नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू की ओर से मंगलवार को जारी एक मेमो के अनुसार, 2022 के आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में पार्टी टिकट के हर आवेदक से 11,000 रुपए ‘सहयोग राशि’ के रूप में जमा करेगी.
पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के सिर्फ छह महीने बचे हैं और कांग्रेस अपने आपको एक अवांछनीय स्थिति में पा रही है, क्योंकि वो न केवल संगठनात्मक अव्यवस्था बल्कि पैसे की भारी कमी से भी जूझ रही है.
ऐसा पहली बार नहीं है जब कांग्रेस, टिकट के उम्मीदवारों से पैसा जुटाना चाह रही है. 2019 में हरियाणा विधानसभा चुनावों में टिकट के लिए आवेदन शुल्क सामान्य श्रेणी उम्मीदवारों के लिए 5,000 रुपए और अनुसूचित जाति उम्मीदवारों के लिए 2,000 रुपए निर्धारित किया गया था.
मई 2018 में लोकसभा चुनावों से एक साल पहले विपक्षी पार्टी ने अपने समर्थकों से ‘लोकतंत्र बहाली’ में सहायता करने और क्राउडफंडिंग के जरिए नकदी की तंगी झेल रही पार्टी को पैसा देने का आग्रह किया था.
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बुनियादी सवाल ये है कि जिस पार्टी ने दशकों तक भारत पर राज किया, वो इतनी हताश कैसे हो गई कि अब क्राउडफंडिंग मांग रही है?
राजनीतिक पार्टियों के पिछले 18 वर्षों के ऑडिट किए गए वित्तीय विवरण का विश्लेषण करने पर दिप्रिंट को पता चला कि केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से कांग्रेस की वित्तीय स्थिति खराब होती चली गई है.
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जीतने वाले को सबसे ज्यादा फायदा
2004 में जब कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार सत्ता में आई, तब पार्टी ने 153 करोड़ रुपए की आय घोषित की थी. अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में बीजेपी ने, जो अपने एनडीए सहयोगियों के साथ मिलकर छह साल सत्ता में रही थी, 91.5 करोड़ रुपए की आय घोषित की थी.
वित्त वर्ष 2013-14 तक, जो उन लोकसभा चुनावों से कुछ पहले ही समाप्त हुआ, जिनमें मोदी सत्ता में आए, कांग्रेस सबसे अधिक घोषित आय वाली पार्टी बनी हुई थी- बीजेपी से 31 प्रतिशत ज़्यादा.
लेकिन 2019-20 तक आते-आते, ऑडिट की हुई सालाना वित्तीय रिपोर्ट्स में बीजेपी की घोषित आय 3,623 करोड़ रुपए पहुंच गई थी, जो कांग्रेस के 682.2 करोड़ से करीब 400 प्रतिशत अधिक थी.
कॉरपोरेट क्षेत्र राजनीतिक दलों को सबसे ज़्यादा दान देता है. 2019-20 में बीजेपी और कांग्रेस का 90 प्रतिशत से अधिक पैसा बड़े दानकर्ताओं से आया.
राजनीतिक विश्लेषक और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ (सीएसडीएस) के प्रोफेसर संजय कुमार ने कहा, ‘कांग्रेस और बीजेपी के बीच की खाई मुख्य रूप से इसलिए बढ़ गई है कि दान देने वाले उस पार्टी को ज़्यादा पैसा देते हैं जो चुनाव जीतती है. 2014 के बाद बीजेपी एक के बाद एक सूबा जीतती जा रही है और केंद्र में भी सत्ता में बनी हुई है. अगर कांग्रेस कुछ और राज्यों में जीत हासिल करती है, तो उसे भी संभवत: ज़्यादा पैसा मिल सकता है’.
कुमार ने आगे कहा कि कांग्रेस की पहले से ही खराब वित्तीय हालत और बिगड़ सकती है, अगर वो 2022 में सात राज्यों- फरवरी-मार्च में यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर, तथा साल के अंत में हिमाचल प्रदेश और गुजरात- में आने वाले चुनाव नहीं जीत पाती.
उद्योगपति बहुत से कॉन्ट्रेक्ट्स, मंजूरियां आदि हासिल करने के लिए सरकारों पर निर्भर करते हैं. इसलिए सत्ता में बैठी किसी राजनीतिक पार्टी को पैसा देना, उनके लिए ढाल का काम करता है. ये सबसे अधिक निर्माण क्षेत्र में दिखाई पड़ता है, जहां सरकार के पास बहुत सारी नियामक शक्ति होती है.
अपनी किताब कॉस्ट्स ऑफ डेमोक्रेसी: पोलिटिकल फाइनांस इन इंडिया में अर्थशास्त्री मिलन वैष्णव और देवेश कपूर ने दिखाया है कि राजनीतिक पार्टियां और खासकर निर्माण क्षेत्र में बड़े व्यवसाय, काफी हद तक एक दूसरे पर निर्भर करते हैं.
किताब में कहा गया है, ‘कुल मिलाकर, बिल्डर्स को राजनेताओं से एहसान लेने होते हैं और राजनेता उसके एवज़ में चुनावी सीज़न के दौरान वित्तीय योगदान की अपेक्षा करते हैं’.
नाम न बताने की शर्त पर एक कांग्रेस पदाधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘पार्टी के लिए फंड्स जुटाने का ज़िम्मा, काफी हद तक उसके मुख्यमंत्रियों (और मंत्रियों) पर होता है. पैसा जुटाने और संसाधन एकत्र करने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की होती है’.
जाहिर है कि स्थिति और बेहतर तब होती है, जब कोई पार्टी केंद्र में भी सत्ता में होती है.
वर्तमान में, केवल तीन राज्य ऐसे हैं जहां मुख्यमंत्रियों का संबंध कांग्रेस से है- पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ और इन तीनों में पिछले एक साल में उथल-पुथल मची हुई है. महाराष्ट्र, तमिलनाडु और झारखंड में भी पार्टी क्षेत्रीय दलों के साथ सत्ता में भागीदार है, लेकिन पार्टी सूत्रों की मानें तो निर्णय लेने के मामले में, जिसके जरिए फंड्स का निर्बाध प्रवाह सुनिश्चित किया जाता है, उसके मंत्री ज़्यादा प्रभावी नहीं हैं.
इस बीच 12 सूबों में बीजेपी के अपने सीएम हैं और छह अन्य राज्यों में वो सत्ता में भागीदार है.
पार्टी पदाधिकारी ने आगे कहा, ‘यही कारण है कि कांग्रेस के लिए राज्यों के चुनाव जीतना बहुत जरूरी है और ये भी जरूरी है कि उसकी राज्य सरकारें गिरने न पाएं, जैसा कि पिछले कुछ सालों में हुआ है’.
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नकदी की कमी का असर
समय के साथ भारत में चुनाव लड़ने का खर्च बढ़ता ही जा रहा है. दिल्ली स्थित एक गैर-मुनाफा शोध इकाई, सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ के अनुमानों के अनुसार, 2019 के लोकसभा चुनावों का कुल अनुमानित खर्च 50,000 करोड़ रुपए था, जो 2014 के लोकसभा चुनावों (30,000 करोड़) से 67 प्रतिशत अधिक था.
फंडिंग का पार्टी की चुनाव लड़ने की क्षमता पर प्रभाव पड़ता है. इस साल चार सूबों और एक केंद्रशासित क्षेत्र में हुए विधानसभा चुनावों से पहले, कांग्रेस की हालत इतनी खराब हो गई थी कि पार्टी ने राज्यों में अपने मंत्रियों को संदेश भेजकर, चुनाव प्रचार के लिए धन जुटाने को कहा था.
पार्टी विधायकों और सांसदों को अपना एक माह का वेतन पार्टी कोष में देना होता है. एक सांसद का वेतन 1 लाख है, जिसे भारत में महामारी फैलने के बाद 30 प्रतिशत घटा दिया गया था, जबकि विधायकों का वेतन राज्यों में अलग-अलग है, जो 50,000 से लेकर 2 लाख के बीच होता है, या तेलंगाना में भत्ते मिलाकर 2.5 लाख होता है.
सबसे अधिक पैसा पाने वाली पार्टी के नाते, जाहिर है कि बीजेपी के पास खर्च करने के लिए भी ज़्यादा है. वित्त-वर्ष 2013-14 में उसका कुल खर्च 329 करोड़ रुपए था, जो वित्त-वर्ष 2019-20 में 400 प्रतिशत से अधिक बढ़कर, 1,651 करोड़ रुपए पहुंच गया, जबकि कांग्रेस के खर्च में ये इजाफा मात्र 55 प्रतिशत था (2013-14 में 664 करोड़ से बढ़कर 2019-20 में 998 करोड़ रुपए).
पश्चिम बंगाल, जहां इसी साल हुए चुनावों में पार्टी खाता भी नहीं खोल पाई, के एक नेता ने कहा, ‘प्रभावी प्रचार एक चुनौती बन जाता है’.
इस नेता ने समझाया, ‘आपको अपने दौरे के लिए चुनाव क्षेत्रों की संख्या कम करनी पड़ती है, फ्लाइट से भेजे जाने वाले नेताओं की संख्या घटानी पड़ती है, बैनर्स की संख्या कम करनी पड़ती है…हर चीज़ प्रभावित होती है. इसकी तुलना में एक बीजेपी उम्मीदवार कहीं अधिक रैलियां कर पाएगा और हर जगह अपने चुनावी वायदों का प्रचार करा पाएगा…छोटे स्तर पर इन सब चीज़ों का बहुत फर्क पड़ता है.
कांग्रेस उम्मीदवारों से प्रचार के समय, अपने खर्च को कम करने के लिए कहा जाता रहा है. इसकी वजह से पार्टी ने मजबूरन अमीर उम्मीदवारों को टिकट बांटे हैं, जो अपने प्रचार का खर्च खुद उठा सकें और कुछ पैसा पार्टी कोष में भी डाल सकें. 2019 के लोकसभा चुनावों में 83 प्रतिशत से अधिक कांग्रेस प्रत्याशी करोड़पति थे.
बंगाल के नेता ने आगे कहा, ‘इच्छुक उम्मीदवारों से पूछा जाता है कि क्या वो अपने प्रचार का खर्च उठाने में सक्षम हैं. अक्सर, ज़्यादातर के पास ऐसा करने की पृष्ठभूमि नहीं होती और इसके नतीजे में योग्य उम्मीदवारों का नाम सूची से कट जाता है.’
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भाजपा को चुनावी बांड्स से फायदा?
2017-18 में मोदी सरकार अज्ञात तरीके से राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने के लिए चुनावी बांड्स लेकर आई जिनकी कोई ऊपरी सीमा निर्धारित नहीं थी. इसने राजनीतिक वित्तपोषण को काफी अपारदर्शी बना दिया है.
लेकिन आंकड़ों से ये ज़रूर पता चलता है कि इन बांड्स से सबसे ज़्यादा फायदा बीजेपी को हुआ है. वित्त वर्ष 2018 के बाद से जारी, कुल 6,200 करोड़ के बांड्स में से 68 प्रतिशत दान बीजेपी को मिला है, 11 प्रतिशत कांग्रेस के हिस्से में आया है, जबकि बाकी 21 प्रतिशत दूसरी सभी पार्टियों की झोली में गया है.
कांग्रेस प्रवक्ता गौरव बल्लभ का दावा था कि पार्टियों की फंडिंग में ये अंतर चुनावी बांड्स से और ज़्यादा बढ़ा है, जो चुनावी लड़ाई को ‘समान नहीं रहने देते’.
उन्होंने कहा, ‘मेरा मानना है कि जो लोग चुनावी बांड्स के ज़रिए बीजेपी को चंदा देते हैं और जिन्हें इसके एवज़ में कारोबार करने में फायदा पहुंचाया जाता है, उनके बीच एक स्पष्ट रिश्ता है. बीजेपी को बताना चाहिए कि उसके चुनावी बांड दानकर्ता कौन हैं और विनिवेश तथा राष्ट्रीय मौद्रीकरण की पाइपलाइंस से किसे फायदा पहुंचता है’.
एक और कांग्रेस पदाधिकारी ने, नाम न बताने की शर्त पर आगे कहा, ‘कुछ समय से कॉरपोरेट घराने विपक्षी दलों को चंदा देने के मामले में ज़्यादा सतर्क हो गए हैं. सत्तारूढ़ व्यवस्था इसे अच्छी निगाह से नहीं देखती’.
लेकिन, बीजेपी नेता सुधांशु मित्तल ने इसका जवाब देते हुए कहा कि ‘अगर ज़्यादा पैसे का मतलब चुनावी जीत होता, तो कोई सत्ताधारी पार्टी कभी भी हार का सामना नहीं करती. इसलिए ये सब बेकार के बहाने हैं जो कांग्रेस बना रही है’.
मित्तल ने दिप्रिंट से कहा, ‘विज्ञापनों के दम पर कोई चुनाव जीता या हारा नहीं जाता. ये केवल प्रचार में सहायता करते हैं, वो भी एक सीमा तक. इंडिया शाइनिंग (बीजेपी का 2004 प्रचार) को आज तक याद किया जाता है कि वो एक जबर्दस्त प्रचार था लेकिन जीत में परिवर्तित नहीं हुआ’.
राजनीतिक फंडिंग की ज़्यादातर मांगें बैक-चैनलों से की जातीं हैं, जिसके लिए एक खास हुनर की ज़रूरत होती है. कांग्रेस को पूर्व पार्टी कोषाध्यक्ष अहमद पटेल की कमी बहुत खली है, जिनकी पिछले साल मौत हो गई थी. पार्टी अभी तक उनके जैसा कोई नहीं ढूंढ पाई है, जिसके पास उनके जैसा कॉरपोरेट नेटवर्क और समझाने-बुझाने का फन हो.
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