नई दिल्ली: सभी राजनीतिक दल उत्साहपूर्वक नारी शक्ति को बढ़ावा दे रहे हैं, लेकिन जब 2024 के लोकसभा चुनावों में महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारने की बात आती है, तो दिप्रिंट के विश्लेषण के मुताबिक ऐसा लगता है कि भाजपा से लेकर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तक सभी ने ठंडे रुख अपना लिए हैं.
जबकि भाजपा ने हर छह उम्मीदवारों में से सिर्फ एक महिला को मैदान में उतारा है वहीं कांग्रेस ने सात में से सिर्फ एक महिला कैंडीडेट को टिकट दिया है. इससे यह पता चलता है कि पिछले साल सितंबर में महिला आरक्षण बिल पारित होने के बावजूद, राजनीतिक दलों ने अभी तक लोकसभा में महिला प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देने की दिशा में सक्रिय रूप से काम नहीं किया है.
आधिकारिक तौर पर संविधान के 106वें संशोधन अधिनियम जिसे मोदी सरकार द्वारा नारी शक्ति वंदन अधिनियम कहा गया, उसके तहत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया जाता है, और इसका श्रेय लेने के लिए लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों संघर्ष कर रहे हैं. जबकि नए कानून का कार्यान्वयन अगली जनगणना और निर्वाचन क्षेत्र के परिसीमन पर निर्भर करता है, इसको लेकर की गईं बड़ी-बड़ी बातें अभी तक कार्रवाई में तब्दील नहीं हो पाई हैं.
कांग्रेस द्वारा अब तक घोषित 317 उम्मीदवारों में से केवल 13.8 प्रतिशत महिलाएं हैं. सत्तारूढ़ भाजपा ने थोड़ा बेहतर प्रदर्शन किया है, उसके 434 उम्मीदवारों में से 16.1 प्रतिशत महिलाएं हैं. दोनों पार्टियों ने अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग संख्या में महिलाओं को उतारा है, लेकिन बिहार में किसी ने भी एक भी महिला उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा है.
बीजेपी और कांग्रेस का प्रदर्शन कैसा रहा?
पिछले हफ्ते केरल में एक रैली में, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने बताया कि कैसे महिला आरक्षण विधेयक “राजनीतिक कारणों से” 30 वर्षों तक लटका रहा, और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इसे ठंडे बस्ते से बाहर लाया गया. उन्होंने कहा, ”यह हमारी सरकार की फैसले लेने की मानसिकता को दर्शाता है.”
बीजेपी के 434 उम्मीदवारों में से 70 महिलाओं को टिकट दिया गया है. जो कि पिछले दो लोकसभा चुनाव में पार्टी द्वारा महिलाओं को दिए गए टिकटों की तुलना में एक सुधार है. 2019 में, भाजपा ने 55 महिलाओं (12.6 प्रतिशत) को मैदान में उतारा था, जबकि 2014 में यह संख्या 38 (8.87 प्रतिशत) थी. हालांकि, यह अभी भी 33 प्रतिशत लक्ष्य के करीब नहीं है.
कुछ राज्यों में महिला उम्मीदवारों की संख्या काफी है. जिन राज्यों में पार्टी ने कम से कम 10 उम्मीदवार उतारे हैं, उनमें छत्तीसगढ़ 27.2 प्रतिशत महिला उम्मीदवार (11 में से 3) के साथ सबसे आगे है, इसके बाद केरल 25 प्रतिशत (16 में से 4), झारखंड 23 प्रतिशत (13 में से 3) और महाराष्ट्र में 23 प्रतिशत (26 में से 6) है.
राजस्थान और मध्य प्रदेश में, जहां पीएम मोदी ने पिछले सितंबर में महिला आरक्षण कानून के बारे में जोरदार भाषण दिया था, भाजपा ने क्रमशः 20 प्रतिशत (25 में से 5) और 20.6 प्रतिशत (29 में से 6) महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है.
कर्नाटक में, जहां वह 25 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, भाजपा ने केवल 2 महिला उम्मीदवारों (8 प्रतिशत) को मैदान में उतारा है. और उत्तर प्रदेश में, जहां से पार्टी को ढेर सारी सीटें मिलती है, वहां पार्टी की 74 में से केवल 6 उम्मीदवार (8.1 प्रतिशत) महिलाएं हैं.
और कांग्रेस की बात करें तो, जिसकी सबसे लंबे समय तक एक महिला, सोनिया गांधी, अध्यक्ष रहीं, उसकी स्थिति और भी दयनीय है. हालांकि, संख्या में महिला उम्मीदवार इस बार कम हैं लेकिन प्रतिशत के हिसाब से उनकी संख्या काफी ज्यादा है. जबकि इसने 2014 में 60 महिलाओं (12.9 प्रतिशत) और 2019 में 54 (12.8 प्रतिशत) को मैदान में उतारा था, इस बार इसने केवल 42 महिला उम्मीदवारों (13.9 प्रतिशत) को मैदान में उतारा है.
छत्तीसगढ़ में पार्टी ने 3 महिलाओं (25 प्रतिशत) और महाराष्ट्र में 5 महिलाओं (31.25 प्रतिशत) को मैदान में उतारा है. हालांकि, मध्य प्रदेश में केवल एक महिला उम्मीदवार को मैदान में उतारा गया है. वहीं आंध्र प्रदेश की बात करें तो वहां कुल 23 सीटों में से वाईएस शर्मिला के अलावा जो कि प्रदेश अध्यक्ष हैं, मात्र एक अन्य महिला लावण्या कावुरी को टिकट दिया गया है.
पिछले साल, राहुल गांधी ने केरल में कहा था कि कांग्रेस की बुनियादी धारणा है कि “महिलाओं को पावर स्ट्रक्चर का हिस्सा होना चाहिए”, लेकिन पार्टी ने राज्य में 16 उम्मीदवारों (6.25 प्रतिशत) में से केवल 1 महिला राम्या हरिदास को अलाथुर से मैदान में उतारा है.
अन्य दल भी पिछड़ रहे हैं
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कांग्रेस और आप ने सात सीटों में से एक भी महिला को मैदान में नहीं उतारा है. दरअसल, AAP ने दिल्ली, गुजरात, पंजाब, हरियाणा और असम में अपने 22 उम्मीदवारों में किसी भी महिला को नोमिनेट नहीं किया है.
क्या महिलाओं के नेतृत्व में महिला उम्मीदवारों को टिकट मिलने की संभावना बढ़ जाती है? तो आंकड़ों से मिली-जुली तस्वीर उभर कर सामने आती है. मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी के पास उत्तर प्रदेश में घोषित 57 में से केवल चार महिला उम्मीदवार हैं, जो कुल कैंडीडेट्स का मात्र 7 प्रतिशत हैं. इसके विपरीत, देश की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस ने अपने 42 उम्मीदवारों में से 12 महिलाओं को मैदान में उतारा है, जो कि कुल उम्मीदवारों का 28.5 प्रतिशत हैं.
बढ़ते मतदाता, धीमा प्रतिनिधित्व
संविधान सभा में महिला प्रतिनिधियों द्वारा लिंग-आधारित आरक्षण के खिलाफ बहस करने के पचहत्तर साल बाद भी आधी आबादी अभी भी अपने उचित हिस्से का इंतजार कर रही है. संविधान सभा में रेणुका रे ने महिलाओं के लिए आरक्षण के खिलाफ तर्क दिया था. उन्होंने कहा था, “हमें लगता है कि भविष्य में महिलाओं को स्वतंत्र भारत में आगे आने और काम करने के अधिक मौके मिलेंगे, अगर केवल क्षमता पर ही ध्यान दिया जाए.”
लोकनीति-सीएसडीएस की राज्य समन्वयक प्रोफेसर अनुपमा सक्सेना ने पहले दिप्रिंट को बताया, “आज स्थिति ऐसी है कि “सभी राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए साम, दाम, दंड, भेद अपनाते हैं. हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारा समाज पितृसत्तात्मक है. राजनेता के रूप में महिलाएं बहुत स्वीकार्य नहीं हैं. वास्तव में, प्रशासन, व्यवसाय, फिल्म – सभी क्षेत्रों में महिलाओं की एक लीडर के रूप में कम स्वीकार्यता है. राजनीति में भी यही स्थिति है.”
इसी तरह, राजनीतिक विश्लेषक बद्री नारायण ने भी दिप्रिंट को बताया था कि कई लोग पुरुषों को इसलिए अधिक टिकट देते हैं क्योंकि उनका मानना है कि महिलाओं में आवश्यक “क्षमता” और “ताकत” की कमी है और वे “जीतने योग्य उम्मीदवार” नहीं हैं.
एक शोध पत्र में, ओआरएफ के एसोसिएट फेलो अंबर कुमार घोष ने भारत की संसदीय राजनीति में महिलाओं के लिए जगह बनाने में क्रमिक प्रगति पर प्रकाश डाला.
उन्होंने लिखा, “महिलाओं के लिए अन्य शैक्षिक अवसर, उनकी वित्तीय स्थिरता, सामाजिक पूर्वाग्रहों की सापेक्षिक कमी, अधिक मीडिया जागरूकता ने राजनीतिक दलों को महिलाओं की भागीदारी के लिए जगह बनाने के लिए मजबूर किया है. महिला मतदाताओं की संख्या बढ़ने के साथ, राजनीतिक दलों ने हाल के वर्षों में उनके चुनावी समर्थन की मांग करते हुए महिला समर्थक कल्याण नीतियां तैयार की हैं.”
भारत के चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, मतदाता लिंग अनुपात 2019 में 928 महिलाओं से 1,000 पुरुषों से बढ़कर 2024 में 948 हो गया है. 12 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में, मतदाता लिंग अनुपात 1,000 से अधिक है, जो दर्शाता है कि मतदाताओं में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है. 2019 के लोकसभा चुनाव में महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों से थोड़ा अधिक रहा. पिछले कुछ वर्षों में, पुरुष और महिला मतदान के बीच का अंतर कम हो गया है, अब महिलाएं मतदान प्रतिशत में पुरुषों से आगे निकल गई हैं.
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