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Friday, 29 March, 2024
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खबरें अब हिंसक और जानलेवा हो गई हैं

आजकल संचार और संप्रेषण के चालाक औजार को राजनीति का एक अहम जरिया बना लिया गया है. इसका मुख्य इस्तेमाल हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के लिए किया जा रहा है.

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इन दो सूचनाओं पर गौर करें–

1- प्रधानमंत्री मोदी ने देश भर में कश्मीरी लोगों से मारपीट की घटनाओं पर राज्य सरकारों को सख्त कार्रवाई करने को कहा.

2- बालाकोट में भारतीय वायुसेना के ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ से संबंधित कथित सेटेलाइट तस्वीरों में वहां आतंकी शिविर के नष्ट होने की खबरें जोर-शोर से प्रचारित की गईं, कई टीवी चैनलों में उसे प्रसारित किया गया, कुछ जिम्मेदार लोगों ने भी उसे साझा किया. बाद में इन तस्वीरों पर कई सवाल उठे.

ये दो उदाहरण भर हैं. पुलवामा की घटना के बाद एक तथ्य बिना सोचे-समझे प्रचारित किया गया कि इस हमले को अंजाम देने वाला कश्मीरी नौजवान है. इसके बाद देश भर में कश्मीर के लोगों के खिलाफ नफरत और हिंसा का माहौल बना, कई जगहों से कश्मीरी लोगों को मारने-पीटने, भगाने की खबरें आईं. यह सब करीब एक महीने चलता रहा, लेकिन न तो केंद्र सरकार को न राज्यों सरकारों को इस मसले पर कोई ठोस दखल देना जरूरी लगा.

लखनऊ में कश्मीरी लोगों पर हमले के बाद करीब एक महीने बीतने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अहसास हुआ कश्मीरी लोगों पर हमला गलत है और इससे देश की अखंडता भी प्रभावित होगी, इसलिए इन हमलों को बंद कराया जाए.

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इसी तरह, बालाकोट में भारतीय वायुसेना के सर्जिकल स्ट्राइक और उसकी सेटेलाइट तस्वीरों की खबरें खूब प्रचारित हुईं, लेकिन बाद में इस पर कई सवाल उठे.


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दोनों ही मामले में खबरों की सब तरफ आक्रामक शक्लों ने साधारण लोगों पर तेज असर डाला, उनके भीतर प्रतिक्रिया पैदा हुई और वह मोदी सरकार के हक में गई. बाद में शायद कोई यह कोई नहीं पूछेगा कि इन खबरों के शुरुआती प्रभाव के जिम्मेदार लोगों को कठघरे में क्यों नहीं खड़ा किया जाए. इन्हीं घटनाओं पर जो प्रतिक्रयाएं या उनकी हकीकत सामने आई, वह शुरुआती प्रभाव से अलग थी, उलट भी.

मसलन, पुलवामा हमले के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने अगर शुरुआती दौर में ही कश्मीरियों पर हुए हमलों के खिलाफ यही बयान दिया होता तो देश भर में कश्मीरी लोगों पर हमला करने वालों को रोका जा सकता था. इसी तरह, बालाकोट हमले के बाद कथित सेटेलाइट तस्वीरों की हकीकत शुरू से ही सामने होती तो आम लोगों को भ्रमित नहीं होना पड़ता.

यानी दोनों ही मामलों में शुरुआती दौर में खबरों को फैल कर ध्रुवीकरण में मददगार होने दिया गया. जमीनी स्तर पर जनमत निर्माण के एजेंडे के तहत शुरू में चुप्पी साधे रखा गया. बाद में जब सच सामने आया या प्रधानमंत्री ने कश्मीरियों पर हमले पर आपत्ति जताई, तब तक उस एजेंडे के तहत लोगों के बीच एक आग्रह भर दिया गया था.

हाल में कई खबरें ऐसी आईं जो अपने शुरुआती दौर में खूब प्रचारित हुईं और बाद में वे फर्जी निकलीं. दरअसल, पिछले कुछ समय से कुछ वेबसाइटों पर कुछ खास और ज्यादा चर्चा में आ चुकी खबरों की तकनीकी पड़ताल की जाने लगी है और उसमें किसी खबर के सही या फर्जी होने की बात सामने आ रही है.

जाहिर है, आज फर्जी खबरों पर तूफान मचा देना और उनका लंबे समय तक बने रहना आसान नहीं रह गया है. फिलहाल इसका दायरा मुख्य रूप से सोशल मीडिया पर वायरल खबरों का है. हालांकि कई बार टीवी चैनलों पर प्रसारित खबरें भी इस तहकीकात की जद में आई हैं और उन्हें आम लोगों की विश्वसनीयता के कठघरे में खड़ा होना पड़ा है.

लेकिन ऐसी खबरों की असली समस्या इसके फर्जी होने से ज्यादा इसकी है कि इनका असर क्या होता है. वह पुलवामा हमले के बाद युद्ध और उन्माद के माहौल में अपुष्ट खबरों का प्रसारण हो या उससे पहले राजनीतिक महत्व की दूसरी खबरें, बिना किसी पड़ताल और पुष्टि के खूब जोर-शोर से प्रसारित-प्रचारित कर दी जाती हैं.


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आज टीवी और स्मार्ट फोन के दूरदराज के इलाकों तक पहुंच के दौर में वह खबर मिनटों या घंटों के भीतर एक बड़ी आबादी तक पहुंच जाती है. इस तरह से आमतौर पर ऐसी खबरें प्रचारित की जाती हैं, जो अपने असर में ओपिनियन मेकिंग यानी किसी मसले पर राय बनाने की क्षमता लिए होती हैं.

हाल के दिनों में लगातार यह देखने में आया है कि टीवी चैनलों और वाट्सऐप या फेसबुक के जरिए कोई ऐसी खबर फैला दी जाती है जो अपने तुरंत असर के रूप में आम लोगों को बुरी तरह प्रभावित करती हैं. लेकिन मुमकिन है कि उस खबर का कोई आधार नहीं हो या फिर उसमें कोई ऐसा पहलू छोड़ दिया गया हो, जिसके होने पर वह लोगों पर दूसरा असर छोड़ती.

कई बार खबर को इस तरह से भी पेश किया जाता है कि किसी स्पष्ट मुद्दे पर लोगों को भ्रमित कर दिया जाता है और इस तरह उसकी राय अपने पक्ष में मोड़ने में मदद मिलती है.

लेकिन जब उस खबर का सच या दूसरा पहलू सामने आता है तो अव्वल तो ज्यादा पहुंच वाले टीवी चैनल उसे जगह नहीं देते, दूसरे सोशल मीडिया या वेबसाइटों के जरिए वह खबर फैलती भी है तो आमतौर पर साधारण लोगों तक नहीं पहुंच पाती या फिर पहुंचती भी है तो किसी खास खबर के प्राथमिक असर को उतनी ही तीव्रता के साथ काट नहीं पाती.

जाहिर है, आजकल संचार और संप्रेषण के इस चालाक औजार को राजनीति का एक अहम जरिया बना लिया गया है. यह संचार या संप्रेषण के मुख्य जरिए यानी टीवी चैनलों के परोक्ष नियंत्रण के जरिए किया जा रहा है.

खबरों के प्राथमिक असर के इस औजार का इस्तेमाल मुख्य रूप से हिंदू-मुसलिम ध्रुवीकरण के लिए किया जा रहा है, क्योंकि फिलहाल यही एक बड़ा राजनीतिक कारक है, जो भाजपा के सत्ता में आने या न आने की क्षमता रखने वाला माना जा रहा है.


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इस मकसद से किसी झूठ का शिगूफा छोड़ दिया जाता है, फिर उसे दूरदराज के इलाकों में साधारण लोगों तक पहुंचने दिया जाता है. बाद में सच सामने आता भी है तो न तो उसकी पहुंच फैली हुई झूठ के इलाकों तक होती है, न वह सच झूठ के शुरुआती असर के पैमाने पर बराबर या उससे मजबूत होगा.

जाहिर है, खबरों और घटनाओं के शुरुआती सामाजिक असर का खेल कोई संयोग नहीं लगता, बल्कि प्रोपेगेंडा पॉलिटिक्स की एक सुचिंतित योजना है. इस तरह की प्रोपेगेंडा पॉलिटिक्स का त्रासदी भरा खमियाजा अतीत में दुनिया के कई समाजों ने भुगता है.

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार हैं.)

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