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Wednesday, 20 November, 2024
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लद्दाख में स्ट्राइक कोर के रीओरिएंटेशन का फैसला पर सेना को बड़े स्तर पर रीस्ट्रक्चरिंग की जरूरत

सेना ने आखिरकार यह समझ लिया है कि भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए मुख्य खतरा पाकिस्तान से नहीं बल्कि चीन से है.

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एक चीनी कहावत है कि कोई भी संकट खतरनाक बवंडर पर सवार अवसर जैसा होता है. पूर्वी लद्दाख में चीन की वजह से पैदा हुए संकट ने भारतीय सेना को इसे अपने संरचनात्मक और संगठनात्मक सुधारों की पहल करने के अवसर में बदलने के लिए प्रेरित किया है. उसने बिना शोरशराबे के 1 कोर— मैकेनाइज़्ड फोर्सेज पर आधारित तीन स्ट्राइक कोर में से एक है जिनका फोकस पाकिस्तान है.— को लद्दाख के लिए दूसरे माउंटेन स्ट्राइक कोर के रूप में बदलने और पुनर्गठित करने का फैसला किया है. 17 माउंटेन स्ट्राइक कोर अब केवल उत्तर-पूर्व के लिए केंद्रित रिजर्व पलटन होगी और इसे तीन-चार ‘इंटीग्रेटेड बैटल गुप्स’ (आइबीजी) में पुनर्गठित किया जाएगा.

इस फैसले से साफ है कि सेना ने यह मान लिया है कि भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा चीन से है, पाकिस्तान से नहीं. यही नहीं, वह जम्मू-कश्मीर/पश्चिम लद्दाख में पाकिस्तान के खिलाफ माउंटेन स्ट्राइक कोर का इस्तेमाल कर सकती है. उम्मीद की जाती है कि अब बात केवल बदलाव पर रुक नहीं जाएगी बल्कि पुनर्गठन और पुनःसंरचना के जरिए सेना की ताकत बढ़ाने के लिए और भी बड़े तथा समग्र सुधार किए जाएंगे. हमारी सेना अभी भी द्वितीय विश्वयुद्ध वाले सांगठनिक ढांचे पर आधारित है और उसमें ऐसे बदलाव किए जाते रहे हैं जो उसे 20वीं सदी वाले युद्ध के लिए तैयार करते हैं. हमें उन रणनीतिक मजबूरियों को समझना होगा, जो भविष्य की लड़ाइयों/युद्धों के तौर-तरीके को प्रभावित करेंगे.


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रणनीतिक मजबूरियां

+ परमाणु शक्ति वाले देश निर्णायक पारंपरिक युद्ध नहीं कर सकते.

+ परमाणु युद्ध से निचले स्तर की लड़ाईयां/युद्ध उच्च स्तरीय तकनीक से कम समय और कम स्थान में लड़ी जाएंगी. इस तरह की लड़ाईयां/युद्ध लड़ने के लिए बहु क्षमता वाले संगठनों की जरूरत पड़ेगी.

+ भारत की जो आर्थिक मजबूरियां हैं उनके कारण निकट भविष्य में रक्षा बजट में कोई बड़ी वृद्धि होने की उम्मीद नहीं है. फिलहाल रक्षा बजट सैनिकों की बहुलता वाली सेना को संभालने में ही खर्च होता है.

इसीलिए हमारी मेकनाइज्ड और इन्फैन्ट्री पलटनों का पुनर्गठन महत्वपूर्ण हो जाता है.


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मेकनाइज्ड और इन्फैन्ट्री पलटनों का पुनर्गठन

हमारी सेना इन्फैन्ट्री प्रधान सेना है, जिसमें 17 माउंटेन डिवीजन हैं (जिनमें तीन दूसरे नाम के इन्फैन्ट्री डिवीजन शामिल हैं) और 18 इन्फैन्ट्री डिवीजन हैं (जिनमें 4-6 ‘रीऑर्गनाइज्ड प्लेन्स इन्फैन्ट्री डिवीजन’ (रैपिड) शामिल हैं, ‘रैपिड’ में इन्फैन्ट्री ब्रिगेड की जगह एक आर्मर्ड ब्रिगेड भी है). इसके अलावा कुछ स्वतंत्र इन्फैन्ट्री ब्रिगेड भी हैं. मेकनाइज्ड पलटनों को तीन आर्मर्ड डिवीजनों, 18-20 स्वतंत्र आर्मर्ड/मेकनाइज्ड ब्रिगेड में संगठित किया गया है. मैदानी इलाकों में तैनात सभी इन्फैन्ट्री डिवीजनों और दो माउंटेन डिवीजनों में एक आर्म्ड रेजीमेंट भी है. डिवीजन 14 कोर- सात माउंटेन और सात मैदानी- के अंतर्गत काम करते हैं.

डिवीजनों को ‘इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप्स’ (आईबीजी) में पुनर्गठित करने का फैसला किया जा चुका है. इनमें मिशन और इलाके के मुताबिक टुकड़ियां (कंबेट आर्मर्ड और सपोर्ट यूनिट) तैयार की जाएंगी. सभी आधुनिक सेनाएं इन संगठनों को बहुत जल्द अपना चुकी है या अपनाने वाली हैं.

चीनी सेना पीएलए ने इस विचार को कंबाइंड आर्म्स ब्रिगेड के रूप में पहले ही लागू कर दिया है. भारत इस दिशा में बहुत सुस्ती से आगे बढ़ रहा है और उसे गति बढ़ानी चाहिए. दुर्भाग्य से, आईबीजी की बुनियादी युद्ध यूनिट— आर्मर्ड रेजीमेंट और इन्फैन्ट्री बटालियन— अभी भी उसी तरह संगठित की जा रही है जैसे 80 साल पहले की जाती थीं.

ऐसा लगता है कि हमने युद्ध के अपने अनुभवों और टेक्नोलॉजी के प्रभाव को कमतर आंका है. सैन्य संगठन जकड़बंदी के हिस्से बन गए हैं और लड़ाकू टुकड़ियां यथास्थिति की शिकार हो गई हैं. एक इन्फैन्ट्री बटालियन में 120-120 सैनिकों से बनी चार राइफल कंपनियां होती हैं. इसके अलावा, इसमें गोलों और टैंक-रोधी गाइडेड मिसाइल के लिए विशेष प्लाटून होती हैं और लॉजिस्टिक्स की उप यूनिट भी होती है.

विश्वयुद्ध के अनुभव, खासकर हताहत होने की दर और आधुनिक तकनीक के आगमन के मद्देनज़र आधुनिक सेनाओं ने चार की जगह तीन राइफल कंपनी की व्यवस्था को अपनाया है और इन्फैन्ट्री कंबैट वेहिकल्स (आइसीवी) या आर्मर्ड पर्सोनेल केरियर्स (एपीसी) के द्वारा बख्तरबंद सुरक्षा की व्यवस्था की है. हमारा अनुभव इस बदलाव का समर्थन करता है.

करगिल युद्ध में हमारे 527 सैनिक शहीद हुए (वास्तविक युद्ध में 462 मारे गए) और 1363 घायल हुए थे. उस ऑपरेशन में 30 इन्फैन्ट्री बटालियन शामिल थी. शहीद हुए 90 प्रतिशत सैनिक इन्फैन्ट्री के थे, यानी हरेक बटालियन के 16 सैनिक मारे गए और 41 घायल हुए. यह कुल 800 सैनिकों की यूनिट का केवल 6 प्रतिशत है. पराजित पाकिस्तानी सेना के 453 सैनिक मारे गए और 665 घायल हुए थे. ये आंकड़े थ्री- कंपनी सिस्टम को अपनाना जायज ठहराते हैं.

आधुनिक हथियार सिस्टम और टोही/निगरानी व्यवस्था इस तर्क को और मजबूती देती है.

हमारे पास 390 इन्फैन्ट्री बटालियन (10 स्काउट बटालियन समेत), 9 पारा स्पेशल फोर्सेस बटालियन, 5 पारा बटालियन, 63 राष्ट्रीय राइफल्स बटालियन, 40 असम राइफल बटालियन हैं. अगर इन सबको या अधिकांश को थ्री राफल कंपनियों में पुनर्गठित किया गया तो हम 50,000 सैनिकों को दूसरी जगह भेज सकते हैं. तब करीब 12-18 आईबीजी के लिए पर्याप्त इन्फैन्ट्री बटालियन मिल सकती हैं, हरेक को 4-6 इन्फैन्ट्री बटालियन. इतने सैनिकों को किसी और काम में लगाया जा सकता है, या कम किया जा सकता है.

भारतीय सेना की आर्मर्ड रेजिमेंट में वर्ष 1940 से 45 टैंक हैं. उसे 14 टैंक वाले तीन स्क्वाड्रन और 3 टैंक वाले चार ट्रूपों में संगठित किया जा सकता है. उसके बाद से टैंकों के डिजाइन में संचालन, सुरक्षा और मारक क्षमता के लिहाज से क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं. युद्ध के हमारे अनुभव टैंकों की संख्या घटाकर 31 करने की जरूरत बताते हैं यानी प्रति स्क्वाड्रन 10 टैंक, और तीन-तीन टैंक के लिए तीन ट्रू और स्क्वाड्रन कमांडर तथा रेजिमेंट कमांडर के लिए एक-एक टैंक. आईसीवी और एपीसी का इस्तेमाल रेजिमेंट/स्क्वाड्रन के सेकंड-इन-कमान और एड्जुटेंट द्वारा कमांड और कंट्रोल के लिए किया जा सकता है.

1965 या 1971 के युद्ध में अधिकतम 15 टैंकों का नुकसान हुआ था. 1965 में छविंडा की लड़ाई में पांच आर्मर्ड रेजिमेंट के हिस्से के तौर पर कुल 225 में से हमारे 29 टैंकों का ही नुकसान हुआ (हमारा हाथ ऊपर था). पाकिस्तान ने अपने 150 में से 44 टैंक खोए. 1965 में असल उत्तर की लड़ाई में हमारे 135 में से 10-14 टैंकों का नुकसान हुआ. पाकिस्तान ने गलत चालों और प्रतिकूल इलाके के कारण अपने 220 में से 99 टैंक गंवाए, यानी प्रति रेजिमेंट 20 टैंक. 1971 की लड़ाई में टैंकों का सबसे बड़ा मुकाबला बसंतर में हुआ, जिसमें हमने 10-14 और पाकिस्तान ने 46 टैंक गंवाए. यहां भी उसे गलत चालों के कारण नुकसान हुआ.

हमारे पास करीब 70 बख्तरबंद रेजिमेंट हैं, जिनमें वे शामिल हैं जिनका अभी गठन चल रहा है. अगर इन्हें 31 टैंकों के आधार पर गठित किया गया तो 980 टैंक उपलब्ध होंगे, जो कि 31 टैंकों के आधार पर गठित 32 बख्तरबंद रेजिमेंट के बराबर होगा. यह प्रति आईबीजी दो रेजिमेंट के पैमाने से 16 आईबीजी के लिए पर्याप्त होगा.

इसी तरह, मेकेनाइज्ड इन्फैन्ट्री बटालियन में प्रति आईसीवी प्लाटून एक आईसीवी कम करने की गुंजाइश है. यानी प्रति बटालियन 9 आईसीवी कम किया जा सकता है. 50 मेकेनाइज्ड इन्फैन्ट्री बटालियन के हिसाब से 450 आईसीवी उपलब्ध होंगे, जो अतिरिक्त नौ मेकेनाइज्ड इन्फैन्ट्री बटालियन के लिए पर्याप्त होंगे. खुले युद्ध क्षेत्र में असुरक्षित इन्फैन्ट्री सैनिकों के जान के भारी नुकसान के बिना कोई कार्रवाई नहीं कर सकती. इसका अर्थ है कि लद्दाख और उत्तर-पूर्व के मैदानी या ऐसे इलाकों में तैनात सभी इन्फैन्ट्री बटालियन को धीरे-धीरे सरल, सस्ते पहियों वाले एपीसी से लैस करना ही होगा.

उपरोक्त पुनर्गठन/ पुनर्रचना हमें आईबीजी की ओर ले जाएगी और लद्दाख और उत्तर-पूर्व में मोर्चे पर तैनात सेना की 100 प्रतिशत जरूरतों को पूरा करने की दिशा में बढ़ाएगी. इसी तरह की कार्यवाही लड़ाई में सहायता करने वाली सेना और सैन्य सेवाओं के लिए भी की जा सकती है. लेकिन इन मामलों में मिशन और इलाके के हिसाब से उनकी जरूरतों को पूरा करना प्रासंगिक होगा, न कि उन्हें कमान के अंतर्गत रखना.

वक्त आ गया है कि सेना अपनी जड़ता तोड़े और 21वीं सदी के युद्धों के लिहाज से पुनर्गठन, पुनर्रचना और आधुनिकीकरण करे. यह उसके अंदर से ही हो सकता है.

बेशक आधुनिकीकरण भी जरूर जारी रहना चाहिए. एकाग्रता युद्ध का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है. भावी युद्धों/लड़ाईयों में फैसले के स्तर पर चुस्ती और उपयोगी युद्ध क्षमता ही काम आएगी न कि सेना का विशाल आकार.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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