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Saturday, 21 December, 2024
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मराठा आरक्षण को लागू करने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल क्यों नहीं करना चाहती मोदी सरकार

5 मई को सुप्रीम कोर्ट ने कोटा तय करने की क्षमता को महाराष्ट्र से लेकर केंद्र के हाथ में दे दिया. लेकिन इस फैसले ने मोदी सरकार के सामने एक अजीब स्थिति पैदा कर दी है.

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नई दिल्ली: महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार से खफा हैं, चूंकि मराठों को आरक्षण देने के लिए उसने अपने अधिकार का इस्तेमाल नहीं किया है. 5 मई को सुप्रीम कोर्ट ने इस शक्तिशाली समुदाय को आरक्षण देने के राज्य सरकार के अधिकार को खारिज कर दिया.

शीर्ष अदालत ने फैसला दिया है कि मराठा जैसे किसी भी समुदाय को आरक्षण के दायरे में लाना या उससे निकालने की शक्ति, राष्ट्रपति (यानी केंद्र) के पास है. कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति, सूबे के राज्यपाल से सलाह करके ऐसे सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (एसईबीसी) को चिन्हित कर सकते हैं.

इसलिए महाराष्ट्र की दलील थी कि केंद्र आरक्षण के लिए एसईबीसीज़ की अधिसूचना जारी कर सकता है. उसने कहा कि 102वें संशोधन के तहत केंद्र के पास ऐसा करने का अधिकार है जिसकी सुप्रीम कोर्ट ने भी पुष्टि की है.

लेकिन उसकी बजाय केंद्र ने सिर्फ एक याचिका दायर करके शीर्ष अदालत से अपने बहुमत के फैसले पर फिर से विचार करने का अनुरोध किया है, चूंकि सरकार का कहना है कि इससे राज्य का अधिकार उससे छिन गया है.

ठाकरे ने बार-बार पीएम मोदी और राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को पत्र लिखकर मराठा आरक्षण मामले में हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया है.

नवंबर 2018 में तत्कालीन बीजेपी-शिवसेना सरकार ने विधानसभा तथा विधान परिषद में एक अधिनियम पारित करके मराठों को आरक्षण दिया था. अधिनियम को जायज़ ठहराते हुए बॉम्बे उच्च न्यायालय ने शिक्षा में 12 प्रतिशत और नौकरियों में 13 प्रतिशत आरक्षण कोटा को अनिवार्य कर दिया था.

लेकिन इस कदम से कुल आरक्षण क्रमश: 64 प्रतिशत और 65 प्रतिशत पहुंच गया- जो मंडल आयोग द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक था और मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया.

पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने मई के शुरू में फैसला दिया कि महाराष्ट्र में ऐसी कोई ‘असाधारण परिस्थितियां’ या ‘असामान्य स्थिति’ नहीं थी जिसके लिए महाराष्ट्र को मराठों के लिए 50 प्रतिशत की सीमा से आगे बढ़ने की ज़रूरत थी.

बेंच ने इस मामले में गेंद को पूरी तरह केंद्र के पाले में डाल दिया.


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अपने अधिकार के इस्तेमाल में क्यों झिझक रही है केंद्र सरकार?

फैसले ने केंद्र के लिए एक अजीब स्थिति पैदा कर दी है. अगर वो 102वें संशोधन के तहत अपने अधिकार का इस्तेमाल करता है, तो उसे दूसरे राज्यों से भी इसी तरह की मांगों का सामना करना पड़ेगा.

अगर वो ऐसा नहीं करता, तो उसे मराठों से एक राजनीतिक चुनौती का सामना करना होगा, जो महाराष्ट्र की कुल आबादी का 32 प्रतिशत हैं. दूसरे बहुत से राज्यों के आंदोलनकारी समुदाय भी केंद्र के सामने खड़े हो जाएंगे.

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि कोविड महामारी, लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था और किसानों के आंदोलन को देखते हुए केंद्र हर राज्य और केंद्र-शासित क्षेत्र में आरक्षण को अधिसूचित करके एक और विवाद खड़ा करने का जोखिम नहीं ले सकता.

मसलन, बीजेपी-शासित गुजरात में पटेल समुदाय- जो सूबे में एक प्रबल जाति है- पाटिदार आंदोलन के बाद आरक्षण चाहता था. राज्य सरकार ने 2016 में एक अध्यादेश जारी करके उन्हें 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया लेकिन बाद में गुजरात हाई कोर्ट ने उसे खeरिज कर दिया. 2017 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को पटेलों के वोट नहीं मिले.

हरियाणा में जाटों के साथ भी यही हुआ. फरवरी 2016 में हिंसक प्रदर्शनों के बाद राज्य सरकार ने एक कानून पास करके जाटों तथा पांच अन्य जातियों को नौकरियों और शिक्षा में 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया. लेकिन पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट ने इस कानून पर अस्थाई रूप से विराम लगा दिया.

अब अगर केंद्र मराठों की मांग स्वीकार कर लेता है, तो आरक्षण के लिए हर कोई उसके दरवाज़े पर आ खड़ा होगा.

अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के अध्यक्ष यशपाल मलिक ने कहा, ‘हम जल्द ही जाटों, पटेलों और मराठों की एक बैठक बुलाएंगे और कोर्ट से अनुरोध करेंगे कि उन दूसरे राज्यों में भी आरक्षण को रद्द किया जाए, जो 50 प्रतिशत की सीमा को तोड़ते हैं’.

एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने कहा कि बिहार के मतदाता 2015 में हुए विधानसभा चुनाव से पहले सदन में की गई एक टिप्पणी से बहुत रोष में थे कि ‘आरक्षण समर्थकों और विरोधियों के बीच बहस होनी चाहिए’. लालू प्रसाद यादव ने इस बयान को हथियार बनाकर यादवों तथा अन्य पिछड़े वर्गों (एबीसी) को प्रभावित करने की कोशिश की.

उन्होंने कहा, ‘इस सब को देखते हुए केंद्र को आरक्षण के मुद्दे पर फूंक-फूंक कर कदम उठाना चाहिए’.


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महाराष्ट्र में अस्थायी राजनीतिक लाभ?

हर राज्य की सियासत अलग होती है, इसलिए भाजपा जो महाराष्ट्र में विपक्ष में है, अब ठाकरे सरकार पर बाज़ी पलटने की कोशिश कर रही है. वो राज्य सरकार को इस बात के लिए कटघरे में खड़ा करना चाहती है कि उसने मराठा आरक्षण के पक्ष में मज़बूत तर्क अदालत में नहीं रखे.

भाजपा नेता किरीट सोमैया ने दिप्रिंट से कहा, ‘उद्धव सरकार ने 2018 अधिनियम की पूरी रिपोर्ट शीर्ष अदालत के समक्ष नहीं रखी. इसके नतीजे में कोर्ट ने मुद्दे का गलत मतलब निकाल लिया. राज्य अपना पक्ष मज़बूती के साथ क्यों नहीं रख सकता? केंद्र ने तर्क दिया है कि धारा 102, पिछड़ी जातियों को आरक्षण सूची में शामिल करने के राज्य के अधिकार पर कोई रोक नहीं लगाती’.

एक अन्य नेता ने आगे कहा, ‘उद्धव ने मराठा समुदाय के हितों को जोखिम में डाल दिया है, जो उनके गठबंधन सहयोगी एनसीपी की रीढ़ है. हम इस पर अपना आंदोलन शुरू करेंगे’.

मराठा लोग सूबे की आबादी का 32 प्रतिशत हैं और राजनीतिक रूप से एक शक्तिशाली वर्ग हैं. कृषि, चीनी उद्योग और शिक्षा के क्षेत्र में इनका बहुत असर है. अभी तक के कुल 18 मुख्यमंत्रियों में से 12 मराठा समुदाय से थे. 182 विधायकों के मौजूदा सदन में 60 प्रतिशत मराठा हैं.

नेता ने कहा कि भाजपा खेमे को उम्मीद है कि वो मराठवाड़ा क्षेत्र में अमीरों व गरीबों के बीच की गहरी खाई का फायदा उठा पाएगी. आरक्षण मुद्दे की पेचीदगियां, मराठों के खिलाफ ओबीसीज़ का ध्रुवीकरण करके पार्टी को फायदा पहुंचा सकती हैं.


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केंद्र के पास अब क्या विकल्प हैं?

राजनीति में पड़ने की बजाय केंद्र चाहेगा कि अन्य राज्यों के लिए कोर्ट ही कोई समाधान निकाले. बहुत सी पीआईएल लंबित पड़ी हुई हैं, जिनमें 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण को रद्द करने की मांग की गई है. कई राज्य चाहते हैं कि केंद्र सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध करे कि इन पीआईएल्स के लिए कोर्ट एक बड़ी बेंच गठित कर दे.

कई सूबों ने 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देने के लिए कानून पास कर दिए थे. तमिलनाडु (69 प्रतिशत) और आंध्र प्रदेश (66 प्रतिशत) के अलावा अदालतों ने सभी अन्य आरक्षण खारिज किए हैं.

राज्यों का अनिवार्य कोटा से ऊपर आरक्षण देना अब केंद्र की पुनर्विचार याचिका के परिणाम पर निर्भर करता है.

भाजपा से राज्य सभा सांसद सुशील मोदी ने कहा है कि शीर्ष अदालत के फैसले ने एक दिलचस्प ‘संवैधानिक तथा संघीय संकट खड़ा कर दिया है. राज्य के अधिकार वापस ले लिए गए हैं’.

उन्होंने कहा, ‘बहुमत के फैसले में इस बात को नहीं समझा गया कि धारा 15 में राज्यों को एसईबीसी नागरिकों को चिन्हित करने का अधिकार दिया गया है और इस अधिकार को 102वें संशोधन में चुनौती नहीं दी गई है. अगर सुप्रीम कोर्ट पुनर्विचार याचिका से सहमत नहीं होता, तो संकट को सुलझाने के लिए केंद्र को तेज़ी के साथ संविधान में एक संशोधन लाना होगा’.

एक केंद्रीय मंत्री ने दिप्रिंट से कहा, ‘ये सब इस पर निर्भर करेगा कि सुप्रीम कोर्ट में चीज़ें कैसे आगे बढ़ती हैं. हमने कोर्ट से विसंगतियों को सही करने का अनुरोध किया है. दूसरे विकल्प का सवाल तभी उठेगा, जब पहला विकल्प खत्म हो जाएगा. लेकिन संविधान का कोई संशोधन किसी पिछड़े समुदाय को आरक्षण देने के लिए चुनने के राज्य के अधिकार पर बंदिश नहीं लगाता’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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