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Friday, 19 April, 2024
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भारत लड़खड़ाया, जबकि चीन ने अपनी नौसेना बढ़ाई, अब पश्चिम को अपनाना ही एकमात्र ऑप्शन है

जैसी कि ऑस्ट्रेलिया ने अभी घोषणा की है, चीनी नौसेना के फैलते दायरे में पड़ने वाले को अमेरिका के साथ मिलकर अपनी क्षमताओं को तेजी से बढ़ाना होगा.

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पिछले दो दशकों में पूर्वी एशिया में नौसैनिक वर्चस्व में किस तरह बदलाव आया है उसकी व्याख्या आसान है. चीन को यह क्षेत्र मानो थाली में परोस कर सौंप दिया गया. वर्ष 2000 में चीन और अमेरिका के रक्षा बजट का अनुपात 1:11 का था. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक, पिछले साल यह अनुपात नाटकीय ढंग से 1:3 हो गया. चीन के रक्षा बजट में छह गुना वृद्धि हुई, जबकि जापान का जस का तस रहा और ताइवान के रक्षा बजट में केवल 10 फीसदी की वृद्धि हुई. चीन के बजाय उत्तर कोरिया से होड़ ले रहे दक्षिण कोरिया ने अपने रक्षा बजट में 20 साल में दोगुनी से ज्यादा वृद्धि की, जबकि ऑस्ट्रेलिया ने दोगुनी से कम वृद्धि की. साउथ चाइना सी क्षेत्र के द्वीपों पर अधिकार के मामले में चीन जिन छोटे-छोटे देशों को चुनौती दे रहा है उन्होंने भी रक्षा बजट में अच्छी वृद्धि की. उन सबको मिलाकर कुल रक्षा बजट में करीब तिगुनी वृद्धि हुई. लेकिन कोई भी चीन की बराबरी नहीं कर पाया है. इसका नतीजा यह हुआ है कि इस क्षेत्र के इन सभी देशों ने मिलकर पिछले साल अपनी रक्षा के ऊपर चीन के इस खर्च के केवल दो तिहाई भाग के बराबर खर्च किया. 2000 में स्थिति यह थी कि अकेले जापान ने चीन के मुक़ाबले ज्यादा खर्च किया था.

नौसेनाओं को बनाने में दशकों लग जाते हैं. चीन को अपने बेड़े को पहले आधुनिक बनाने और फिर उसका विस्तार करने में करीब 30 साल लग गए, जबकि बाकी देश देखते रहे. उसे अभी भी बहुत कुछ सीखना है. इस बीच, प्रमुख यूरोपीय ताकतों ने, जो कहते हैं कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उनकी दांव लगे हुए हैं, 20 वर्षों में अपने रक्षा बजट में बमुश्किल 20 प्रतिशत की वृद्धि की है. एशिया और यूरोप के ये सभी देश सुरक्षा छतरी के लिए अमेरिका पर निर्भर रहे हैं. लेकिन अमेरिका अगर ताइवान की रक्षा के लिए अपनी सेना भेजने को राजी नहीं है तो उस पर निर्भर नहीं रहा जा सकता.


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इसके अलावा, अमेरिका के पास अग्रिम मोर्चे वाले नौसैनिक पोत चीन से कम (300 से भी कम) ही हैं. पोत और पोत के बीच मुक़ाबले में अमेरिका अभी भी ज्यादा मजबूत है लेकिन चीन अमेरिका के मुक़ाबले दोगुनी दर से नये पोत शामिल कर रहा है. अपने समुद्री क्षेत्र में और बड़े पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में चीन अपनी पूरी नौसेना तैनात कर सकता है, जबकि अमेरिका उन क्षेत्रों में अपने बेड़े का एक हिस्सा ही भेज सकता है. इसीलिए, राष्ट्रपति जो बाइडन के व्हाइट हाउस में बैठे अमेरिकी नीति निर्माताओं ने उस क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाने की उम्मीद छोड़ दी है. अब वे सिर्फ प्रतिरोधी क्षमता बनाए रखने का सीमित लक्ष्य रख रहे हैं. लेकिन आगामी वर्षों में सहयोगी देशों की मदद के बिना इसमें भी मुश्किल हो सकती है. अगर ये सहयोगी वहां नहीं पहुंचते, तो चीन का दबदबा बढ़ेगा.

इन्हीं वजहों से इस सप्ताह यह बड़ी घोषणा की गई कि अमेरिका परमाणु ऊर्जा से लैस (परमाणु हथियारों से लैस नहीं) पनडुब्बियां हासिल करने में ऑस्ट्रेलियाई नौसेना की मदद करेगा. ये पनडुब्बियां दूर समुद्री क्षेत्र में सामान्य पनडुब्बियों के मुक़ाबले ज्यादा समय तक डटी रह सकती हैं. ये शोर नहीं करतीं, इसलिए वे छुप कर काम कर सकती हैं और ज्यादा समय तक बची रह सकती हैं. 20 साल के अंदर खेल में अंतर आ जाएगा. सवाल यह है कि क्या इसके बाद जापान आगे आएगा? अब तक यह देश अपनी जीडीपी के 1 प्रतिशत से कम के बराबर रकम रक्षा पर खर्च करने की नीति पर चलता रहा है. लेकिन ‘क्वाड’ को अगर कोई बड़ा मायने देना है तो यह सीमा टूट सकती है.

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जहां तक भारत की बात है, उसने रक्षा बजट में वृद्धि के मामले में दूसरे कई देशों से ज्यादा आगे कदम बढ़ाया है. उसकी अग्रिम मोर्चे वाली पनडुब्बियों और पोतों में कम ही बदलाव आया है हालांकि कुल क्षमता में भारी वृद्धि हुई है. अगले दशक तक पनडुब्बियों और पोतों की संख्या में ज्यादा वृद्धि नहीं होने वाली है. केवल पुरानों को रिटायर करके उनकी जगह नये आएंगे. इस बीच, दूर तक मार करने वाली चीनी मिसाइलों से भारतीय नौसेना के पोतों को खतरा है. भारत मध्यम दूरी तक मार करने वाली ‘निर्भय’ नाम की सब-सोनिक क्रूज मिसाइलें बनाने में जुटा है. इसकी एकमात्र परमाणु बैलिस्टिक-मिसाइल वाली पनडुब्बी में अभी इंटर्मेडिएट रेंज वाली मिसाइल नहीं तैनात की गई है, जो समुद्र में प्रतिरोध की परमाणु क्षमता दे सकती है. तकनीक में यह अंतर और नौसेना के विस्तार की दर में यह फर्क हिंद महासागर क्षेत्र में शक्ति संतुलन में अंतर ला सकता है.

कठोर फैसले लेने का समय आ गया है. चीनी नौसेना के फैलते दायरे में स्थित देश को अपनी क्षमताओं में तेजी से वृद्धि करनी होगी, या ऑस्ट्रेलिया की ताजा घोषणा के मुताबिक अमेरिका से करीबी सहयोग लेना पड़ेगा. समान्यतः, भारत अपनी दीर्घकालिक रणनीति में स्वायत्तता रखता है इसलिए वह पश्चिमी नौसैनिक समीकरण में शामिल नहीं होना चाहेगा. लेकिन कुछ हद तक तो वह शामिल हो ही चुका है. चीन जबकि विशाल और बेहतर नौसेना का निर्माण करता रहा, भारत अटकता रहा. लेकिन अब कोई विकल्प नहीं बचा है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)


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