबीसी पसंद नहीं हैं. इसी तरह, तथाकथित ‘2जी घोटाले’ में द्रमुक नेतृत्व को दंडित करने के मामले में तो यूपीए सरकार ने हद ही पार कर दी और डीएमके अध्यक्ष करुणानिधि की बेटी कनिमोई और ए. राजा जैसे नेताओं को जेल में डाल दिया.

ओबीसी नेता बनकर चुनाव मैदान में उतरे नरेंद्र मोदी

और फिर भाजपा ने प्रधानमंत्री पद के एक ऐसे उम्मीदवार को उतरा, जो अपनी हिंदू-ओबीसी नेता होने की पहचान गर्व के साथ प्रदर्शित करता है. नरेंद्र मोदी का ‘पिछड़ी मां का बेटा’ और ‘चाय वाला’ होने का दावा ओबीसी वर्गों के एक हिस्से को रास आ गया. ये कांग्रेस से निराश तबका था.

भाजपा और नरेंद्र मोदी के उदय के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन जिस तरह से मध्यम वर्ग और सवर्ण जाति के मतदाताओं ने पाला बदला, वह इन सब में सबसे महत्वपूर्ण था. लेकिन यह वर्ग और जाति केवल धारणाओं की जंग ही जीत सकती है. चुनाव जीतने के लिए तो संख्या चाहिए. सवर्ण उसे चुनाव नहीं जिता पाते. ये कमी बीजेपी ने हिंदू-ओबीसी से पूरी की.

कांग्रेस अभी भी ओबीसी वर्ग से जुड़े मुद्दे से जूझ रही है क्योंकि इसकी मूल संरचना में विभिन्न धर्मों के ‘अगड़ी’ जाति के नेताओं का वर्चस्व है. कांग्रेस यह दावा भी नहीं करती कि पीवी नरसिम्हा राव सरकार के दौरान ही मंडल आयोग के तहत आरक्षण को लागू किया गया था और उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण मनमोहन सिंह सरकार के दौरान दिया गया था. संभवतः कांग्रेस अभी भी कहीं-न-कही ‘अगड़ी’ जातियों के फिर से अपने पाले में आने का इंतजार कर रही है ताकि वह मुसलमानों और एसटी-एससी के एक वर्ग के साथ उनका गठबंधन बना सके. अन्य पिछड़ा वर्ग अभी भी कांग्रेस के एजेंडे में नहीं है.

यह बात भाजपा नेतृत्व के कानों में किसी मधुर संगीत की तरह लग सकती है, जो ओबीसी वर्गों के किए प्रतीकात्मकता कदमों से ज्यादा कुछ नहीं कर रहा है. ओबीसी वर्ग के लिए पार्टी ने जो एकमात्र महत्वपूर्ण काम किया है, वह है राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) के अखिल भारतीय कोटे में 27 प्रतिशत आरक्षण को लागू करना. इसके अलावा ज्यादातर काम नौटंकी है.

क्या कांग्रेस खुद को बदल पाएगी?

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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