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Friday, 22 November, 2024
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भारतीय सेना में नौकरशाही बरकरार है, डीएमए सशस्त्र सेनाओं के लिए बुरी सलाह पर आधारित आदेश जारी करने का ज़रिया बना है

सीडीएस रावत के नेतृत्व वाला सैन्य मामलों का विभाग सेनाओं के आवास और बुनियादी ढांचे संबंधी परियोजनाओं में सुधारों का प्रयास कर रहा है. लेकिन इसके द्वारा सुझाए गए उपाय दूरगामी परिवर्तनों के संकेत देते हैं.

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नवगठित सैन्य मामलों के विभाग का गूढ़ संदेशों वाला 18 मार्च 2020 का एक पत्र गत सप्ताह अचानक सोशल मीडिया पर दिखाई दिया. इसमें चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) की अगुआई वाले विभाग द्वारा आरंभ ‘ठोस सुधारों’ के प्रथम औपचारिक संकेत थे.

पत्र का विषय एनुअल मेजर वर्क्स प्रोग्राम संबंधी संसाधनों के बेहतर उपयोग के उपायों के बारे में था, जिनमें सशस्त्र सेनाओं की तीनों शाखाओं– थल सेना, नौसेना और वायु सेना– के आवास और बुनियादी ढांचे की निर्माण परियोजनाएं शामिल की जाती हैं. लेकिन पत्र में वर्णित उपायों के निहितार्थ अप्रत्यक्ष रूप से दूरगामी सुधारों के संकेत देते हैं ताकि व्यय और मानवशक्ति का बेहतर प्रबंधन किया जा सके. सैन्य मामलों के विभाग (डीएमए) ने पत्र की मौजूदगी से इनकार नहीं किया है.

डीएमए का पत्र नौकरशाही के रवैये का एक विशिष्ट उदाहरण है जिसमें व्यय के बेहतर प्रबंधन को, अन्य कारकों और ऑपरेशनल दक्षता से अलग करके देखा जाता है, और जिसके कारण अंततः खर्च बढ़ता ही है.

संसाधनों के बेहतर उपयोग से संबंधित उपायों के अनुसार हर सैनिक स्टेशन में एक ऑफिसर्स मेस होना चाहिए न कि प्रति यूनिट के हिसाब से 15-20, जूनियर कमीशंड ऑफिसर्स क्लबों की अधिकृत क्षमता को आधा कर दिया जाना चाहिए, ‘अन्य रैंकों’ के लिए भी रसोइयों की संख्या 125-150 सैनिकों वाली प्रति सब-यूनिट पर मौजूदा 4-5 की जगह 2 कर दी जाए, चिकित्सा निरीक्षण कक्ष/ अन्य रैंकों के संस्थान/ फैमिली वेलफेयर सेंटर/ हथियार सिमुलेटर कक्ष आदि सभी प्रमुख यूनिटों में होने के बजाय प्रति स्टेशन पर एक होना चाहिए, बख्तरबंद वाहनों के गैराज कंक्रीट वाले भवनों के बजाय टिन शेड में हों और पहिये वाले वाहनों को अस्थाई टिन शेडों में रखा जाए.

ये ज्ञात नहीं है कि इन उपायों के परिणामस्वरूप मानवशक्ति और व्यय के बेहतर प्रबंधन के लिए अलग से कोई नीति पत्र जारी किया गया है या नहीं, शांतिकाल से फील्ड/युद्धकालीन परिस्थितियों के लिए मोबिलाइजेशन के बारे में इनके क्या निहितार्थ हैं, और क्या ये उपाय केवल भविष्य के लिए सुझाए गए हैं या समग्र सुधारों का हिस्सा हैं.

ऑफिसर, जेसीओ और ओरआर के मेस

सशस्त्र सेनाओं में यूनिटों और फॉर्मेशनों को ऑपरेशनल एवं प्रशासनिक दृष्टि से आत्मनिर्भर स्वतंत्र इकाइयों के रूप में संगठित किया जाता है ताकि त्वरित नोटिस पर युद्ध के लिए तैनाती की जा सके. हमारे विशिष्ट जोखिम परिदृश्य और ऑपरेशनल रणनीति के मद्देनजर शांतिकालीन स्टेशनों, यूनिटों और फॉर्मेशनों से भी अपेक्षा की जाती है कि युद्धकाल में वे 24 घंटे के भीतर तैनात किए जाने में सक्षम हों, और वे इस संबंध में वार्षिक अभ्यास भी करते हैं और ऑपरेशनल क्षेत्रों के निकट सामूहिक प्रशिक्षणों में भाग लेते हैं.


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अधिकारियों, जेसीओ और अन्य रैंकों के लिए खाने की व्यवस्था क्रमश: ऑफिसर्स मेस, जेसीओ मेस/क्लब और डाइनिंग हॉलों में की जाती है जिनमें कुक हाउस संलग्न होते हैं. जबकि ऑपरेशनल क्षेत्रों में और युद्ध क्षेत्रों में, यूनिट मुख्यालय के अलावा, बाकी जगह सभी रैंक के सैनिक साझा कुक हाउसों पर निर्भर करते हैं. शांतिकालीन स्टेशनों में ऑफिसर्स मेस और जेसीओ क्लब में परिवार के बिना या अकेले रहने वाले अधिकारियों/जेसीओ की रिहाइश की भी व्यवस्था होती है. इसी तरह ऑफिसर्स मेस और कुछ हद तक जेसीओ मेस भी, यूनिट विशेष से जुड़ी ट्राफियों, यादगार निशानियों और अभिलेखों के संग्रह केंद्र के तौर पर भी काम करते हैं.

जहां तक पुरानी यूनिटों की बात है तो ये संस्थान एक तरह से संग्रहालय जैसे बन चुके हैं. वे रैंक ढांचे और संबंधित सुविधाओं के पदानुक्रम को भी प्रदर्शित करते हैं जोकि सैन्य संस्कृति और कार्यप्रणाली का हिस्सा हैं. अन्य रैंकों के डाइनिंग हॉलों का संचालन भी सब-यूनिट स्तर की संस्कृति को बढ़ावा देने के उद्देश्य से किया जाता है और उनके लिए 100-150 सैनिकों की ऊपरी सीमा रखी जाती है क्योंकि इससे अधिक संख्या में मानवबल का प्रबंधन मुश्किल हो जाएगा.

पिछले पांच दशकों में अधिकांश आधुनिक सेनाओं ने वित्तीय कारणों और भाईचारा बढ़ाने के नाम पर ऑफिसर्स मेस और जेसीओ/सार्जेंट मेस की संस्कृति को छोड़ दिया है. यहां तक कि ब्रितानी सेना भी, हमें जिसकी संस्कृति विरासत में मिली है, बुनियादी सुधारों की प्रक्रिया में हैं जिनके तहत रेजिमेंटों की व्यवस्था और मेस की संस्कृति को छोड़ा जा रहा है. यहां तक कि ऑफिसर्स मेस/जेसीओ क्लब को बंद कर हर यूनिट में हर रैंक के लिए साझा मेस शुरू किए जाने का भी एक मामला सामने आया है.

हालांकि, इस सुधार के फायदों को भारतीय सशस्त्र सेनाओं की परंपरा, लोकाचार और संस्कृति पर प्रतिकूल प्रभावों के समानांतर तौला जाना चाहिए. साथ ही, हमारे समक्ष मौजूद खतरों और हमारी रणनीति के मद्देनज़र शांतिकालीन सैनिक संरचनाओं में खुद को 24 घंटे के भीतर फील्ड/युद्धकालीन ज़रूरतों के अनुरूप ढालने की भी क्षमता होनी चहिए. यहां ये उल्लेखनीय है कि ऑफिसर्स मेस को लेकर इसी तरह का सुधार 1970 के दशक के शुरुआती वर्षों में भी करने की कोशिश की गई थी, लेकिन वह प्रयास अधूरा ही छोड़ दिया गया था.

स्टेशन के स्तर पर दक्षता बढ़ाना

ऊपर वर्णित संस्थानों के अलावा, स्टेशन स्तर पर अन्य संस्थानों और केंद्रों की दक्षता बढ़ाने के उपायों का वहां तैनात सैनिकों की संख्या, स्टेशन के भीतर यात्रा में लगने वाले समय तथा फील्ड/युद्धकालीन ज़रूरतों आदि के अनुरूप परीक्षण किया जाना चाहिए.


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अन्य रैंकों की संस्थाओं, चिकित्सा निरीक्षण कक्षों और सिमुलेटर केंद्रों का स्टेशन या सेक्टर के स्तर पर आसानी से बेहतर प्रबंधन किया जा सकता है. कई सेनाओं ने, ऑफिसर्स क्लबों और अन्य रैंकों के संस्थानों की व्यवस्था को वित्तीय आधार पर और कॉमर्शियल सुविधाओं की उपलब्धता के आधार पर समाप्त कर दिया है. लेकिन भारत के संदर्भ में सुरक्षा कारणों को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रूरत है.

सैन्य उपकरणों के लिए गैराज

सेना के संबंध में एक मशहूर कहावत है कि युद्धों में बंदूकों से ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं बंदूक चलाने वाले. लेकिन यह भी सच है कि एक श्रेष्ठ सैनिक वैसी स्थिति में कारगर साबित नहीं होगा, जब उसकी बंदूक खस्ताहाल हो.

कीमती सैन्य उपकरणों के भंडारण और रखरखाव के लिए भवनों और गैराजों की व्यवस्था की एक वैज्ञानिक रूपरेखा होती है. इनमें कोई भी बदलाव उपकरणों की उम्र को कम करने का कारण बन सकता है और ये कवायद पैसे बचाने के लिए रुपये गंवाने वाला उदाहरण साबित हो सकती है.

सामान्य वाहनों को खुले में या अस्थाई शेडों में पार्क किया जा सकता है, लेकिन विशेष और बख्तरबंद वाहनों तथा लड़ाई के अन्य साज़ो-सामान को वैज्ञानिक निर्देशों के अनुरूप बने भवनों में ही रखना अधिक उचित होगा.

सुधारों का त्रुटिपूर्ण तरीका

पचास साल पहले आवास की कमी के कारण बड़ी संख्या में यूनिटों को अस्थाई टेन्टों में रखा गया था. जल्द ही, समय के साथ घिसाव और टूटफूट के कारण टेन्टों को बदलने का खर्च अत्यधिक हो गया. ऐसे में टेन्टों की जगह एक ईंट वाली दीवारों और एस्बेस्टस की छतों वाले अस्थाई शेड बना दिए गए, जिनका जीवनकाल 7-10 वर्षों का था. लेकिन बजटीय बाधाओं के कारण उन भवनों के जीवनकाल को निरंतर बढ़ाते रहना पड़ा जिससे उनके रखरखाव की लागत उनके निर्माण की लागत से अधिक हो गई, और 20 वर्षों में उन पर आने वाला कुल खर्च स्थाई आवास की लागत से भी अधिक हो गया था.


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डीएमए के गठन के बाद एकमात्र अंतर यही प्रतीत होता है कि सशस्त्र सेनाओं का सामना, एक नए अवतार में, उसी पुरानी नौकरशाही के बिना सुविचारित आदेशों से होगा. ‘सचिव, डीएमए और सीडीएस’ के आदेशों को जारी करने वाले पत्र पर एक ‘अवर सचिव’ का हस्ताक्षर था– इससे एक पूर्व सेनाध्यक्ष के दर्जे में पदावनित की विडंबना उजागर होती है जोकि भारत सरकार के सचिव से ऊपर के रैंक का होता है.

(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिट.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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