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Saturday, 20 April, 2024
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दलित हितों के लिए बनी पार्टी को 1% से भी कम वोट, महाराष्ट्र में आखिर क्यों कठिन बनी हुई है RPI(A) की राह

रामदास अठावले, जो अभी केंद्रीय मंत्री हैं, की तरफ से 1999 में गठित आरपीआई (ए) आज महाराष्ट्र में एक राजनीतिक दल की तुलना में एक सामाजिक कल्याण संगठन के तौर पर अधिक अहमियत रखती है.

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मुंबई: मुंबई में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (ए) के एक पदाधिकारी अमित ताम्बे के दिन की शुरुआत सुबह 7 बजे से होती है, जब वह मुंबई नागरिक निकाय के कर्मचारियों—स्वीपर, माली आदि—के पास पहुंचकर यह जानने की कोशिश करते हैं कि उन्हें कहीं कोई दिक्कत तो नहीं आ रही है. फिर दिन का दूसरा आधा हिस्सा वह बांद्रा ईस्ट स्थित पार्टी के कार्यालय में बिताते हैं.

आरपीआई (ए) के प्रमुख रामदास अठावले से प्रेरित होकर ताम्बे ने 2011 में पार्टी में शामिल होने के लिए अपना कॉर्पोरेट करियर छोड़ दिया था. गौरतलब है कि इस पार्टी की स्थापना दलित समुदाय को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने के उद्देश्य से की गई थी. लेकिन ताम्बे की दिनचर्या आम तौर पर सियासी रणनीति बनाने की तुलना में आस-पड़ोस की शिकायतें सुनने में अधिक बीतती है.

मूलत: आरपीआई का स्थापना 1956 में डॉ. बी.आर. अम्बेडकर के विजन के आधार पर हुई थी और उसकी जड़ें अनुसूचित जाति संगठन से जुड़ी हैं. आज, आरपीआई (ए) करीब 40 गुटों में बंट चुकी आरपीआई में सबसे बड़ा गुट है. लेकिन एक फीसदी से भी कम वोट शेयर के साथ ये किसी पार्टी की तुलना में एक अन्य सामाजिक कल्याण संगठन के तौर पर ही अधिक सक्रिय नजर आती है.

आरपीआई (ए) की राजनीतिक छवि को इस महीने के शुरू में तब एक और झटका लगा जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली बालासाहेबंची शिवसेना ने आरपीआई से अलग हुए गुटों में से एक जोगेंद्र कवाडे की पीपुल्स रिपब्लिकन पार्टी से हाथ मिला लिया, जिससे अठावले स्पष्ट तौर पर आहत हैं.

आखिरकार, आरपीआई (ए) भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की एक सहयोगी पार्टी है और महाराष्ट्र सरकार में एक गठबंधन सहयोगी होने के नाते अठावले को लगता है कि शिंदे को उनसे सलाह लेनी चाहिए थी.

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आरपीआई (ए) का एक अच्छा-खासा जनाधार रहा है और अठावले केंद्रीय मंत्री भी हैं लेकिन पार्टी का वोट शेयर पिछले कुछ वर्षों में लगातार कम  होता जा रहा है. चुनाव आयोग की वेबसाइट के मुताबिक, एक क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा रखने वाली आरपीआई (ए) ने 2009 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में 0.85 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया था, लेकिन 2014 के विधानसभा में यह घटकर 0.19 प्रतिशत रह गया. 2019 में चुनाव लड़ने वाले आरपीआई (ए) के गिने-चुने सदस्यों ने भाजपा के चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ा.

मूल आरपीआई से छिटके अन्य छोटे समूह तो शायद और भी बुरा प्रदर्शन कर रहे हैं. रिपब्लिकन पक्ष (खोरिपा), रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (खोबरागड़े), रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (रिफॉर्मिस्ट) और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (सोशल) जैसी पार्टियों का वोट शेयर तो शून्य रहा है.


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आखिर कहां रह गई कमी

सालों से जारी गुटबाजी, एक उप-जाति के दूसरे पर भारी पड़ने की कोशिश, और शीर्ष पर नेताओं के बीच खींचतान के कारण ही आरपीआई (ए) एक मजबूत राजनीतिक उपस्थिति कायम करने में विफल रही है.

मुंबई के एसआईईएस कॉलेज में पॉलिटिक्स के असिस्टेंट प्रोफेसर अजिंक्य गायकवाड़ कहते हैं, ‘आरपीआई (ए) के आंतरिक मसलों की वजह से ही किसी को उसकी सही तस्वीर पता नहीं लग पाती है. गुटबाजी, पार्टी नेताओं के बीच खींचता, जाति-उपजाति को लेकर टकराव आदि मुद्दे कई सालों से पार्टी को प्रभावित करते आ रहे हैं.’

उन्होंने कहा कि आरपीआई हमेशा कांग्रेस के साये में रही है. उन्होंने कहा, ‘जबसे यह अंबेडकर की विचारधारा पर बनी है, तबसे ही इसमें भ्रम की स्थिति रही है कि इसके असली सहयोगी कौन हैं—उसे कांग्रेस के करीब रहना चाहिए या वामपंथियों, या फिर पार्टी को स्वतंत्र रहना चाहिए. और ये भ्रम आज भी कायम है.’

गायकवाड़ ने कहा, ‘इतिहास शानदार था. लेकिन जब पार्टी ने आकार लिया, तो समस्याएं थीं क्योंकि इसे एक साथ रखने के लिए कोई अंबेडकर नहीं था. और गुटबाजी इसमें घर कर गई. नेतृत्व के लिहाज से दूसरी पंक्ति कमजोर होने से भी पार्टी एक बड़ा मुकाम हासिल नहीं कर पाई.’

दलित कार्यकर्ता अशोक तांगड़े ने भी कहा कि आरपीआई (ए) अपना जनाधार बढ़ाने के लिए बहुत कुछ नहीं कर पाई है.

तांगड़े ने कहा, ‘अठावले काफी सक्षम हैं… लेकिन वह बड़े पैमाने पर समाज को लाभ नहीं पहुंचा पाए हैं.’

यद्यपि पार्टी नेताओं का मानना है कि उन्हें चुनावी स्तर पर अधिक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता है, उन्हें लगता है कि जमीनी स्तर पर उनकी अखिल भारतीय उपस्थिति ही उन्हें अंततः किसी मुकाम पर पहुंचाने में कारगर होगी.

आरपीआई (ए) के वरिष्ठ नेता अविनाश महातेकर ने कहा, ‘सालों से बड़ी पार्टियां प्रतिनिधित्व हासिल करने में हमारी मदद करती रही हैं और पूरे महाराष्ट्र में हमारे नगरसेवक हैं. लेकिन हमें अभी तक सांसदों के रूप में एक बड़ा प्रतिनिधित्व नहीं मिला है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि हमारे उम्मीदवारों के नाम सूची में नीचे आते हैं. मतदाता आमतौर पर इतने नीचे देखते ही नहीं हैं. हमारे मामले में तो ऐसा भी नहीं होता कि इसकी वजह से चुनाव चिह्न लोगों के बीच पहचान बना पाए.’

इसके अलावा पार्टी में एक ही जाति का वर्चस्व रहा है. गायकवाड़ ने कहा, ‘अंबेडकर से संबंधित महार समुदाय वर्षों से पार्टी पर हावी है. ऐसे में अन्य जातियों को बहुत ज्यादा तरजीह नहीं मिल पाती है. जो एक त्रासदी ही है.’

सहयोग की जरूरत है

एक्टिविस्ट तांगड़े के मुताबिक, आरपीआई (ए) ने सत्तासीन पार्टियों के साथ गठजोड़ करके कुछ हद तक अच्छा काम किया है, लेकिन ऐसा करने के बदले पूरा लाभ नहीं उठा पाई है.

उन्होंने कहा, ‘वे सामाजिक कल्याण में पूरी तरह विफल नहीं हुए, लेकिन इसे बहुत बेहतर ढंग से अंजाम नहीं दे पाए हैं. बड़े राजनीतिक दलों ने आरपीआई (ए) की तुलना में गठबंधन से अधिक लाभ कमाया है.’

पार्टी नेता महातेकर स्वीकार करते हैं कि उन्हें हमेशा सहयोग की जरूरत रही है. उन्होंने कहा, ‘चुनावी प्रतिनिधित्व के लिए, हमें अन्य दलों से सहयोग की जरूरत पड़ती है और हम सालों से इसे हासिल भी करते आ रहे हैं.’

उन्होंने यह भी कहा कि अधिक से अधिक समुदाय आरपीआई (ए) में शामिल हो रहे हैं. उन्होंने बताया, ‘मतंग, रामोशी और अन्य दलित वर्गों के लोग हमारे साथ जुड़ रहे हैं.’

जहां तक भाजपा की बात है तो आम तौर पर ब्राह्मण-बनिया छवि वाली इस पार्टी ने 2011 में आरपीआई (ए) के साथ गठजोड़ किया. यद्यपि इस गठबंधन के कारण भाजपा को वोटों के मामले में तो कोई खास लाभ नहीं हुआ लेकिन इसकी वजह से दलितों का साथ मिलने के सियासी संकेत काफी तगड़े रहे. संभवत: यही वजह है कि अठावले को नरेंद्र मोदी के दोनों ही कार्यकाल में मंत्रिमंडल में जगह मिली.

वहीं, भाजपा प्रवक्ता माधव भंडारी ने स्वीकारा कि वर्षों से पार्टी ने कई आरपीआई संगठनों के साथ गठबंधन किया है. उन्होंने कहा, ‘हम केवल सियासी लाभ के लिए नहीं बल्कि एक बड़े सामाजिक कारण से आरपीआई (ए) के साथ हैं. उन्हें भी प्रतिनिधित्व के मामले में हमसे फायदा हुआ है. हमारे साथ सत्ता में रहकर उन्हें राजनीतिक लाभ मिलता है. हम इसे अधिक समुदायों के हमारे साथ शामिल होने के रूप में भी देखते हैं.’


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रामदास अठावले और प्रकाश अंबेडकर

केंद्रीय मंत्री अठावले राजनीतिक विमर्श से अधिक अपनी काव्यात्मक टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं, और उनके रंगीन कपड़े और वन-लाइनर्स उनके राजनीतिक संदेश की तुलना में अधिक सुर्खियां बटोरते हैं. तांबे ने कहा कि मीडिया में अठावले को जिस तरह पेश किया जा रहा है, उससे जूनियर कार्यकर्ता निराश हैं.

ताम्बे ने कहा, ‘उनके अधिकांश बयानों की गलत तरीके से व्याख्या की जाती है. इसलिए मैं कार्यकर्ताओं के बीच भ्रम को दूर करने की कोशिश करता हूं. मैंने अठावले सर से उनके फैशन के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, ‘मुझे जो पसंद है मैं वही पहनता हूं. जब मेरे पास कुछ नहीं था तब ये सभी लोग (उनके आलोचक) कहां थे?’’

प्रोफेसर गायकवाड़ कहते हैं कि आरपीआई गुटों में आरपीआई (ए) के कार्यकर्ता ही सबसे अधिक सक्रिय हैं. गायकवाड़ ने कहा, ‘वह भले ही कोई गंभीर कार्य न करते हों, लेकिन एक अच्छे वार्ताकार नजर आते हैं क्योंकि बड़ी पार्टियों ने उनके साथ गठबंधन किया है. इसलिए उनके मजाकिया व्यवहार के बावजूद यह एक सहजीवी संबंध है.’

विश्लेषकों का यह भी कहना है कि अठावले जिस तरह एक शख्सियत के तौर पर उभरे हैं, वह भी एक समस्या है क्योंकि पार्टी नेतृत्व की दूसरी पंक्ति तैयार करने में विफल रही है.

इस बीच, बी.आर. अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर की लोकप्रियता बढ़ती दिख रही है. वह भरिपा बहुजन महासंघ के प्रमुख है, जो आरपीआई का ही एक अन्य गुट है जिसे 2018 में वंचित बहुजन अगाड़ी (वीबीए) के रूप में पुनर्गठित किया गया था.

तांगड़े ने कहा, ‘अठावले की कीमत पर ही अंबेडकर की लोकप्रियता बढ़ रही है. वीबीए के पास आरपीआई (ए) की तुलना में समुदाय का अधिक प्रतिनिधित्व हो सकता है, बशर्ते जब वह (अंबेडकर) अपना संगठनात्मक कौशल साबित करें.’

हालांकि, महातेकर ने कहा कि अंबेडकर ने कोई खतरा पैदा नहीं किया. उन्होंने कहा, ‘मैं उनकी राजनीति पर टिप्पणी नहीं करना चाहता लेकिन हम उनकी बढ़ती लोकप्रियता को लेकर चिंतित नहीं हैं. वह चुनाव के दौरान अलग तरह से बोलते और काम करते हैं.’

इस महीने, शिवसेना के दोनों धड़ों ने महाराष्ट्र में निकाय चुनावों के लिए दलित दलों के साथ गठबंधन किया. जबकि उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना (यूबीटी) ने प्रकाश अंबेडकर के साथ गठबंधन किया है, एकनाथ शिंदे की शिवसेना (बालासाहेबांची शिवसेना) ने जोगेंद्र कवाडे की पीपुल्स रिपब्लिकन पार्टी के साथ गठबंधन किया है. आरपीआई (ए) इसमें कहीं नजर नहीं आ रही.

अठावले ने इस पर नाराजगी भी जताई है कि कावड़े से हाथ मिलाने से पहले न तो शिंदे और न ही भाजपा ने उनसे कोई सलाह-मशविरा किया.

उन्होंने कहा, ‘हमें और गुटों के शामिल होने से कोई समस्या नहीं है लेकिन कम से कम अठावले से सलाह ली जानी चाहिए थी और इस तरह की संभावनाओं पर हमारे साथ चर्चा की जानी चाहिए थी. हम यह मुद्दा अंततः मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के साथ उठाएंगे.’

आरपीआई (ए) का इतिहास

अठावले एक छात्र के तौर पर अंबेडकरवादी आंदोलन का हिस्सा थे. बाद में वे कवि और सामाजिक कार्यकर्ता नामदेव ढसाल की तरफ से स्थापित एक संगठन दलित पैंथर्स के सदस्य बन गए, जो जातिगत भेदभाव को खत्म करने की दिशा में काम कर रहा था.

संगठन बाद में छोटे समूहों में विभाजित हो गया और अठावले उन नेताओं में से एक थे जिन्होंने एक बौद्ध स्कॉलर और दलित पैंथर के अपने साथी अरुण कांबले के साथ जुड़कर आंदोलन को जीवित रखा.

अंबेडकर के बाद 1970 के दशक के अंत में अठावले मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बदलने के लिए हुए एक आंदोलन के दौरान प्रमुखता से उभरे. शिवसेना की तरफ से इस आंदोलन कड़ा विरोध किए जाने के बीच इसे लेकर महाराष्ट्र की सड़कों पर दलितों और मराठाओं के बीच हिंसक झड़पें हुईं. आखिरकार, 1994 में एक समझौते के तौर पर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर बाबासाहेब अंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय कर दिया गया.

और कुछ ही सालों के अंदर अठावले एक्टिविस्ट से राजनेता बन गए. 1990 में, वह कांग्रेस के सहयोग से शरद पवार के नेतृत्व में बनी राज्य सरकार की कैबिनेट का हिस्सा बने.

आखिरकार, आरपीआई कई गुटों में विभाजित हो गई. 1999 में अठावले ने आरपीआई (ए) का गठन किया और कांग्रेस-एनसीपी के साथ गठबंधन किया. 2011 में उन्होंने कांग्रेस-एनसीपी से नाता तोड़ लिया और भाजपा से हाथ मिला लिया.

भाजपा के साथ गठबंधन पर आरपीआई (ए) के महातेकर ने कहा, ‘भाजपा की राजनीति जनकल्याण से जुड़ी है और इसलिए हम उनके साथ हैं. अगर अन्य रिपब्लिकन पार्टियां भाजपा से हाथ मिलाना चाहती हैं तो हम उनका स्वागत करेंगे.’

(संपादनः ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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