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Friday, 6 December, 2024
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अपने बच्चों को बचाओ! उनके दिमाग में ज़हर बोया जा रहा है

अब जिस तरह की प्रवृत्ति बढ़ती दिख रही है, उससे साफ है कि एक स्थायी दूरी और बंटवारे की राजनीति की चपेट में बच्चों को भी लाया जा रहा है.

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एक खबर के मुताबिक स्कूलों में पढ़ने वाले छोटे बच्चे अपने मुस्लिम साथियों को ‘पाकिस्तान जाओ’ कह रहे हैं, ‘मुल्ला’, ‘ओसामा’, बगदादी कह कर संबोधित कर रहे हैं. भाजपा के बहुत सारे नेता जब अपने विरोधियों के लिए आए दिन ‘पाकिस्तान जाओ’, जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, तो कइयों को यह सिर्फ बेलगाम बदजुबानी जैसा कुछ लगता होगा, जो वक्त के साथ अपने-आप खत्म हो जाएगा.

लेकिन राजनीतिक विरोधियों के लिए ‘पाकिस्तान जाओ’ जैसे नारे जब बात-बेबात लगाए जा रहे हैं, संचार माध्यमों के ज़रिए वे सभी लोगों तक पहुंच रहे हैं, तो उसके असर में बच्चे आने ही थे. मगर सवाल है कि इस तरह के सामाजिक व्यवहार की ज़मीन रचने वालों को क्या इस बात की फिक्र है कि इस तरह कैसी भावी पीढ़ी का निर्माण हो रहा है?

शायद यह उनकी चिंता में शुमार नहीं होगा, क्योंकि जिनका मकसद ही समाज को इस मन:स्थिति या फिर सोच के दायरे में ले जाना हो, वे इस तरह के हालात को अपनी कामयाबी भी मान सकते हैं. लेकिन जिस समाज में ज़्यादातर लोग इस तरह सोचने लगें, अपने से अलग विचार रखने वालों से नफरत करने लगें, उन्हें नीचा दिखाने के लिए हिंसक तक होने लगें, वह कैसा समाज होगा?

कोई भी समाजविज्ञानी किसी मनुष्य-विरोधी परंपरा से छुटकारे के लिए यही सलाह देगा कि वयस्क लोग अगर इसके नुकसानों को समझने लगे हैं तो वे अपने बच्चों को बचाएं. उम्मीद वहीं है. लेकिन हमारे देश में फिलहाल जिस तरह की विचारधारा की राजनीति हावी है, उसे इस बात की फिक्र नहीं है कि महज अपनी सामाजिक-राजनीतिक ज़मीन को मज़बूत करने के मकसद से की गई बेलगाम बातों से तैयार ज़हर बच्चों की दुनिया को कैसे तबाह कर रहा है.

हालांकि दुनिया भर में धर्मांधता या राष्ट्रवाद को हथियार बनाने वाले समूह, समाज के चंद लोगों की सत्ता कायम करने के लिए ही काम करते हैं, इसलिए उनकी नज़र में उस समुदाय के वंचित तबके और यहां तक कि बच्चे भी सिर्फ इस्तेमाल के लायक एक औजार होते हैं.

खासतौर पर धार्मिक भावनाओं को आधार बना कर की गई राजनीति में सबसे ज़्यादा समाज के उस तबके का ही इस्तेमाल किया जाता है, जो हाशिये पर पड़े अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों में उलझे होते हैं और उसके असली संदर्भों को नहीं समझ पाते हैं. लेकिन इतिहास गवाह है कि इस रास्ते पर चल कर पलती-बढ़ती पीढ़ी ने मानवीय मूल्यों से कैसे खुद को दूर कर लिया और आखिरकार अपने ही समाज को दशकों पीछे की ओर धकेल दिया.

स्कूल में पढ़ने वाले छोटे बच्चों की दुनिया से हममें से ज़्यादातर लोग गुज़र चुके होते हैं और हम सबको याद होगा कि किसी बात पर कितने भी तीखे झगड़े के कुछ घंटे या एक-दो दिनों बाद ही बच्चे आपस में एक-दूसरे के साथ बोलने-हंसने-खेलने लगते हैं. यह तस्वीर न सिर्फ बच्चों की मासूम दुनिया को बचाए रखने में मददगार होती है, बल्कि उससे कई बार सयाने माने जाने वालों के बीच भी बिगड़े हुए संबंधों में खुशियां भरती हैं. यानी एक सद्भावपूर्ण और मानवीय समाज की उम्मीद बच्चों से बनती है.

शुरुआती कक्षाओं के बच्चों का बर्ताव अगर अपने कुछ साथियों के मन में डर, उपेक्षा और अलग-थलग किए जाने का भाव भरने में सिर्फ इसलिए मददगार बन रहा है कि वे ‘उनके धर्म के’ नहीं हैं और एक खास धर्म की पहचान से जुड़े हैं तो यह देश के लिए चिंता की बात होनी चाहिए. इससे न केवल सामाजिक सद्भाव की जमीन कमज़ोर होगी, बल्कि यह एक बड़े समुदाय को देश के भीतर खुद को अलग-थलग महसूस करने पर मजबूर करेगा.

दरअसल, बिना किसी सवाल के धार्मिक भावनाओं की दुनिया में जीने वाले समाज को ‘अन्य’ धार्मिक पहचान वाले लोगों से दूरी बनाने के लिए उकसाना आसान होता है. जो लोग इसे अपनी राजनीति का आधार बनाते हैं, उनके लिए सबसे अहम एजेंडा समाज पर राजनीतिक और मानसिक रूप से शासन करना होता है. इससे कुछ खास और समर्थ तबके का समाज के बाकी हिस्से पर हावी रहना सुनिश्चित किया जाता है. इसी छोटे से तबके का ज़्यादातर संसाधनों पर कब्ज़ा होता है. यानी एक तरह से धार्मिकता की राजनीति समाज के एक छोटे-से हिस्से की सामाजिक-आर्थिक सत्ता कायम करने का भी ज़रिया होती है.

इसके लिए धार्मिक भावनाओं का शोषण और लोगों के बीच भय और असुरक्षा का भाव भरते रहना ज़रूरी होता है. यही वजह है कि धर्म को अपनी राजनीति का केंद्र बनाने वाले दल लोगों के सामने किसी ऐसे समुदाय का कृत्रिम खौफ पैदा करते हैं, जिन्हें ‘विरोधी’ के रूप में स्थापित किया गया होता है. राजनीतिक-सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों के ज़रिए लगातार इसकी हवा बनाए रखी जाती है और संचार माध्यमों का आक्रामक इस्तेमाल किया जाता है.

ज़ाहिर है, इन गतिविधियों के दर्शक और ‘उपभोक्ता’ बच्चे भी होते हैं, जिनके मन में उभरे सवालों को ज़रूरी जवाब नहीं मिल पाता है और इस तरह उनका मानस भी धार्मिक पहचान को ‘बंटवारे के सिद्धांत’ के तौर पर ग्रहण करता है. भारत में हिंदुत्व की राजनीति करने वाले समूहों ने मुसलमानों को ‘विरोधी’ छवि के रूप में प्रचारित किया है.

इसका फायदा दरअसल सामाजिक ढांचे में कुछ जातियों के वर्चस्व की यथास्थिति को बनाए रखने के रूप में मिलता है. लेकिन महज अपनी राजनीति चमकाने के लिए अगर कुछ नेता ‘पाकिस्तान जाओ’ जैसे हमलावर लहजे से अपने विरोधियों को शांत करना चाहते हैं तो यह ध्यान रखने की जरूरत है कि उनकी ऐसी हरकत भविष्य में कैसा समाज रच सकती है और वह देश की बुनियादी परिकल्पना के लिए कितना नुकसानदेह साबित हो सकती है.


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हालांकि इस संदर्भ में यह दूरी और बंटवारा हिंदू और मुसलिम पहचान के बीच देखने में आ रहा है, लेकिन दूसरे संदर्भों में यह पहले से मौजूद रहा है. देश भर से ऐसी खबरें आती रहती हैं कि स्कूलों में कुछ बच्चों ने इसलिए दोपहर का खाना खाने से इनकार कर दिया कि उसे बनाने वाली महिला दलित पृष्ठभूमि से थी.

जातियों के सवाल पर दलित या फिर पिछड़ी जातियों के बच्चों के प्रति सवर्ण बच्चों का व्यवहार अक्सर जातिगत भेदभाव की मानसिकता से संचालित होता है. लेकिन चूंकि यह भेदभाव समाज के रोजमर्रा के अभ्यास में शामिल है और लोग इसे सामान्य व्यवहार मानते हैं, इसलिए यह कोई मुद्दा नहीं बन पाता है. जबकि बच्चों का व्यवहार अगर जाति और धर्म की पहचान से संचालित होकर आपसी भेदभाव, दूरी और इससे आगे नफरत में ज़ाहिर होने लगता है तो किसी सभ्य समाज को इस पर चिंतित होना चाहिए.

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार हैं.)

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