रामपुर, उत्तर प्रदेश: एक समय था जब उत्तर प्रदेश का रामपुर जिला ‘रामपुरी चाकुओं’ की वजह से जाना जाता था. झटके से खुलने वाली ग्रेविटी चाकू बॉलीवुड के खलनायकों के लिए एक सिग्नेचर स्टाइल बन गई थे. सिल्वर स्क्रीन के न जाने कितने खलनायक फिल्मों में लोगों को इन्हीं चाकुओं के दम पर आतंकित करते नजर आए. कहा जाता है कि रामपुर के नवाब के लिए काम करने वाले स्थानीय तौर पर चाकू बनाने वाले लोग खरीददारों को लुभाने के लिए यह डिजाइन लेकर आए खास कर उस समय जब फायरआर्म्स का कारोबार काफी लोकप्रिय हो रहा था.
आज, रामपुरी चाकू और कभी नवाबों की शान रही यह सीट, दोनों अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं. रामपुर को आज चाकुओं या नवाब खानदान और यहां तक कि प्राचीन पांडुलिपियों के खजाने रामपुर रजा लाइब्रेरी के लिए नहीं, बल्कि सजायाफ्ता समाजवादी पार्टी (सपा) नेता मोहम्मद आजम खान के ‘गढ़’ के तौर पर जाना जाता है.
और अब यह पहचान भी टूटती नजर आ रही है. चुनाव आयोग (ईसी) के आंकड़ों के मुताबिक, इस माह के शुरू में रामपुर उपचुनाव में 1980 के बाद पहली बार अधिकांश मुस्लिम मतदाताओं ने खान के समर्थन से परहेज किया था—और उनके स्थान पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार को वोट ही नहीं दिया.
8 दिसंबर को, इस विधानसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उम्मीदवार आकाश सक्सेना ने सपा के असीम राजा को 34,136 मतों से हराया. यहां भाजपा की जीत तमाम लोगों के लिए हैरत में डालनी वाली है और सपा के लिए एक बड़ा झटका मानी जा रही है.
यूपी में 93 आपराधिक मामलों का सामना कर रहे आजम खान को अक्टूबर में 2019 के हेट स्पीच के एक मामले में दोषी ठहराया गया था. उनकी सजा के बाद विधायक के रूप में उनकी अयोग्यता के कारण उपचुनाव की जरूरत पड़ी.
सामाजिक और राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि रामपुर के साथ खान के दशकों पुराने जुड़ाव ने इस क्षेत्र का चरित्र ही एकदम बदलकर रख दिया. यहां उनका पूरा दबदबा रहा है. पर्यवेक्षकों का आरोप है कि कभी नवाबी संस्कृति और परंपरा का केंद्र रहा यह क्षेत्र पलायन और अपराध का गढ़ बन गया.
रामपुर के एक अनुभवी राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर मुमताज अर्शी के शब्दों में, ‘रामपुर को उत्तर प्रदेश का दूसरा कानपुर कहा जाता था क्योंकि यह व्यापारिक केंद्र रहा है. इसमें चीनी मिलें, टेक्सटाइल यूनिट, जरी वर्क और पतंग बनाने की यूनिट थीं. रामपुर की रजा लाइब्रेरी कई मायनों में अनूठी है. लेकिन कोई इन सब पर बात नहीं करता. लोग केवल आजम खान और उनके खिलाफ मामलों, सांप्रदायिक राजनीति और जनता को भड़काने के उनके तरीकों के बारे में ही जानते हैं.’
उन्होंने आगे कहा, ‘90 के दशक के दौरान आजम खान ने यहां श्रमिकों के विरोध-प्रदर्शन का नेतृत्व किया, जिसकी वजह से तमाम बड़े कारखाने बंद हो गए. समय के साथ यहां आजम खान का दबदबा और उनकी दबंगई बढ़ने लगी. लोग काम की तलाश में दूसरी जगहों पर जाने लगे.’
शहर के तमाम पक्के घर भले ही यहां गरीबी का पूरा हाल बयां न करते हों लेकिन जिला प्रशासन के अधिकारियों के मुताबिक, प्रति व्यक्ति आय के मामले में रामपुर देश में सबसे गरीब जिलों की श्रेणी में आता है—जो कि करीब 72,447.41 रुपये है.
हालांकि, रामपुर विधानसभा क्षेत्र को लेकर अलग से कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, जो कि इस जिले का ही एक हिस्सा है.
लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, मुसलमानों के बीच विभाजन, समाजवादी पार्टी में कथित दलबदल, और खान का घटता दबदबा, इस चुनाव में रामपुर में सपा की हार की प्रमुख वजहें रही हैं, जिससे भाजपा के आकाश सक्सेना की जीत का रास्ता साफ हुआ.
चुनाव आयोग के रिकॉर्ड के मुताबिक, यह पहली बार है जब इस मुस्लिम बहुल निर्वाचन क्षेत्र के विधानसभा चुनाव में किसी हिंदू उम्मीदवार ने जीत हासिल की है.
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मुस्लिम वोटबैंक में दिखा विभाजन
मतदाता सूची के आंकड़ों के मुताबिक, रामपुर के मतदाताओं में मुसलमानों की संख्या लगभग 60 प्रतिशत है.
1980 के बाद से आजम खान ने इस निर्वाचन क्षेत्र में नौ बार जीत हासिल की है. इस साल के शुरू में यूपी विधानसभा चुनाव में उन्होंने रामपुर निर्वाचन क्षेत्र में 60 प्रतिशत वोट शेयर के साथ जीत हासिल की थी. लेकिन जब सजा होने के कारण वह विधानसभा की सदस्यता के अयोग्य हो गए तो उनके करीबी सहयोगी आसिम राजा को सपा प्रत्याशी के तौर पर मैदान में उतारा गया.
हालांकि, रजा मुसलमानों के सैफी समुदाय से आते हैं और रामपुर में मतदाताओं के बीच इस समुदाय की हिस्सेदारी बहुत ही मामूली है.
चुनाव आयोग के साथ काम कर चुके एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने बताया कि जहां पठान करीब 80,000 वोटों के साथ सबसे बड़ा वोटबैंक है, वहीं तुर्क मतदाताओं की संख्या 30,000 के करीब है और सैफी वोटर करीब 3,000 ही हैं.
क्षेत्र के राजनीतिक पर्यवेक्षकों के मुताबिक, उपचुनावों में मतदाताओं के एक बड़े हिस्से के मतदान से दूर रहने का एक बड़ा कारण मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक विभाजन था, जिसने भाजपा को फायदा पहुंचाया. कुछ मुस्लिम मतदाताओं ने भी भाजपा को ‘मुख्यधारा की राजनीति के राइट साइड’ होने की वजह से वोट दिया.
उदाहरण के तौर पर, रामपुर के पीला तालाब क्षेत्र के सात बूथों पर मतदान प्रतिशत चार से भी कम बताया गया है. मुस्लिम बहुल मतदाताओं वाले बूथों पर उच्चतम मतदान प्रतिशत कथित तौर पर 39 प्रतिशत था, जबकि सबसे कम चार प्रतिशत रहा. हिंदू बहुल इलाकों के बूथों में सबसे ज्यादा मतदान प्रतिशत 74 फीसदी और सबसे कम 27 फीसदी रहा.
यद्यपि, क्षेत्रीय प्रत्याशी आसिम राजा और सपा नेतृत्व ने आरोप लगाया है कि उनके कार्यकर्ताओं और समर्थकों को कथित तौर पर पुलिस-प्रशासन ने वोट डालने से ‘जबरन रोका’ था. वहीं, क्षेत्र के मुसलमानों का कहना है कि चूंकि आजम खान सलाखों के पीछे हैं, इसलिए यहां मुसलमानों को खुद उनके या उनके समर्थन वाले किसी प्रत्याशी के लिए वोट देने के लिए डराने-धमकाने वाला कोई नहीं था.
रामपुर के व्यापारिक समुदाय, खासकर पठान और तुर्कों का कहना है कि वे खुद को खान के साये से बाहर लाना चाहते हैं.
निर्वाचन क्षेत्र के कुल 454 मतदान केंद्रों में से 251 में मुख्यत: मुस्लिम मतदाता हैं. निर्वाचन अधिकारियों के मुताबिक, मुस्लिम मतदाता बहुल कम से कम 50 बूथों पर भाजपा ने लीड हासिल की, जो कि इस निर्वाचन क्षेत्र में पहली बार हुआ है. दिप्रिंट ने बूथ-वार डेटा एक्सेस किया है.
आजम का घटता दबदबा
सामाजिक पर्यवेक्षकों का दावा है कि रामपुर में उद्योग और व्यवसाय के अभाव के कारण कुशल और अकुशल श्रमिक बेहतर जीवन की तलाश में दिल्ली, महाराष्ट्र, राजस्थान और तमिलनाडु जैसे राज्यों की तरफ पलायन कर रहे हैं.
रामपुर के राजनीतिक पर्यवेक्षक अर्शी ने कहा, ‘90 के दशक में आजम खान की तरफ से क्षेत्र में श्रमिक आंदोलन शुरू किए जाने के बाद चीनी मिलें और कपड़ा इकाइयां बंद हो गईं. उनका राजनीतिक ग्राफ तो (आंदोलन के कारण) बढ़ा लेकिन शहर ने अपनी चमक खो दी, क्योंकि आधा दर्जन छोटी चीनी मिलें और कपड़ा इकाइयां और दो बड़ी फैक्ट्रियां, जहां हजारों लोग काम करते थे, बंद हो गईं.’
उन्होंने आगे कहा, ‘प्रसिद्ध ‘रामपुरी चाकू’ उद्योग को नुकसान हो रहा है. रोजगार एक गंभीर संकट है, और शिक्षित युवा ऑटो रिक्शा चलाने को मजबूर हैं.’
दिप्रिंट ने 2020 में रामपुर सहित यूपी के कई गांवों में बेरोजगारी की स्थिति पर एक रिपोर्ट भी छापी थी.
अर्शी ने कहा, ‘रामपुर में संस्कृति और परंपरा का एक समृद्ध इतिहास रहा है. रामपुर रजा लाइब्रेरी तो 17,000 दुर्लभ पांडुलिपियों और 70,000 पुस्तकों से भरी पड़ी है. यह लाइब्रेरी अब केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय (प्रशासनिक नियंत्रण) के अधीन है. खान ने उसे भी कब्जे में लेने की कोशिश की थी. यही नहीं उन्होंने रामपुर के नवाब परिवार को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.’
विश्लेषक ने आगे कहा, रामपुर कभी सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक हुआ करता था, लेकिन खान ‘भड़काऊ राजनीति’ लेकर आए.
अर्शी ने कहा, ‘अब लोग देख सकते हैं कि उनका राजनीतिक करियर लगभग समाप्त हो चुका है और वह जालसाजी, भ्रष्टाचार और अन्य मामलों से कभी पाक-साफ नहीं निकल पाएंगे. इसलिए, मुसलमान उनका साथ देने को तैयार नहीं हैं.’
अर्शी ने कहा, माना जाता है, पिछले चार दशकों के दौरान रामपुर से कई बार विधायक और सांसद के तौर पर चुनाव जीतने और राज्य कैबिनेट में एक कद्दावर मंत्री रहने होने के बावजूद खान ने कभी इस मुस्लिम-बहुल सीट के उत्थान के बहुत कुछ नहीं किया. जबकि, उनकी निजी संपत्ति लगातार बढ़ रही है और वह रामपुर में मुहम्मद अली जौहर विश्वविद्यालय चलाने वाले ट्रस्ट के प्रमुख भी हैं.
नाम न छापने की शर्त पर उनकी ही पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि सपा नेता को वंशवादी भी माना जाता है, जो अपनी पत्नी और बेटे को राजनीति में लाए और उन्हें चुनाव में उम्मीदवार बनाया. लेकिन अपने ही कार्यकर्ताओं को आगे नहीं बढ़ाया.
सपा नेता कई मामलों में आरोपी हैं. उनके खिलाफ 450 साल पुराने मदरसा आलिया—जिसे अब ओरिएंटल कॉलेज के नाम से जाना जाता है—से कीमती पांडुलिपियों और दुर्लभ किताबों की चोरी का मामला भी दर्ज है. सितंबर में पुलिस के एक छापे के दौरान जौहर विश्वविद्यालय के परिसर के अंदर एक इमारत की लिफ्ट के नीचे से कुछ पांडुलिपियां और किताबें बरामद की गई थीं.
यूपी पुलिस के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया कि पुलिस ने मदरसे के प्रिंसिपल की तरफ से 2019 में दर्ज कराई गई एफआईआर और खान के दो सहयोगियों से मिली जानकारी के आधार पर कार्रवाई की थी, जिन्हें एक अलग मामले में गिरफ्तार किया गया था.
अधिकारी ने आगे कहा, ‘कुरान की दो प्रतियां फर्श पर पड़ी थीं, जिसे समुदाय में कतई अच्छी बात नहीं माना जाता है.’
माना जा रहा है कि खान के जेल में होने के कारण पार्टी कार्यकर्ताओं को उनके समर्थन में मतदान करने से डर लग रहा था, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि ‘संरक्षण’ कहां से मिलेगा.
रामपुर में जिला परिषद सदस्य एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘मुस्लिम समुदाय की तो बात छोड़िए, पार्टी कार्यकर्ता तक आजम खाम के साथ अपनी पहचान दिखाने का जोखिम नहीं उठाना चाहते. वे खुद सुरक्षित होना चाहते हैं. उन्होंने मतदान से दूर रहना बेहतर समझा लेकिन खान साहब के उम्मीदवार के लिए अपना वोट नहीं डाला.’
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दलबदल और विभाजन
इस चुनाव में ‘अब्दुल दरी नही बिछाएगा, विकास का हिस्सा बनेगा’ एक प्रमुख नारा था, जब आजम खान के करीबी कुछ वरिष्ठ नेताओं ने राजा की उम्मीदवारी घोषित होने के बाद सपा छोड़ दी थी.
खान के पूर्व प्रवक्ता फसाहत अली खान शानू ने नाम घोषित होने से एक दिन पहले ही पार्टी छोड़ दी थी और भाजपा में शामिल हो गए थे.
शानू ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा, ‘मैंने अपनी जिंदगी के 18 साल आजम खान को दिए हैं. मैंने वह सब किया जो उसने मुझसे कहा और जेल तक गया. मेरे खिलाफ (पार्टी कार्यकर्ता के तौर पर) 27 आपराधिक मामले दर्ज हैं. लेकिन लड़ाई में आजम खान ने कभी मेरा साथ नहीं दिया. मैं फिर भी पार्टी से जुड़ा रहा. लेकिन इस बार उन्होंने एक सैफी मुसलमान को उम्मीदवार बनाया, जिसका लोगों और इस समुदाय से कोई लेना-देना नहीं है.’
उन्होंने आरोप लगाया, ‘खान ने अपना साम्राज्य मुस्लिम समुदाय (के समर्थन) के आधार पर बनाया, सभी अवैध तरीकों का इस्तेमाल करके पैसा कमाया और मुसलमानों का कभी कुछ भला नहीं किया.’
शानू के मुताबिक, किसी के लिए भी ‘ऐसे ध्रुवीकरण वाले माहौल के बीच मुख्यधारा की राजनीति में राइट साइड’ होना जरूरी है.
उन्होंने आगे कहा, ‘आजम खान के साथ जाने से हम सबका, हमारे बच्चों का भविष्य बर्बाद हो जाएगा. इसलिए मैंने नारा चुना, अब्दुल विकास का हिस्सा बनेगा.’
इस उपचुनाव में सपा को उस बूथ पर भी हार का सामना करना पड़ा जहां आजम खान का नाम मतदाता सूची में है.
रामपुर के ग्रामीण इलाकों—जहां मतदान प्रतिशत सबसे अधिक रहा और बूथों में ज्यादातर पठान, तुर्क और यादव मतदाता थे—में भाजपा ही आगे रही.
निर्वाचन क्षेत्र के 454 बूथों में से 133 ग्रामीण बूथ थे. बूथ-वार रिजल्ट शीट के मुताबिक, पनवारिया, आगापुर, फतेहपुर, अफजलपुर, दरियापुर बूथों पर भाजपा ने लीड हासिल की, जहां पठान, तुर्क और यादव वोटों ने निर्णायक भूमिका निभाई.
इनमें कई निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा को कुछ सपा सदस्यों से भी मदद मिली, जिन्होंने या तो सपा के वोट भाजपा को ट्रांसफर कराने में सफलता हासिल की, या मुस्लिम मतदाताओं को किसी भी दल को वोट देने से रोक दिया.
तुर्क समुदाय के नेता और सपा सदस्य मशकूर अहमद मुन्ना ने पार्टी तो नहीं छोड़ी, लेकिन माना कि उन्होंने दलबदल कराया. गांवों में रह रहे यादवों और पठानों पर खासी पकड़ रखने वाले करण सिंह यादव और परवेज खान जैसे अन्य वरिष्ठ नेताओं ने भी कहा कि उन्होंने इस मामले में उनका साथ दिया. उन्होंने बताया कि सपा में होने के बावजूद यह समूह मुस्लिम वोटों को भाजपा के पक्ष में ट्रांसफर कराने में कामयाब रहा.
मुन्ना ने कहा, ‘खान साहब कभी वफादारी का इनाम नहीं देते. मैं तीन दशकों से अधिक समय से उनके साथ हूं. उन्हें तो वंशवादी राजनीति में भरोसा है. रामपुर ने आजम खान का खौफ देखा है. उन्होंने मुसलमानों के लिए कभी कुछ नहीं किया, उन्हें सिर्फ वोटबैंक के तौर पर इस्तेमाल किया. उन्होंने धरोहर में शुमार संस्थानों पर कब्जा जमा लिया और उन्हें अपने लिए पैसा बनाने वाली मशीनें बना दिया.’
परवेज खान ने कहा, ‘इस बार उन्होंने एक ऐसे उम्मीदवार को मैदान में उतारा, जो सैफी समुदाय से आता है और रामपुर में वोटों के मामले में उनकी हिस्सेदारी बहुत मामूली है. यही उपयुक्त समय था कि जब हम उन्हें सबक सिखाते.’
मुन्ना और खान दोनों ने कहा कि अगर आजम खान को सपा से नहीं हटाया गया तो वे पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव से मिलेंगे और अपना इस्तीफा सौंप देंगे.
जबर्दस्ती किए जाने का भी लगा आरोप
जिला प्रशासन के मुताबिक, इस उपचुनाव में रामपुर में लगभग 34 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया, जो पिछले कई सालों में इस क्षेत्र में दूसरा सबसे कम मतदान प्रतिशत है. हालांकि, जिला प्रशासन ने चुनाव आयोग को सौंपी रिपोर्ट में कहा है कि जून में लोकसभा उपचुनाव में रामपुर में करीब 31 फीसदी मतदान हुआ था और इस प्रकार मतदान का प्रतिशत बढ़ा है. इस रिपोर्ट की एक प्रति दिप्रिंट के पास मौजूद है.
मुरादाबाद (जिसमें रामपुर भी शामिल है) के डिवीजनल कमिश्नर आयुक्त आंजनेय कुमार सिंह ने कहा कि जिले में आमतौर पर लगभग 50 से 54 प्रतिशत के बीच मतदान दर्ज होता है, केवल एक बार चुनाव में यह आंकड़ा लगभग 60 प्रतिशत रहा था. हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि यह कब हुआ था.
आंजनेय कुमार सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘रामपुर में इस साल कम से कम तीन चुनाव हुए. इससे भी जनता में नाराजगी दिख रही है. मतदान के लिए लोग बाहर ही नहीं आना चाहते थे. इसके अलावा काफी लोग कामकाज के सिलसिले में प्रवास पर रहते हैं और उपचुनाव में वोट डालने के लिए नहीं आते हैं.’
वहीं सपा उम्मीद आसिम राजा ने आरोप लगाया है कि उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को वोट देने के लिए घरों से बाहर नहीं निकलने दिया गया. उन्होंने कहा, ‘हमारे सैकड़ों कार्यकर्ता घायल हैं. हमारे मतदाता बूथों तक न पहुंच पाएं इसलिए पुलिस ने सख्ती की. हमने एफआईआर दर्ज कराने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने एक नहीं मानी. हमने चुनाव आयोग को भी लिखा है.’
रामपुर में सपा के वफादार पार्टी कार्यकर्ताओं और सदस्यों ने राजा के आरोपों से सहमति जताई.
सपा के एक अन्य वरिष्ठ नेता आरिफुल हक ने दावा किया कि उन्होंने वोट डालने की कोशिश की थी लेकिन उन्हें और उनके परिवार के सदस्यों को पुलिस ने जबरन लौटा दिया. उन्होंने कहा, ‘मेरे परिवार के 12 सदस्यों में से किसी को बूथ तक नहीं जाने दिया गया, जो घर से सिर्फ 400 मीटर की दूरी पर है.’
रामपुर में सपा कार्यालय में बैठे पार्टी कार्यकर्ताओं के एक समूह ने बिना स्याही वाली अपनी अंगुलियों को दिखाते हुए कहा कि उन्होंने मतदान नहीं किया है. हक ने आरोप लगाया, ‘इस तरह करने से बेहतर है कि सरकार को मुसलमानों के मतदान का अधिकार छीन लेना चाहिए.’
राजा ने बताया कि उन्हें डराने के लिए पार्टी सहयोगियों के खिलाफ मामले भी दर्ज किए गए थे.
हालांकि, पुलिस प्रशासन ने आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है.
रामपुर के पुलिस सुपरिटेंडेंट अशोक शुक्ला ने कहा, ‘वे अपनी हार को सही ठहराने के लिए आरोप लगा रहे हैं. वहां चुनाव पर्यवेक्षक और मीडिया मौजूद था. अगर कोई अप्रिय घटना होती तो बवाल मच जाता.’
(संपादनः शिव पाण्डेय । अनुवादः रावी द्विवेदी)
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