चुनावों के मौसम में बाकी ‘देशभक्ति’ यानी ‘आरएसएस-भक्ति’ वाली फिल्मों की तरह ही ‘केसरी’ फिल्म की अहमियत क्या हो सकती है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उसमें ‘खलनायक’ हैं मुसलमान और हीरो सिख. हाल में सिख समुदाय के तमाम ऐसे उदाहरण सामने आए, जिसमें उन्होंने कभी बाढ़-पीड़ितों की तो कभी रोहिंग्या शरणार्थियों तो कभी कश्मीरी मुसलमानों या दूसरे जरूरतमंदों की मदद के लिए जितना उनसे संभव हो सकता था, वह सब उन्होंने किया. तो अब सिनेमा के जरिए यह बताने की कोशिश होगी कि सिख तो मुसलमानों के दुश्मन रहे हैं.
एक जनवरी, 2018 को जब भीमा-कोरेगांव की लड़ाई की दो सौवीं वर्षगांठ मनाई जा रही थी, तो वहां सभा में आने वाले दलित-बहुजन जाति के लोगों पर हमला किया गया था, व्यापक हिंसा हुई थी. तब मीडिया के मुख्यधारा और ब्राह्मणवाद के पैरोकार मंचों से सबसे ज्यादा इस बात का प्रचार किया गया था कि भीमा-कोरेगांव की जिस लड़ाई की कहानी पर गर्व जाहिर किया जा रहा है, उसमें उन सैनिकों ने अंग्रेजों की सत्ता के पक्ष में ब्रिटिश सेना के लिए लड़ाई की थी.
यह भी पढ़ें: खबरें अब हिंसक और जानलेवा हो गई हैं
गौरतलब है कि एक जनवरी 1818 को महाराष्ट्र के पुणे में पेशवा के अट्ठाइस हजार फौजियों को महज महार और दूसरी कमजोर जातियों से आने वाले करीब पांच सौ सैनिकों ने अपनी बहादुरी से धूल चटा दिया था और भीमा-कोरेगांव के मैदान से पेशवा की फौज भाग गई थी. महार और अन्य कमजोर जातियों के सैनिकों की वह लड़ाई इसीलिए इतिहास में दर्ज हो गई.
इसी तरह की बहादुरी की एक और कहानी सारागढ़ी की लड़ाई की है, जिसमें महज इक्कीस सिख सैनिक दस हजार पठानों की फौज से भिड़ गए थे. इतनी कम तादाद होने के बावजूद पठानों की फौज को नाकों चने चबाना पड़ा था और सिखों की उस बहादुरी के किस्से ने भी इतिहास में एक अहम जगह बनाई.
फौजियों की बहादुरी के ये दो उदाहरण अपनी प्रकृति में मिलते-जुलते हैं. लेकिन भारत का सत्ताधारी तबका अपनी सुविधा से घटनाओं की व्याख्या करता है. सारागढ़ी की लड़ाई में सिख सैनिकों की बहादुरी को भारत का ब्राह्मणवादी चिंतन एक बड़ी और महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के तौर पर पेश करता है, जबकि भीमा-कोरेगांव की लड़ाई में महार सैनिकों की बहादुरी को न केवल खारिज करता है, बल्कि उस बहाने दलित समुदाय और खासतौर पर महार जाति की पहचान वाले लोगों को अपमानित करने की कोशिश की जाती है.
यह भी पढ़ें: परंपरा और आस्था के असली निशाने पर मुसलमान नहीं, दलित और पिछड़े हैं
हकीकत यह है कि भीमा-कोरेगांव में महार सैनिक अंग्रेजों के लिए लड़ रहे थे, तो सारागढ़ी में सिख फौजी भी अंग्रेजी सत्ता के लिए ही लड़ाई की थी. सारागढ़ी की लड़ाई में ब्रिटिश सत्ता की ओर से लड़ रहे इक्कीस सिख सैनिकों ने हजारों पठान सैनिकों को दमदार चुनौती दी, जबकि पठान या ओरकजई लोग अंग्रेजों के खिलाफ जंग कर रहे थे.
तो ऐतिहासिक सच होने के बावजूद भारत का सत्ताधारी तबका भीमा-कोरेगांव के महार योद्धाओं को अंग्रेजी सत्ता के अधीन होने पर क्यों जोर देता है और दूसरी ओर अंग्रेजों के राज के अधीन रह कर लड़ने वाले सिखों की बहादुरी को अपने माथे पर क्यों सजाता है! जबकि ओरकजई या पठान तब अंग्रेजों के खिलाफ एक लंबी, बड़ी और महान जंग लड़ रहे थे.
दरअसल, सुविधा की इस व्याख्या का बुनियादी मकसद आमतौर पर समाज के ‘शासित तबकों’ और ‘दुश्मनों’ को कमतर करना, उन्हें अपमानित करना होता है. यह पाखंड राजनीति से लेकर साहित्य तक की दुनिया में भी खुल कर सामने आया है. इस बर्ताव की तह में अपनी सामाजिक सत्ता बनाए रखने की कोशिश होती है. इसके लिए दूसरों और खासतौर पर उन्होंने जिस ‘अन्य’ की पहचान की होती है, उसकी उपलब्धियों को खारिज किया जाता है, ताकि उसका मनोबल कमजोर रहे और समय आने पर उस पर कब्जा जमाना आसान रहे.
यही वजह है कि जो लोग भीमा-कोरेगांव की दो सौवीं वर्षगांठ के मौके के बाद यह प्रचारित करने में लगे हैं कि महार सैनिकों ने अंग्रेजों के पक्ष में लड़ाई की थी, वही लोग सारागढ़ी में अंग्रेजों की ओर लड़ने वाले सिख सैनिकों की बहादुरी को सलाम ठोंकते हैं.
इसकी असली वजह यह है कि दलित-वंचित जातियों पर कहर ढाने वाले पेशवाई राज के खिलाफ भीमा-कोरेगांव में महार सैनिकों का युद्ध दलित-बहुजन जातियों के सम्मान का प्रतीक है और उन्हें मनोबल से लेकर आंदोलन तक के स्तर पर मजबूत करता है. इससे समाज के सवर्ण जातियों की सामाजिक सत्ता को चुनौती मिलती है.
वहीं सारागढ़ी के सिख सैनिक उसे इसलिए पसंद हैं कि उस लड़ाई को याद करने और प्रचारित करने, सिनेमा के रूप में परोसने से ब्राह्मणवादी चिंतन को एक दुश्मन मिलता है. वह दुश्मन है पठान, यानी मुसलमान छवि वाला पठान. और जाहिर है कि मुसलिम छवि को ‘दुश्मन’ के रूप में कैद रखना यानी मुसलमानों के खिलाफ समाज के मानस को तैयार करना आरएसएस-भाजपा की राजनीति का हिस्सा बन चुका है.
सच यह है कि मुसलिम समुदाय को अपने निशाने पर रखना ही आरएसएस-भाजपा की राजनीति का जीवन-तत्त्व है. इससे उसे हिंदू पहचान वाले लोगों और समुदायों के भीतर असुरक्षा भाव भरने में मदद मिलती है. यानी एक काल्पनिक या झूठा दुश्मन गढ़ कर उन कथित हिंदुओं को भी डरा कर ब्राह्मणवादी राजनीति को समर्थन देने पर मजबूर किया जाता है, जिन्हें आम दिनों में ब्राह्मणों, सवर्णों और ऊंची कही जाने वाली जातियों की ओर से घोर उपेक्षा और अपमान का सामना करना पड़ता है.
यह भी पढ़ें: भारतीय मीडिया से उठ गया है लोगों का भरोसा
दलित-वंचित जातियों पर सामाजिक शासन के इसी ढांचे को कायम रखने के मकसद से उच्च कही जाने वाली जातियां अंग्रेजों के शासन की ओर से लड़ने वाले सिखों को बहादुरी का अद्भुत उदाहरण घोषित करता है, क्योंकि उन सिख सैनिकों ने जिनके खिलाफ लड़ाई की थी, वे आरएसएस-भाजपा के ‘दुश्मन’ का प्रतीक रचते हैं, इसके बावजूद कि वे ओरकजई या पठान अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ लड़ रहे थे. दूसरी ओर, भीमा-कोरेगांव में अंग्रेजों की ओर से लड़ने वाले महार सैनिकों को वह ‘देश के दुश्मन’ के रूप में दिखाना चाहती है, क्योंकि पेशवाई राज के खिलाफ लड़ने वाले वे महार सैनिक समाज के ब्राह्मणवादी ढांचे के सामने चुनौती पेश करते हैं.
जाहिर है, एक ही तरह की दो लड़ाइयों और बहादुर सैनिकों के समूह को दो नजर से देखने और उसे प्रचारित करने के पीछे ब्राह्मणवाद के सामाजिक-मनोवैज्ञानिक ढांचे को बहाल रखना है.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं)