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Sunday, 3 November, 2024
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नरेंद्र तोमर : एमपी के ‘वीरू’ और शिवराज के दोस्त को मोदी-शाह ने किसानों को प्रदर्शन से निपटने का जिम्मा सौंपा

कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के साथ मोदी सरकार की वार्ता का चेहरा बनकर उभरे हैं.

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नई दिल्ली : 1 दिसंबर को विज्ञान भवन में इंतजार कर रहे पत्रकार उस समय आश्चर्यचकित रह गए जब कृषि कानूनों को लेकर मोदी सरकार और प्रदर्शनकारी किसानों के बीच तीसरे दौर की बातचीत से ठीक पहले केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर सरकार को केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल और उनके डिप्टी सोम प्रकाश के साथ, सरकार का प्रतिनिधि बना दिया गया.

ऐसी अटकलें लगाई जा रही थीं कि सरकार की ओर से वार्ता का नेतृत्व रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह संभालेंगे, जिन्होंने इन विरोध प्रदर्शनों के दौरान आक्रोश थामने में भूमिका भी निभाई थी, और बदली स्थिति में ऐसी चर्चाओं ने जोर पकड़ लिया कि उनकी अनुपस्थिति का मतलब है कि सरकार बातचीत की प्रक्रिया को गंभीरता से नहीं ले रही है.

हालांकि, भाजपा सूत्रों ने कहा कि तोमर को बातचीत के लिए भेजना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की तरफ से कई फैक्टर को ध्यान में रखकर लिया गया एक रणनीतिक फैसला है.

उन्होंने कहा कि प्राथमिक कारण तो यह सोच थी कि सरकार के वरिष्ठ नेताओं को इस स्तर पर वार्ता में शामिल नहीं होना चाहिए. माना गया कि यदि मौजूदा वार्ता विफल हो जाती है और किसान सरकार में उच्च स्तर तक यह मसला उठाने की कोशिश करते हैं तो फिर उन्हें शामिल किया जाएगा. जैसा जानकारी में आया है, इसका एक और पहलू यह था कि मोदी और शाह चाहते थे कि वार्ता का नेतृत्व कृषि मंत्री करें.

सूत्रों ने आगे कहा कि फिर एक तथ्य यह भी था कि अगर एक लो-प्रोफाइल वाले नेता तोमर को ड्राइविंग सीट पर बैठाया जाता है तो गतिरोध खत्म होने की स्थिति में पूरा श्रेय मोदी और शाह को मिल सकता है.

एक भाजपा नेता ने कहा, ‘वह (तोमर) अपना एक राजनीतिक कद रखते हैं. लेकिन राजनीतिक लिहाज से देखें तो अगर राजनाथ सिंह (एक पूर्व कृषि मंत्री) ने बातचीत की और गतिरोध तोड़ने में सफल रहे तो सारा श्रेय उनके खाते में जाएगा. जबकि तोमर के मामले में ऐसा होने पर पूरा श्रेय तोमर को मिलने के बजाये शाह और प्रधानमंत्री को जाएगा.’

पिछले कुछ हफ्तों में शाह ने किसानों के विरोध प्रदर्शनों से उपजे संकट को हल करने के उद्देश्य से राजनाथ, तोमर, गोयल और भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के साथ कई बैठकें की हैं.

यह दूसरा मौका है जब मोदी सरकार किसानों का आक्रोश और उनका भरोसा खो देने वाली स्थिति का सामना कर रही है. पहली बार 2015 में भूमि अध्यादेश, जिसमें कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण आसान बनाने की राह खोली गई थी, के खिलाफ किसानों का गुस्सा फूटा था. उस समय दिवंगत भाजपा नेता अरुण जेटली पार्टी के लिए संकटमोचक बनकर उभरे थे. हालांकि, उनकी तरफ से कानून का बचाव किए जाने के बावजूद सरकार को अध्यादेश से पीछे हटना पड़ा था.

सूत्रों ने बताया कि इस बार चाणक्य तो खुद शाह हैं, लेकिन उनका चेहरा तोमर हैं.

यद्यपि तोमर किसान पृष्ठभूमि वाले एक अनुभवी नेता हैं, वह आमतौर पर लो प्रोफाइल रहना पसंद करते हैं और सत्ता को लेकर उन्हें बहुत महत्वाकांक्षी नहीं माना जाता है.

भाजपा के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार, उनका महत्वाकांक्षी न होना और चुपचाप अपना काम करते रहना पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की नजर में उनके सबसे अच्छे गुणों में शुमार है.

यह ऐसा पहलू भी है जिसके बारे में कहा जाता है कि तोमर की मध्य प्रदेश से नई दिल्ली तक की पूरी राजनीतिक यात्रा को आधार देने वाला साबित हुआ और उन्हें हाई-प्रोफाइल कृषि मंत्रालय तक पहुंचाने में मददगार रहा, जो कि राजनाथ सिंह और शरद पवार जैसे प्रमुख नेताओं के करियर में एक महत्वपूर्ण मुकाम रहा था.


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‘मध्यप्रदेश के जय-वीरू’

नरेंद्र सिंह तोमर का जन्म 12 जून 1957 को मध्य प्रदेश में हुआ था.

1998 में मध्य प्रदेश में भाजपा के संगठनात्मक प्रभारी की भूमिका निभाने वाले मोदी के साथ उनके सामंजस्यपूर्ण रिश्ते दो दशक से भी ज्यादा पुराने हैं.

उस समय मोदी भाजपा के पूर्ववर्ती संगठन जनसंघ के कद्दावर नेता कृष्ण शेजवलकर के ग्वालियर स्थित घर पर रुके थे, और तत्कालीन विधायक तोमर अक्सर उनसे मिलते रहते थे.

उनके इतने घनिष्ठ संबंधों के बावजूद कहा जाता है कि पहली बार मोदी सरकार में इस्पात और खान मंत्री के रूप में तोमर को शामिल करने की सिफारिश दरअसल राजनाथ सिंह ने की थी, जो 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत के समय पार्टी अध्यक्ष थे.

मध्य प्रदेश में उन्होंने उमा भारती के अलावा शिवराज सिंह की चौहान की सरकार में भी ग्रामीण विकास और सूचना मंत्री के तौर पर काम किया.

पार्टी में उनकी अहमियत को अक्सर ही मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री चौहान के साथ उनके करीबी रिश्तों से जोड़ा जाता है. अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक उनकी दोस्ती ऐसी है, जिसे शोले फिल्म में निभाई गई अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र की यादगार भूमिका के संदर्भ में मध्य प्रदेश के ‘जय-वीरू’ की संज्ञा दी जाती है.

उनकी दोस्ती तभी से है जब 1990 के दशक में चौहान युवा मोर्चा के प्रमुख और तोमर उपप्रमुख हुआ करते थे. चौहान ने मुख्यमंत्री के तौर पर अपने पहले कार्यकाल के दौरान 2006 में तोमर को राज्य भाजपा अध्यक्ष नियुक्त किए जाने की सिफारिश की और तोमर ने अंततः दो कार्यकाल के लिए इस पद की जिम्मेदारी संभाली.

भाजपा के एक नेता ने कहा, ‘दोनों के बीच केमिस्ट्री ऐसी है कि तोमर ने भाजपा की एक व्यक्ति एक पद की नीति को ध्यान रखते हुए जब राज्य भाजपा प्रमुख के रूप में कार्यभार संभालने के लिए 19 नवंबर 2007 को मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था तो उन्हें दोनों पदों पर बने रहने के लिए राजी करने की कोशिश करते हुए चौहान ने फरवरी तक उनका त्यागपत्र राज्यपाल के पास नहीं भेजा था.

2013 के विधानसभा चुनावों से पहले मध्यप्रदेश भाजपा प्रमुख के रूप में अपना दूसरा कार्यकाल संभालने से पहले तोमर ने ऐलान कर दिया था कि वह चुनाव नहीं लड़ेंगे.

राज्य भाजपा के एक नेता ने कहा कि यह निर्णय ‘चौहान को खुश करने के लिए था, उन्हें यह संदेश देने के लिए कि वह चुनाव के बाद उनके लिए चुनौती नहीं बनेंगे.’

माना जाता है कि 2000 की एक घटना ने उनकी दोस्ती को और मजबूत कर दिया, जब चौहान ने प्रदेश भाजपा प्रमुख पद के तत्कालीन दावेदार बिक्रम वर्मा, जो वाजपेयी कैबिनेट में एक मंत्री भी थे, को चुनौती दी थी. भाजपा के एक पूर्व अध्यक्ष ने बताया, ‘अध्यक्ष पद के लिए शिवराज के नामांकन को भाजपा केंद्रीय नेतृत्व ने बगावत माना. भाजपा में चुनाव सर्वसम्मति से होते हैं। हालांकि, तोमर ने चौहान का पूरा साथ दिया और बाद में उन्होंने (चौहान ने) उन्हें इसका राजनीतिक फायदा भी पहुंचाया.’

भाजपा के एक अन्य नेता ने कहा कि केंद्रीय राजनीति में तोमर को आगे बढ़ाने में भी चौहान की बड़ी भूमिका रही है क्योंकि ‘हर मुख्यमंत्री चाहता है कि दिल्ली भाजपा या सरकार में उसका कोई करीबी व्यक्ति हो जो राज्य में उसका समर्थन करता रहे और केंद्रीय हाई कमान की रणनीति पर नजर रखने में भी मददगार साबित हो.’

उक्त नेता ने कहा, ‘तोमर को केंद्रीय राजनीति में लाना शिवराजजी की रणनीति थी. तोमर जी की सबसे बड़ी खूबी यह है कि (कैलाश) विजयवर्गीय के विपरीत वह ज्यादा महत्वाकांक्षी नहीं हैं. यह खूबी शिवराज सिंह के मुफीद है.’

नेता ने कहा कि तोमर को राज्य भाजपा अध्यक्ष के रूप में पहले कार्यकाल के दौरान तत्कालीन भाजपा प्रमुख नितिन गडकरी ने केंद्रीय टीम का हिस्सा बनाया था. उन्होंने कहा, ‘तब शिवराजजी ने अपने एक और पसंदीदा नेता प्रभात झा को अध्यक्ष बनाया लेकिन फिर विधानसभा चुनाव से पहले केंद्रीय भाजपा नेतृत्व को तोमर को प्रदेश अध्यक्ष के रूप में वापस भेजने के लिए राजी कर लिया.’


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एक जननेता नहीं

तोमर को अपने शुरुआती दिनों में मध्यप्रदेश के सियासी दिग्गज कुशभाऊ ठाकरे से राजनीति के गुर सीखने का मौका मिला जो 1998 से 2000 तक राष्ट्रीय भाजपा अध्यक्ष भी रहे थे. वह राज्य में मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभालने वाले पहले भाजपा नेता कैलाश जोशी और सुंदर लाल पटवा, जो मुख्यमंत्री रहने के अलावा बाद में वाजपेयी कैबिनेट में कृषि और खान मामलों के मंत्री भी बने, की पसंद बनकर भी उभरे.

तोमर को एक ऐसा नेता माना जाता है जो हर स्तर की राजनीति का हिस्सा रहे हैं.

उनकी राजनीतिक यात्रा 1980 के शुरुआत में एक वार्ड सदस्य के तौर पर शुरू हुई थी और 1983 में पार्षद बने. 1993 में उन्हें विधानसभा चुनाव का टिकट मिला लेकिन हार का सामना करना पड़ा. 1998 में उन्हें पहली बार विधायक चुना गया और 2008 तक सदन के सदस्य रहे.

एक निकट सहयोगी ने बताया, ‘वह संभवत: एकमात्र ऐसे नेता हैं जो कॉलेज अध्यक्ष से लेकर युवा मोर्चा तक और वार्ड सदस्य से लेकर विधानसभा सदस्य, सांसद और केंद्रीय मंत्री तक सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं के सदस्य रहे हैं. मूल रूप से वह संगठनात्मक व्यक्ति है जो संगठन चलाना जानते हैं.’

अगर कोई एक बात उनके खिलाफ जाती है तो सिर्फ यह कि चौहान की तरह उन्हें एक बड़े जन नेता के रूप में नहीं जाना जाता है.

पिछले महीने मध्य प्रदेश विधानसभा उपचुनावों में भाजपा ने तोमर के गृह जिले मुरैना में तीन सीटें गवां दी थीं. 2009 में उन्होंने अपना पहला लोकसभा चुनाव मुरैना से ही लड़ा और जीता था लेकिन फिर 2014 में ग्वालियर चले गए, जहां उन्होंने 24,000 वोटों के अंतर से जीत हासिल की. वर्तमान में वह मुरैना लोकसभा सीट का ही प्रतिनिधित्व करते हैं.

बहरहाल, अपने संगठनात्मक कौशल के बलबूते उन्होंने शाह का भरोसा हासिल किया है.

यह दर्शाने के लिए शाह को तोमर पर कितना ज्यादा भरोसा है, भाजपा सूत्रों ने बताया कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस से बगावत करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके विश्वस्त विधायकों को भाजपा में शामिल करने की प्रक्रिया में धर्मेंद्र प्रधान और नरोत्तम मिश्रा के साथ उन्हें ही शामिल किया गया था—यहां तक कि चौहान को शामिल किए जाने से भी पहले.

सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस सरकार गिरने के बाद शाह तो उन्हें मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे. एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक प्रधानमंत्री मोदी ने हालांकि इस मामले में खुद दखल दिया क्योंकि उन्हें पता था कि केवल चौहान ही उपचुनावों में जीत सुनिश्चित कर सकते हैं.

भाजपा के एक महासचिव ने कहा, ‘उनकी (तोमर की) सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह डाउन-टू-अर्थ नेता हैं, संगठन के काम में अच्छे हैं, वह हर एक की सुनते हैं, अपने विचार कभी नहीं थोपते…वह मूल रूप से आम सहमति बनाने में अहम भूमिका निभाने में सक्षम है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘उनका कोई विरोधी नहीं है, हमेशा सभी के साथ अच्छे संबंध बनाए रखते हैं, यहां तक कि कांग्रेस के लोग भी उनका सम्मान करते हैं. 1983 में पार्षद चुनावों के दौरान एक कांग्रेस नेता ने तो चुनाव में इस्तेमाल के लिए अपना घर ही तोमर को दे दिया था. उन्हें जो भी काम सौंपा जाता है, वह एकदम शांति से कर लेते हैं. किसी ने भी उन्हें कभी गुस्से में नहीं देखा. वह एक अच्छे और भरोसेमंद इंसान हैं. सार्वजनिक जीवन में ये दुर्लभ गुण हैं.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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