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Sunday, 17 November, 2024
होमदेश‘पंजाबी आसानी से नहीं भूलते’-पंजाब के किसान खुश तो हो गए लेकिन मोदी को इससे कोई फायदा नहीं मिलेगा

‘पंजाबी आसानी से नहीं भूलते’-पंजाब के किसान खुश तो हो गए लेकिन मोदी को इससे कोई फायदा नहीं मिलेगा

किसानों की नाराजगी पूरी तरह खत्म न होने के दो प्रमुख कारण हैं लखीमपुर खीरी की घटना और मोदी सरकार के कानूनों के खिलाफ साल भर तक जारी रहे आंदोलन के दौरान कथित तौर पर 700 से अधिक किसानों की मौत.

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पटियाला/संगरूर/बरनाला: अगर बॉलीवुड को सही मानें तो पंजाब हमेशा बल्ले-बल्ले ही करता रहता है. 19 और 20 नवंबर को ये बात एकदम सच भी साबित हुई जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों को निरस्त करने के सरकार के फैसले की घोषणा की तो बाद पंजाब के आसपास के टोल बूथों, पेट्रोल पंपों और रेलवे स्टेशनों पर आंदोलनकारी किसान खुशी से झूमने लगे.

हालांकि, टोल बूथ पर भाषणों में चौपालों की बातचीत में और ड्राइंग रूम की चर्चाओं में सभी के सुर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और मोदी के खिलाफ सख्त ही रहे.

पटियाला निवासी 38 वर्षीय किसान हरजीत कौर ने कहा, ‘मोदी ने कानूनों को निरस्त करके हम पर कोई उपकार नहीं किया है. किसाना ने मोदी दी तो उत्ते गोड्डा टेक के करवाया है (हमने मोदी को घुटने टेककर कानून निरस्त करने को मजबूर किया है). अगर मोदी को लगता है कि इन कानूनों को निरस्त करने के कारण भाजपा सत्ता में आएगी, तो उन्हें सपने से बाहर आना चाहिए.’

पंजाब उन राज्यों में से एक है जहां अगले साल के शुरू में चुनाव होने वाले हैं.

किसानों की नाराजगी पूरी तरह खत्म न होने के दो प्रमुख कारणों में से एक लखीमपुर खीरी की घटना है, जहां केंद्रीय राज्य मंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष के काफिले ने कथित तौर पर चार किसानों को कुचल दिया था. इस घटना और उसके बाद हुई हिंसा में कुल मिलाकर आठ लोग मारे गए थे, जिनमें दो भाजपा कार्यकर्ता, एक पत्रकार और काफिले में सवार एक ड्राइवर शामिल है.

दूसरा कारण है, आंदोलन शुरू होने के बाद से लेकर अब तक एक साल के भीतर कथित तौर पर 700 से अधिक किसानों की मौत.

पटियाला पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का निर्वाचन क्षेत्र और गढ़ है, जिन्होंने घोषणा की है कि वह सीट से 2022 का चुनाव लड़ेंगे.

अमरिंदर अपनी पार्टी के प्रमुख के तौर पर चुनावी रेस में शामिल हो रहे हैं, जिसे उन्होंने कथित तौर पर काफी बेआबरू होकर कांग्रेस से बाहर होने के बाद इसी महीने शुरू किया था. कैप्टन ने पूर्व में कहा था कि वह भाजपा के साथ गठबंधन के लिए तैयार हैं बशर्ते वह किसान आंदोलन का मुद्दा हल कर ले.

ग्रामीणों का कहना है कि अगर कैप्टन और भाजपा गठबंधन के तहत चुनाव लड़ते हैं, तो इससे दोनों में से किसी को भी फायदा नहीं होगा.

शंकरपुर गांव के निवासी भूपिंदर सिंह ने कहा, ‘पंजाबी आसानी से नहीं भूलते. आंदोलन के दौरान कई लोग मारे गए हैं. लखीमपुर खीरी कांड ने हमें बुरी तरह आहत किया है और काफी असर डाला है. हम इसे लेकर काफी नाराज हैं. केवल कानूनों को निरस्त करने से यह नाराजगी खत्म नहीं होने वाली है.’

खुद को संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के तहत आंदोलन का नेतृत्व करने वाले संगठनों में से एक भारतीय किसान संघ (उग्राहन) के पटियाला जिला अध्यक्ष बताते वाले भूपिंदर ने कहा, ‘इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि भाजपा कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ हाथ मिला ले. हमें कैप्टन पर भी भरोसा नहीं है. अगर हम विरोध में नहीं उतरते तो उन्होंने भी कानूनों का समर्थन किया होता.’

दिप्रिंट ने जिन किसानों से बात की, उनका कहना था कि वे संयुक्त किसान मोर्चा समर्थित उम्मीदवारों को ही वोट देंगे.

संगरूर जिले के उब्बावल गांव के सरपंच सुखदेव सिंह ने कहा, ‘हम या तो अपनी यूनियनों के उम्मीदवार को वोट देंगे या फिर उनके निर्देशों को मानेंगे. अभी मैंने किसी के बारे में कोई राय नहीं बनाई है.’

Sukhdev Singh (in green turban), sarpanch of Ubbawal village in Sangrur district, with other local farmers | Urjita Bhardwaj | ThePrint
संगरूर जिले के उब्बावल गांव के सरपंच सुखदेव सिंह (हरी पगड़ी में) अन्य स्थानीय किसानों के साथ | उर्जिता भारद्वाज | दिप्रिंट

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किसानों ने महंगाई, ध्रुवीकरण, बेरोजगारी का मुद्दा उठाया

सुखदेव सिंह ने बढ़ती कीमतों के मुद्दे पर जोर दिया और कहा कि किसान को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.

उन्होंने कहा, ‘डीजल बहुत महंगा है और पेट्रोल भी. दोनों 100 रुपये प्रति लीटर के ऊपर चल रहे हैं. उपभोक्ताओं को प्याज 110 रुपये किलो बेची जा सकती है, लेकिन हमें केवल 20-30 रुपये प्रति किलो ही मिलते हैं. हम मुश्किलें झेल रहे हैं, कम दर मिलती है और अधिक लागत पर खेती कर रहे हैं.’

उन्होंने सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी देने की मांग की, साथ ही कहा कि यह पराली—धान की कटाई के बाद खेतों में बचे अवशेष—को जलाने से निपटने के अभियानों के अलावा पंजाब में घटते भूजल स्तर के मद्देनजर यह जरूरी है.

इन दोनों चुनौतियों को देखते हुए फसलों के विविधीकरण—सिर्फ धान-गेंहू की खेती से हटकर—को संभावित समाधानों में से एक माना गया है.

सुखदेव ने कहा, ‘सरसों, सूरजमुखी, मेवे जैसी सभी फसलों पर हमें एमएसपी दें…हमें केवल गेहूं और चावल पर एमएसपी मिलता है. सभी फसलों पर एमएसपी की गारंटी दें, फिर हम धान नहीं उगाएंगे तो पराली के कारण वायु प्रदूषण नहीं होगा. हमें पानी बाहर निकालने में दिक्कत होती है.’

आंदोलन के दौरान ‘अपमानजनक संबोधनों’ को लेकर भी खासी नाराजगी है—जिसमें ‘खालिस्तानी एजेंडे’ का आरोप लगना और इस आंदोलन को ‘आतंकवाद के कारण जेल में बंद लोगों की तस्वीरें दिखाने वाले आंदोलनजीवियों’ की तरफ से हाईजैक किए जाने को लेकर नाराजगी भी शामिल है.

इसके अलावा जिन मुद्दों को उठाया गया है उनमें बेरोजगारी और युवाओं को मादक द्रव्यों के सेवन से रोकने में सरकार की नाकामी शामिल है.

दाऊ कलां की हरजीत कौन ने कहा, ‘आखिरकार केंद्र में भाजपा और राज्य में कांग्रेस दोनों ही सरकारें रोजगार के अवसर बढ़ाने में नाकाम रही हैं. वे ड्रग्स की समस्या का समाधान करने में भी विफल रहे हैं. हमारे बच्चे पढ़े-लिखे हैं लेकिन बेरोजगार हैं.’


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मजदूरों की मिलीजुली राय

प्रधानमंत्री मोदी ने 19 नवंबर को अपने भाषण में कहा कि कृषि कानून खासकर छोटे किसानों के लाभ के लिए लाए गए थे. बरनाला में दिप्रिंट ने छोटे किसानों और मजदूरों से मुलाकात की, जिन्होंने कहा कि विरोध-प्रदर्शनों के अलावा सरकार के स्तर पर भी उनके हितों की पूरी तरह से अनदेखी की गई है.

प्रदर्शन में हिस्सा लेने वाले एक स्थानीय मजदूर और पंजाब प्रदेश पल्लेदार मजदूर यूनियन के अध्यक्ष काला सिंह ने कहा कि ‘कृषि कानूनों की वापसी से हमें जरा भी मदद नहीं मिली है.’

काला सिंह ने कहा, ‘उन्होंने आंदोलन में हमारे मुद्दों के बारे में बिल्कुल भी बात नहीं की. हमें उचित वेतन मिलना चाहिए. लेकिन हमारी सारी समस्याएं पीछे छूट गईं.’

बरनाला के एक छोटे किसान और मजदूर 35 वर्षीय लब्बू सिंह ने कहा, ‘कुछ जमींदारों के पास 15 केल (एकड़), किसी के पास 10 और किसी के पास 100 केल जमीन होती है. हमारे पास बहुत ज्यादा एक केला होता है. हमारा अपना खेत होने के बावजूद हमें जिंदा रहने के लिए बड़े खेतों में मजदूरों के तौर पर काम करना पड़ता है. हमें रद्द किए जा रहे कानूनों से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है. कोई भी पार्टी हमारे फायदे की बात नहीं करती.’

उन्होंने कहा कि लखबीर सिंह की मौत—जिसे निहंग सिखों ने कथित बेअदबी के लिए पीटकर मार डाला था—से यही पता चलता है कि ‘किसान-मजदूर एकता’ वास्तव में सिर्फ एक ‘नारा’ है और कुछ नहीं.

हालांकि, बरनाला के राजिंदरपुरा कोठे में मजदूर मलकीत कौर की राय कुछ अलग ही है, जिनका कहना है कि ‘जमींदारों की जीत मजदूरों की जीत है.’

उन्होंने बताया कि विरोध प्रदर्शनों के कारण मजदूरों को काम मिलने में दिक्कतों का सामना करना पड़ा और वे भुखमरी के कगार पर पहुंच गए.

उन्होंने कहा, ‘अगर किसान काम नहीं करेंगे तो हमारा भुगतान कैसे करेंगे? हमें खुशी है कि सरकार ने कानूनों को निरस्त कर दिया है…यह एक अच्छी बात है कि आंदोलन खत्म हो रहा है.’

राजिंदरपुरा कोठे में जिन सभी मजदूरों और किसानों से दिप्रिंट ने बातचीत की, उन्होंने मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के समर्थन की बात कही. हालांकि, उन्होंने कहा कि वे कांग्रेस के पांच साल के शासन से निराश हैं. लेकिन चूंकि चन्नी दलित हैं, इसलिए उनकी छोटे किसानों और मजदूरों के समुदाय के प्रति सहानुभूति होगी.

पटियाला स्थित पंजाबी यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में यह निष्कर्ष सामने आया है कि आंदोलन के दौरान मारे गए अधिकांश किसानों के पास 3 एकड़ से कम जमीन थी.

शंकरपुर गांव निवासी 50 वर्षीय बलवीर सिंह भी इनमें शामिल थे, जिनकी 18 मई 2021 को दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई थी और उनके पीछे पत्नी और दो बेटे रह गए हैं.

कानूनों को रद्द किए जाने से उनकी 80 वर्षीय मां सोना पर कोई असर नहीं पड़ा है.

Sona, 80, is the mother of Balvir Singh, 50, of Shankerpur village. He died of a heart attack in May 2021 | Urjita Bhardwaj | ThePrint
80 वर्षीय सोना शंकरपुर गांव के 50 वर्षीय बलवीर सिंह की मां हैं. मई 2021 में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया | उर्जिता भारद्वाज | दिप्रिंट

उन्होंने एक कमरे के घर की दीवार पर टंगी उनकी तस्वीर को देखा. और बत्ती बुझाकर कमरे में अंधेरा करते हुए पूछा, ‘क्या कानूनों को खत्म करने से मेरा बेटा वापस आ जाएगा?’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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