कोविड-19 महामारी ने भारतीय राज्यों में ‘असंतुलित’ क्षेत्रीय विकास पर फिर से ध्यान आकर्षित कर दिया है. ऐसे में जब बड़े औद्योगिक राज्य बुरी तरह प्रभावित अर्थव्यवस्था से उबर रहे हैं, सरकार को ध्यान रखने की जरूरत है कि अब विकास के वही पुराने मॉडल लागू नहीं किए जा सकते. एक हालिया अध्ययन के मुताबिक गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे भारत के समृद्ध राज्य किस तरह मैन्युफैक्चरिंग (विनिर्माण) और हाई-टेक सेवाओं पर निर्भर हैं. उनकी अर्थव्यवस्थाओं में कृषि का योगदान सिर्फ 10-15 प्रतिशत ही है.
लेकिन आर्थिक विषमता कहानी का सिर्फ एक पक्ष है. इसका दूसरा पक्ष राज्यों में, जिलों के बीच, व्यापत असमानता है, जो उससे कहीं अधिक है.
इसे समझने के लिए हमने राज्य की अर्थव्यवस्था में ज़िलों की हिस्सेदारी देखी जिससे भारत के तीन सबसे समृद्ध राज्य- महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में ज़िलों के बीच की असमानता को उजागर किया जा सके. महामारी के बाद के नए नीतिगत विचार-विमर्शों में क्षेत्रीय असमानता के इस अहम बिंदु को संबोधित किया जाना चाहिए, जो इन आंकड़ों से अभिलक्षित है.
सामान्य रूप से भारत में आर्थिक असमानता की कोई भी बहस, दो पहलुओं तक सीमित रही है- 1) भारत के प्रमुख राज्यों में प्रति व्यक्ति आय की तुलना, और 2) राज्य की अर्थव्यवस्था में अलग-अलग क्षेत्रों (जैसे कृषि, उद्योग, और सेवाओं) का योगदान. विभिन्न राज्यों के भीतर व्याप्त क्षेत्रिय विषमताओं पर कम ध्यान दिया गया है. इसका एक महत्वपूर्ण कारण समुचित आकड़ों का अभाव रहा है. ज़िला घरेलू उत्पाद (डीडीपी) 2000 दशक के अंत से ही उपलब्ध होना शुरू हुआ है. डीडीपी से जुड़े विश्लेषण में यह ध्यान रखने योग्य है कि इस तरह के अध्ययन के दौरान अंतर-राज्यीय तुलना में संदिग्धता आ सकती है क्योंकि विभिन्न राज्यों के सांख्यिकी विभाग डीडीपी के आकलन में अलग-अलग तरीके अपनाती हैं. चूंकि हम अपने विश्लेषण में एक समय में एक ही राज्य को ध्यान में रखते हैं, अतः यह हमारे लिए कोई मुश्किल खड़ी नहीं करता है.
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विकास का अंतर-राज्यीय भूगोल
हमने डीडीपी डेटा महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु के अर्थशास्त्र एवं सांख्यिकी विभाग (डीईएस) से लिया. गुजरात के डीडीपी आंकड़े न मिलने की वजह से हम उसका विश्लेषण नहीं कर पा रहे हैं. हम तीन साल के आंकड़े देखते हैं: 1999-00, 2004-05 और 2009-10. हाल के वर्षों के आकड़े राज्यों ने अभी समान रूप से संकलित कर लोक-क्षेत्र में नहीं रखा है. इसके अलावा, राज्यों के संसाधनों की उपलब्धता को देखते हुए डीडीपी आंकड़े संकलित होने में आमतौर से समय लग जाता है. राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने अपनी हाल की एक रिपोर्ट में, इस देरी को उजागर किया है.
फिर भी, इन उपलब्ध आकड़ों को देखने से एक ऐसा रुझान नज़र आता है, जो समय के साथ निरंतर बना हुआ लगता है. यह भी ध्यान रखने योग्य है कि 2000-10 की दशाब्धि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक ऊंचे आर्थिक विकास के वर्ष थे. इस अवधि के दौरान एक स्पष्ट संकेत हमारे इस विश्वास का समर्थन करता है कि राज्यों के भीतर ज़िलों के बीच असमानता, दृढ़ता से व्याप्त है.
दिप्रिंट के एक हालिया आलेख में, इन समृद्ध राज्यों की अर्थव्यवस्था और क्षेत्रवार संरचना पर नज़र डाली गई है और उनके द्वारा अपनाए गए अलग-अलग मॉडल पर ध्यान केंद्रित किया गया है. महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे समृद्ध राज्यों का कुल राज्य-स्तरीय सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के मामले में प्रदर्शन अच्छा है लेकिन ये प्रगति सम्पूर्ण राज्य में एक समान नहीं है.
हमारे विश्लेषण के नतीजे उससे भी अधिक चौंकाने वाले थे, जितना हमने आकड़ों को देखने से पहले सोचा था. यहां पर ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि इन ग्राफ्स से ज़ाहिर होने वाली असमानता दरअसल कमतर है. इसका कारण यह है कि जिस तरह डीडीपी का आकलन किया जाता है, उसमें किसी भी राज्य के सभी ज़िलों के लिए, समान श्रम उत्पादकता रखी जाती है. ऐसे में, खासकर सेवा क्षेत्र में, इसमें समस्या खड़ी होती है क्योंकि दूसरे आर्थिक क्षेत्रों की अपेक्षा इसमें संकुलन का प्रभाव ज़्यादा पड़ता है.
महाराष्ट्र और कर्नाटक का विषमता मॉडल
महाराष्ट्र राज्य में (फिगर 1), मुंबई का राज्य की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा योगदान है. सिर्फ मुंबई का योगदान राज्य के उत्पादन के पांचवे हिस्से से ज़्यादा है. यह ध्यान देने योग्य है कि तीन शीर्ष ज़िले (मुंबई, ठाणे और पुणे), राज्य की अर्थव्यवस्था में तकरीबन आधे का योगदान करते हैं. आर्थिक गतिविधियां राज्य के पश्चिमी हिस्से में सिमटी हुई हैं. ये रुझान पिछले दस वर्षों से बना हुआ है. यहां पर ये देखना महत्वपूर्ण है कि ये तीन ज़िले भौगोलिक रूप से जुड़े हुए हैं और पश्चिमी घाट पर स्थित हैं. राज्य के पूर्वी हिस्से में बसा सबसे महत्वपूर्ण ज़िला, नागपुर, महाराष्ट्र की आय में कुल 5 प्रतिशत ही योगदान करता है.
कर्नाटक राज्य में तो ये विषमता और भी अधिक नज़र आती है (फिगर 2). बेंगलुरू (शहरी) ने 1999-00 में राज्य की आय में पांचवें हिस्से से अधिक का योगदान दिया. बेलगाम ज़िला काफी पीछे दूसरे नंबर पर है, जो राज्य की अर्थव्यवस्था में सिर्फ 5 प्रतिशत योगदान करता है. 2009-10 के बीच, सिर्फ दस वर्षों के भीतर, बेंगलुरू (शहरी) का योगदान बढ़कर, एक तिहाई से अधिक हो गया है. यह इंगित करता है कि कर्नाटक की आय में वृद्धि, मुख्यत: उसके राजधानी ज़िले के प्रदर्शन की वजह से ही है, जहां इस अवधि के दौरान आईटी आधारित सेवा क्षेत्र का तेज़ी से विकास हुआ.
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तमिलनाडु का अपेक्षाकृत संतुलित विकास
महाराष्ट्र और कर्नाटक की अपेक्षा, तमिलनाडु ने विकास का जो मॉडल चुना है, वह ज़्यादा ‘संतुलित’ प्रतीत होता है. राज्य के दो सबसे बड़े ज़िलों (चेन्नई और कोयंबटूर) का राज्य की अर्थव्यवस्था में योगदान, पांचवें हिस्से से थोड़ा कम है. यहां पर ये देखना ज़रूरी है कि राजधानी शहर चेन्नई राज्य के पूर्वी हिस्से में स्थित है, जबकि कोयंबटूर राज्य के पश्चिमी हिस्से में है. यह भी प्रतीत होता है कि बीते वर्षों में इनकी भागीदारी में विपरीत रुझान देखने को मिला है. अगले दो ज़िलों (तिरुवल्लुर और कांचीपुरम) में बढ़ती हुई प्रवृत्ति नज़र आती है. इससे संकेत मिलता है कि ये राज्य के उभरते हुए ज़िले हो सकते हैं.
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इस विश्लेषण का महत्व क्यों है, सरकारें क्या कर सकती हैं
महाराष्ट्र और कर्नाटक के जिलों को देखने से पता चलता है कि आर्थिक विकास मुख्य: रूप से राज्य के कुछ चुनिंदा इलाकों, राजधानी और उससे जुड़े ज़िलों, में केंद्रित रहा है. उससे भी अहम ये है कि राज्य के उत्पादन में ज़िलों का असमान योगदान, काफी समय से ऐसा ही बना हुआ है, जिससे संकेत मिलता है कि राज्यों के आतंरिक विकास भौगोलिक रूप से ‘असंतुलित’ रहे हैं. दूसरी ओर तमिलनाडु राज्य ने जिलों के बीच की असमानता को बहुत अधिक नहीं होने दिया है.
इन निष्कर्षों में नीतियों को लेकर बहुत महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं. क्षेत्रीय आर्थिक विषमता समृद्ध राज्यों में भी नज़र आती है. किसी राज्य की आर्थिक प्रगति या समृद्धि, आमतौर पर राजधानी ज़िले के आसपास केंद्रित होती है. ऐसे में राज्य सरकारों के सक्रिय हस्तक्षेप की आवश्यकता है, ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि हर ज़िला या क्षेत्र राज्य की प्रगति में, आनुपातिक रूप से भागीदार हो सके. अन्यथा, अपेक्षाकृत कम विकसित क्षेत्र खुद को अलग-थलग महसूस कर सकते है. ऐसे में स्थिति इस हद तक भी जा सकती है कि ये उपेक्षित क्षेत्र एक अलग राज्य की मांग भी कर सकते हैं. मिसाल के तौर पर, पूर्वी महाराष्ट्र में विदर्भ की मांग समय-समय पर जोड़ पकड़ती रहती है.
इसका एक समाधान ये हो सकता है कि राज्यों में, तुलनात्मक सुलाभ (कम्पेरेटिव एडवांटेज) के आधार पर, जिलों का विकास किया जाए और घरेलू निर्यात के लिए वस्तुएं उत्पादित की जाएं. भारत जैसे देश में यह एक दिवास्वप्न नहीं है, जहां, खासकर उत्पादन के मामले में, सरकार के हाथों में अभी भी बहुत आर्थिक शक्तियां निहित हैं.
(विकास वैभव डॉ बीआर आम्बेडकर स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स, बेंगलुरू में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. वरुण कुमार दास दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार लेखकों के निजी हैं)
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