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Wednesday, 20 November, 2024
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प्रवासी, जो लॉकडाउन में गुरुग्राम से 1400 किमी दूर बिहार गए, कहते हैं उनका वोट मोदी के लिए है

बिहार के बेगूसराय के हुसैना गांव के प्रवासी मानते हैं, कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें घर लौटने में मुश्किलें पेश आईं, लेकिन फिर भी वो पीएम को वोट देंगे.

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बेगूसराय: मई में राष्ट्रीय लॉकडाउन के चरम पर, कौशल कुमार और रंजीत कुमार उन 14 लोगों में थे, इनमें उनका परिवार भी शामिल था, जिन्होंने हरियाणा के गुरुग्राम से बिहार के बेगूसराय सराय ज़िले के अपने पैतृक गांव का लंबा सफर तय किया.

इन 14 लोगों ने बहादुरी के साथ, चिलचिलाती धूप और भूख की आग में, दो रिक्शा गाड़ियों पर 1,400 किलोमीटर का लंबा सफर तय किया. उसके बाद के 5 महीनों में, रोज़गार न होने और सरकारी सहायत न मिलने से, दोनों लोग वापस दिल्ली आ गए हैं.

उधर, उनके परिवार अपनी तमाम मुश्किलात के बावजूद इस बात को लेकर स्पष्ट हैं कि उनका वोट किसे जाएगा- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को.

कौशल कुमार की पत्नी पूनम देवी ने कहा, ‘मोदी ने हमें गैस, टॉयलट्स, और दूसरे फायदे भेजे हैं, लेकिन अफसर लोग वो पैसा खा गए हैं’. उन्होंने आगे कहा, ‘हम ग़रीबों को वो नहीं मिला है. प्रधानमंत्री ने बहुत काम किया है, इसलिए हम उन्हीं को वोट देंगे’.

लेकिन इस समर्थन से फायदा उठाने वाले हैं, जद(यू) के शशि कांत कुमार. एनडीए के सीटों के बटवारे में साहिबपुर कमाल विधानसभा क्षेत्र, जिसके अंतर्गत हुसैना आता है, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जद(यू) के हिस्से में आया है.

हालांकि ये तस्वीर का सिर्फ एक रुख़ है. हुसैना गांव के जिन प्रवासी मज़दूरों से दिप्रिंट ने बात की, वो नीतीश से तो नाराज़ हैं लेकिन अपनी मुसीबतों का ज़िम्मेदार प्रधानमंत्री को नहीं ठहराते.


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‘5 महीने तक कोई सरकारी सहायता नहीं’

यहां पर प्रवासी मज़दूरों की नीतीश के प्रति नाराज़गी ज़्यादातर इसलिए है कि उनके मुताबिक़ पिछले पांच महीनों में, उन्हें कोई सरकारी सहायता नहीं मिली है.

मुख्यमंत्री ने जून में दावा किया था कि राज्य सरकार वापस आने वाले हर प्रवासी मज़दूर के लिए, एक हज़ार रुपए किराया अदा किया था.

उसके बाद 20 जून को प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार के खगरिया ज़िले से, 50,000 करोड़ रुपए का ग़रीब कल्याण रोज़गार अभियान शुरू किया. इस अभियान के तहत बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश राजस्थान, झारखंड और ओडिशा में, प्रवासी श्रमिकों को 125 दिनों का रोज़गार दिया जाना था.

हुसैना गांव के प्रवासियों का कहना है कि उन्हें इनमें से कोई लाभ नहीं मिला.

पूनम देवी ने कहा, ‘कुछ नहीं मिला. ये 5 महीने गांव में भूखों मरने की नौबत आ गई थी. सरकार ने कुछ नहीं दिया, न पैसा न रोज़गार. इसलिए मेरे पति के पास कोई रास्ता नहीं था, सिवाय वापस दिल्ली लौटने के, जहां वो चीज़ों की ढुलाई करके रोज़ी कमाते हैं’.

उन्होंने आगे कहा परिवार क़र्ज़े में आ गए हैं, क्योंकि लॉकडाउन के दौरान उन्हें घर वापसी पर ख़र्चा करना पड़ा.

देवी ने कहा, ‘अपनी रिक्शा गाड़ियों पर यहां आने के लिए, हमने एक रिश्तेदार से 14,000 रुपए उधार लिए थे’. देवी ने आगे कहा, ‘यहां आने के दौरान वो कई बार ख़राब हुईं, टायर भी पंक्चर हुए. रास्ते में लोगों ने हमें खाना दिया, लेकिन जब हम यहां पहुंचे तो हमारा कोविड टेस्ट पॉज़िटिव आ गया. हमें बेगूसराय के एक स्कूल में क्वारेंटाइन किया गया, जहां खाने के अंदर कीड़े थे. हमारे पास कोई राशन कार्ड या आधार कार्ड नहीं है. ग़रीब लोगों की कोई परवाह नहीं करता’.

उनकी देवरानी बेबी देवी यही विचार व्यक्त करती हैं. उन्होंने कहा, ‘हमें स्वच्छ भारत अभियान के तहत, शौचालय बनाने के लिए पैसे भी नहीं मिले. उन्होंने आगे कहा, ‘पिछले पांच महीने बहुत मुसीबत भरे रहे हैं’.

सुचित शाह, जो हुसैना में एक वॉर्ड सदस्य हैं, पैसा न दिए जाने के लिए सरकार के अधिकारियों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं.

शाह ने कहा, ‘लॉकडाउन के दौरान क़रीब 56 लोग अपने गांव लौटकर आए’. उन्होंने आगे कहा, ‘उन्हें वो पैसा नहीं मिला जिसका मुख्यमंत्री ने ऐलान किया था, चूंकि अफसर लोग बिना रिश्वत लिए फाइलें आगे नहीं बढ़ाते. हमने फाइलें जमा कर दी हैं, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ है’.

गांव में वोट डालने के लिए बहुत कम प्रवासी बचे हैं

लॉकडाउन के दौरान क़रीब 30 लाख वर्कर्स बिहार लौट गए थे, लेकिन अब काम की तलाश में उनमें से अधिकांश फिर से दिल्ली, बेंगलुरू और सूरत पहुंच गए हैं.

हर गांव में, कुछ ही प्रवासी बचे हैं. वो सब छठ पूजा के बाद शहरों को लौटने की योजना बना रहे हैं. प्रसिद्ध सूर्य त्यौहार छठ, इस साल 20 नवंबर को पड़ रहा है.

गांव दर गांव जहां भी दिप्रिंट ने दौरा किया, वहां से प्रवासी शहरों को लौट गए थे, और अपना परिवार पीछे छोड़ गए थे. इसका मुख्य कारण था रोज़गार की कमी.

मई और जून के महीनों में ही बिहार ने मनरेगा के तहत पहली तिमाही के लिए आवंटित 2,886 करोड़ रुपए में से 91 प्रतिशत खर्च कर लिए थे. ग़रीब कल्याण योजना भी अक्टूबर में ख़त्म हो गई, इसलिए ज़्यादातर गांवों से प्रवासी लोग लौट गए.

बलिया गांव में एक चाय की दुकान चलाने वाले वाले मनीष कुमार ने कहा, ‘अधिकतर मज़दूर शहरों को चले गए हैं, वो लोग वोट और चुनाव के इंतज़ार में नहीं बैठे हैं. और उनमें से कुछ छठ के बाद चले जाएंगे.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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