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Monday, 6 May, 2024
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निर्भया कांड के दस साल – बलात्कार कानून बदले, फिर भी दिशा, शाहदरा और बुलंदशहर जैसी घटना देखने को मिली

2012 के 'निर्भया' गैंगरेप के बाद लोगों के अंदर का ज्वालामुखी फूट पड़ा था. हर कोई गुस्से में था और महिलाओं के प्रति होने वाली यौन हिंसा के खिलाफ अपनी आवाज उठा रहा था. बलात्कार कानूनों में भी बदलाव किए गए. लेकिन इतने सालों बाद, क्या वास्तव में कुछ बदल पाया है?

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नई दिल्ली: एक दशक बाद भी उस दिल दहलाने वाले वाकये को भूलना मुश्किल है. वह 16 दिसंबर, 2012 की सर्द रात थी. दक्षिणी दिल्ली के एक पिक्चर हॉल से ‘लाइफ ऑफ पाई’ देखकर आ रही एक युवती और उसका साथी घर जाने के लिए किसी गाड़ी या ऑटो की तलाश में थे. तभी उनके सामने एक सफेद बस आकर रुकी और वह उसमें बैठ गए. उसमें पहले से बैठे छह व्यक्तियों ने लड़की के साथ क्रूरता की सारी हदें पार कर दी थी. उसके साथ गैंगरेप किया, उसके दोस्त को पीटा और अंधेरी रात में बीच सड़क पर फेंक कर भाग गए.

कुछ दिनों बाद लड़की की मौत हो गई. उस समय ऐसा लगा कि जैसे सारा भारत जाग गया है. हर तरफ विरोध प्रदर्शन, मार्च, कैंडललाइट विजिल्स और सरकार से सवाल करती मीडिया कवरेज. हर कोई पूछ रहा था कि जब युवती मर रही थी तो पुलिस ने अपने क्षेत्राधिकार को लेकर बहस करने में समय क्यों बर्बाद किया? क्या और कड़े बलात्कार कानून होने चाहिए? किस तरह का समाज महिलाओं के प्रति इस तरह की हिंसा को जन्म दे रहा है?

लोगों के आक्रोश और गुस्से की वजह से अगले कुछ सालों में वास्तविक परिवर्तन देखने को मिले थे- जीरो एफआईआर के जरिए पीड़िता को किसी भी पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज करने का अधिकार दिया गया और  बलात्कार कानूनों को कठोर बनाया गया. 2020 में चार बलात्कारियों को फांसी दी गई (एक ने जेल में आत्महत्या कर ली थी, जबकि एक अपराधी किशोर था). बलात्कार का मुद्दा आखिरकार केंद्र में आ ही गया था.

पीड़िता की बात करें तो वह मरने के बाद नायिका बन गई थी. यौन हिंसा के खिलाफ भारत की नई लड़ाई का प्रतीक. मीडिया में उसे निर्भया (निडर) नाम दिया गया.

हादसे को 10 साल हो चुके हैं. लेकिन कुछ नहीं बदला है. आज भी यौन हिंसा की शिकार महिला ही सबसे बड़ी सजा भुगतती नजर आती हैं. हर कोई उसे सवालों के घेरे में ला खड़ा करता है. अब चाहे वह समाज हो, कानून हो, या फिर न्यायपालिका हो. कई बार तो मीडिया भी पीड़ितों के साथ संवेदनशीलता से व्यवहार नहीं करता है.

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मिसाल के तौर पर दिल्ली के शाहदरा की एक छोटे बच्चे की 20 साल की मां की कहानी को ले सकते हैं. इस साल जब गणतंत्र दिवस पर लोग टीवी पर परेड देखने में व्यस्त थे, कुछ पुरुषों और महिलाओं के एक झुंड ने उस पर हमला बोल दिया. उसका यौन उत्पीड़न किया गया. उसके बाल मुंडवाए गए और चेहरा काला कर सड़क पर घसीटा गया.

कोई भी उसके बचाने के लिए आगे नहीं आया. तमाशाबीन बने लोग हूटिंग करते और महिला के अपमान की वीडियो बनाते नजर आए. जब तक पुलिस मौके पर पहुंची, तब तक उसे बुरी तरह पीटा जा चुका था.

महिला के घाव अभी तक नहीं भर पाए हैं. उन्होंने कहा, ‘मैं एक घंटे से ज्यादा नींद नहीं ले पाती हूं. रात को अक्सर आंख खुल जाती है और  पसीना आने लगता है. उसके बाद फिर से सो नहीं पाती हूं. मुझे बाहर जाकर धुले हुए कपड़े सुखाने में भी डर लगता है. अपने छोटे से छोटा काम भी नहीं कर पा रही हूं.’

उसे हमेशा एक बात सताती है कि उसके साथ हुए हादसे को रोका जा सकता था. लेकिन पुलिस ने उसका साथ नहीं दिया. दरअसल. इस हमले के कुछ दिन पहले उसकी बहन ने कुछ लोगों द्वारा उन्हें परेशान करने को लेकर पुलिस में शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की थी. लेकिन पुलिस ने एफआईआर दर्ज नहीं की. ये लोग एक अपने किशोर बेटे की आत्महत्या के लिए महिला को दोषी ठहरा रहे थे. उनके मुताबिक लड़का और लड़की आपस में प्यार करते थे. जब लड़की ने उसे धोखा देकर किसी और से शादी कर ली तो वह बर्दाश्त नहीं कर पाया और आत्महत्या कर ली.

शाहदरा का मामला इसका सिर्फ एक उदाहरण है कि 16 दिसंबर 2012 के गैंगरेप मामले के बाद पुलिस प्रक्रियाओं और कानून में बदलाव के बावजूद कैसे जमीनी हकीकत को बदल पाना मुश्किल है. ऐसे मामलों में सामने आने वाली चुनौतियों में शिकायत दर्ज करना, अपराधी को सजा तक पहुंचाना, बलात्कार पीड़ितों के लिए सामाजिक कलंक शामिल हैं.


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‘पुलिस ने समय पर कार्रवाई की होती तो…’

2012 के दिल्ली गैंगरेप के बाद सरकार ने यौन हिंसा के मामलों में आपराधिक कानून में संशोधन की सिफारिश करने के लिए एक कमेटी बैठाई थी. न्यायमूर्ति जेएस वर्मा की अध्यक्षता वाली इस कमेटी ने जनवरी 2013 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी.

मोटे तौर पर सिफारिशों में यौन हमले की परिभाषा का विस्तार करना, बलात्कार के लिए सजा को बढ़ाना, बलात्कार के लिए दखल देने वाले ‘टू-फिंगर टेस्ट’ को बंद करना और पुलिस शिकायत दर्ज करने को आसान और तेज बनाने के उपाय शामिल थे. न्यायमूर्ति वर्मा कमेटी के सुझावों को 2013 के आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम में शामिल किया गया था.

लेकिन इन्हें लागू कर पाना आसान नहीं है.

एक हाई-प्रोफाइल उदाहरण हैदराबाद में 2019 में एक वेटरनरी डॉक्टर के गैंगरेप और उसकी हत्या का है. उसका शव मिलने से एक रात पहले, उसकी बहन ने शिकायत दर्ज कराने के लिए आरजीआई एयरपोर्ट पुलिस स्टेशन का दरवाजा खटखटाया था. जस्टिस वर्मा की रिपोर्ट में बताया गया था कि जीरो एफआईआर दर्ज करने के बजाय पुलिस ने अधिकार क्षेत्र का हवाला देते हुए कथित रूप से कार्रवाई में देरी की थी.

पुलिस ने कथित तौर पर यह भी पूछा कि क्या लापता डॉक्टर का कोई बॉयफ्रेंड है. यह इशारा था कि शायद वह उसके साथ कहीं बाहर गई हो. पीड़िता की बहन ने रात 11.30 बजे पुलिस से मदद मांगी. लेकिन साइबराबाद के शमशाद पुलिस स्टेशन में तड़के 3 बजे के बाद ही प्राथमिकी दर्ज की गई.

Girls, along with activists, take part in a candle-light protest over the Hyderabad rape-murder case, in New Delhi | PTI
हैदराबाद रेप-मर्डर केस को लेकर नई दिल्ली में कार्यकर्ताओं के साथ कैंडल लाइट प्रोटेस्ट में हिस्सा लेती लड़कियां | PTI

जब लड़की के रेप और मर्डर का मामला सामने आया तो लोगों ने जमकर बवाल मचाया. हालांकि अपराधियों को सजा बड़ी तेजी से मिली थी. सभी चार संदिग्ध बलात्कारियों को स्थानीय पुलिस ने गोली मार दी थी. उन्होंने इसे ‘मुठभेड़’ बताया था, जिसे मीडिया ने खूब सराहा.

हालांकि दावा किए गए मुठभेड़ की जांच कर रहे सुप्रीम कोर्ट के एक पैनल ने  इसे एक ‘अतिरिक्त-न्यायिक हत्या’ के तौर पर देखा और इस साल मई में 10 पुलिसकर्मियों पर हत्या का मुकदमा चलाने की सिफारिश की.

शाहदरा मामले में भी पुलिस पर ढिलाई के आरोप लगते रहे हैं.

हमले से एक हफ्ते पहले, 19 जनवरी को पीड़िता की 18 वर्षीय बहन ने अपने पड़ोस के एक जानकार युवक द्वारा बलात्कार की धमकी देने और लगातार परेशान किए जाने की शिकायत करने के लिए पुलिस से संपर्क किया था. जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि वो लोग अपने लड़के की आत्महत्या के लिए लड़की को दोषी मान रहे थे.

शिकायत में कहा गया था, ‘19 जनवरी को मुझ पर हमला किया गया और पीटा गया. उन्होंने हमारे ऑटो रिक्शा को जला दिया. वे उस दुकान पर आए जहां मैं काम करती थी और मुझे परेशान किया. वे मुझे रेप करने की धमकी देते हैं और जब मैं बाहर निकलती हूं तो वे मुझे मारते हैं. उन्होंने कहा है कि वे पुलिस से नहीं डरते हैं.’ दिप्रिंट के पास शिकायत की कॉपी है.

पीड़िता और उसके परिवार ने दावा किया कि कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई. पुलिस ने उन्हें अपने ‘अंदरूनी मामले’ को आपस में सुलझाने के लिए कहा.

26 जनवरी के हमले के बाद, जब दिप्रिंट ने शाहदरा के पुलिस उपायुक्त (डीसीपी) आर. सत्यसुदाराम से पहले प्राथमिकी दर्ज नहीं करने के बारे में पूछा था, तो उन्होंने कहा कि पुलिस ‘इसे देख रही है.’ हालांकि, गणतंत्र दिवस हमले के बाद एक एफआईआर दर्ज की गई थी.

पीड़िता के पति ने दिप्रिंट को बताया, ‘अगर पुलिस ने समय पर कार्रवाई की होती तो मेरी पत्नी को इस आघात से नहीं गुजरना पड़ता. उसकी काउंसलिंग हुई है, लेकिन हमारे पास महंगे इलाज के लिए पैसे नहीं हैं.’

पीड़िता ने कहा कि वह बड़ी मुश्किल से अपने बच्चे की देखभाल कर पा रही है और लगातार डर के साये में जी रही है. दरवाजे पर हल्की सी दस्तक या  खिड़की से आती हवा, बिस्तर की चरमराती आवाज – सब कुछ उसे चौंका देती है.

उसका पति हर सुबह अपने तीन साल के बेटे को स्कूल छोड़ने के बाद काम पर जाने से पहले दो बार चेक करता है कि दरवाजे की कुंडी ठीक से लगी है या नहीं. उन्होंने बताया ‘ कुंडी लगाते हुए दो बार ‘टक’ की आवाज सुनने के बाद ही मैं काम पर निकलता हूं.’

मामले में इक्कीस लोगों को पकड़ा गया था. इनमें से चार पुरुष, 12 महिलाएं, दो लड़कियां और तीन लड़के शामिल हैं.

पुलिस ने कहा कि महिलाओं ने कथित तौर पर अन्य लोगों को जबरन यौन उत्पीड़न और नाबालिग लड़कों को पीड़िता के मुंह में ‘अपने निजी अंगों को डालने’ के लिए उकसाया था. सड़क पर घुमाने से पहले उन्होंने उसके बाल मुंडवाए, उसका चेहरा काला किया और जूतों की माला पहनाई.

दिल्ली पुलिस ने इस मामले में 762 पन्नों की चार्जशीट दायर की है. इसमें कहा गया है कि पीड़िता और उसके परिवार को कम से कम दो महीने से परेशान किया जा रहा था. फॉरेंसिक रिपोर्ट कोर्ट में पेश कर दी गई है. दिप्रिंट के पास चार्जशीट की कॉपी है.

इस तरह के अन्य मामलों में पुलिस पर न सिर्फ अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करने बल्कि बलात्कार पीड़िताओं और उनके परिवार के सदस्यों के खिलाफ सक्रिय रूप से काम करने का आरोप लगाया गया है.

‘यह प्यार है,’ उत्तर प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी ने इस अगस्त में कथित तौर पर एक बलात्कार पीड़िता की मां का यौन उत्पीड़न करते हुए कहा था. वह अपनी बेटी के मामले की जांच के बारे में पूछने के लिए उनसे मिलने गई थी.

असम में 13 साल की एक लड़की के बलात्कार और हत्या में, एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पर मामले को ‘कमजोर’ करने के लिए आरोपी के रिश्तेदारों से 2 लाख रुपये रिश्वत लेने का आरोप लगाया गया था. अन्य पुलिस कर्मियों और तीन डॉक्टरों को भी सबूतों से छेड़छाड़ करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था.

सितंबर में मध्य प्रदेश में एक 26 वर्षीय महिला ने खुद को आग लगा ली क्योंकि पुलिस ने कथित तौर पर एक सरकारी अधिकारी के खिलाफ उसकी बलात्कार की शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया था.

कभी न हाथ आने वाला ‘न्याय’

यौन उत्पीड़न के मामलों में भारत में सजा की कम दर को लेकर काफी कुछ लिखा गया है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की ‘क्राइम इन इंडिया 2021’ रिपोर्ट में, बलात्कार के मामलों की सजा दर पिछले साल 28.6 प्रतिशत थी . इसका मतलब है कि 100 आरोपियों में से 30 को भी सजा नहीं मिल पाई. 2020 के लिए सजा की दर थोड़ा बेहतर होते हुए 29.8 प्रतिशत पर थी.

महिला सेफ्टी एप ‘सेफ्टीपिन’ की सीईओ और सह-संस्थापक कल्पना विश्वनाथ ने कहा, ‘दिसंबर 2012 के गैंगरेप मामले के बाद से रिपोर्ट किए गए बलात्कार के मामलों की संख्या में एक हद तक बढ़ोतरी हुई है, लेकिन सजा दर बहुत कम है.’

सबूत की कमी को अक्सर कम सजा की दर के कारण के रूप में उद्धृत किया जाता है. या फिर कई बार उच्च न्यायालय भी सजा को पलट देता है. इसकी वजह आंशिक रूप से कम से कम फॉरेंसिक सबूत इक्ट्ठा करने और संसाधित करने में कमी और देरी होती है.

इसका एक नाटकीय उदाहरण छावला बलात्कार-हत्या कांड है.

फरवरी 2012 में निर्भया कांड सुर्खियों में आने के महीनों पहले, एक और युवती की दर्दनाक मौत हुई थी. 19 साल की ये लड़की गुड़गांव के शानदार साइबर हब में काम करती थी. ऑफिस से लौटते हुए लाल रंग की टाटा इंडिका में तीन लोगों ने कथित तौर पर द्वारका के छावला इलाके में उसे अपनी कार में जबरदस्ती बैठाया और उसके रेप करने के बाद हत्या कर दी. 

कुछ दिनों बाद पुलिस ने तीन संदिग्धों को गिरफ्तार कर लिया था. वो पुलिस को हरियाणा के एक गांव में उसके शव तक ले गए. उसकी मौत से पहले उसके साथ कथित तौर पर गैंगरेप किया गया था. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक, शराब की बोतलों और मेटल की वस्तुओं से उसके साथ क्रूरता की गई थी.

ठीक 10 साल बाद, नवंबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने तीनों अभियुक्तों को बरी कर दिया. इन्हें पहले निचली अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी.

SC ने पाया कि आरोपी और पीड़ित के डीएनए नमूने क्रमशः 14 और 16 फरवरी 2012 को एकत्र किए गए थे और उन्हें 27 फरवरी को केंद्रीय फोरेंसिक लैब में भेजा गया था.

अदालत ने कहा कि इतने दिनों तक नमूने पुलिस थाने के एविडेंस रूम में रखे रहे थे. इससे सबूतों से छेड़छाड़ की आशंका बढ़ गई है.

यह अन्य प्रोसिडिरियल खामियों के अलावा, अदालत के लिए तीन युवको को ‘संदेह का लाभ’ देने के लिए पर्याप्त था. जबकि पहले इन तीनों को दिल्ली उच्च न्यायालय ने ‘यौन मनोरोगी’ बताया था.

अब भी फोरेंसिक जांच और सबूतों में देरी बलात्कार पीड़ितों और यहां तक कि अभियुक्तों के लिए न्याय प्रणाली में रुकावट बनी हुई है.

उदाहरण के लिए  2016 में, दिल्ली की एक अदालत ने बार-बार याद दिलाने के बावजूद जेएनयू बलात्कार मामले में फॉरेंसिक रिपोर्ट न पेश किए जाने पर पुलिस की खिंचाई की थी. जांच में तेजी लाने के लिए फोरेंसिक रिपोर्ट पर तेजी से काम करने के लिए 2015 में एक स्थायी आदेश पारित किया गया था.

पीड़ितों पर सवालिया निशान लगाता समाज

यह न्याय धीमा है. यह कुछ ऐसा है जो ज्यादातर बलात्कार पीड़िताओं को पहले से पता होता है. साथ ही बहुत से लोग महसूस करते हैं कि वे अपराध की रिपोर्ट करने के समय से ही समाज के सवालों के घेरे में आ जाते हैं.

शाहदरा पीड़िता ने दिप्रिंट को बताया कि यहां न्याय एक सपने जैसा लगता है. समाज में उसे अब हमले की ‘शर्म’ के साथ ही जीना होगा.

पीड़िता ने कहा, ‘जांच तो सालों-साल चलती रहेगी. अभी मेरा बेटा छोटा है. बड़ा होकर वह क्या करेगा? मैं काम करना चाहती हूं. मुझे कौन नौकरी देगा?’

उन्होंने कहा, ‘मेरे हमले के वीडियो वायरल हो गए. भले ही मेरा चेहरा काला कर दिया गया हो, फिर भी लोग मुझे पहचानते हैं. मुझे कभी-कभी डर लगता है कि कहीं मेरे पति इसी वजह से एक दिन मुझे छोड़कर चले गए तो क्या होगा. ज्यादातर रिश्तेदारों और पड़ोसियों को लगता है कि मेरा उस लड़के के साथ अफेयर था.’

बुलंदशहर हाईवे गैंगरेप मामले के पीड़ितों के लिए भी सामान्य जीवन जीना लगभग असंभव हो गया है.

29 जुलाई, 2016 को नोएडा का एक परिवार अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए यूपी के शाहजहांपुर के एक गांव जा रहा था. रात करीब 1 बजे बुलंदशहर में उनकी गाड़ी को एक गिरोह ने रोक लिया. परिवार से नकदी और कीमती सामान लूट लिया. कथित तौर पर मां और उसकी किशोरी बेटी को घसीटकर जंगल में ले गए और उनके साथ बलात्कार किया.

राज्य पुलिस ने जांच में कई पेंच आने के बाद, मामला केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को स्थानांतरित कर दिया. सीबीआई ने नवंबर 2016 में अपनी पहली चार्जशीट दायर की और फिर बाद में एक पूरक रिपोर्ट दायर की.

पुलिस सूत्रों और पीड़ितों के वकील ने कहा कि पांच साल के बाद भी मुकदमा सिर्फ सबूत पेश करने के चरण में है. मुख्य आरोपी की कथित तौर पर किडनी की बीमारी के चलते मौत हो चुकी है, जबकि दो अन्य जेल में बंद हैं. उन्होंने कहा कि तीन अन्य आरोपी जमानत पर बाहर हैं क्योंकि अभियोजन पक्ष उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत पेश नहीं कर सका है.

पीड़िता के वकील किसले पांडे ने कोविड-19 लॉकडाउन में देरी और निचली अदालतों में हड़ताल को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया.

पांडेय ने कहा, ‘यह न सिर्फ न्याय पाने के लिए खतरनाक है, बल्कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों का भी घोर उल्लंघन है.’

इस दौरान पीड़िता और उनके परिवार को भी काफी परेशानी का सामना करना पड़ा है.

जहां एक तरफ मीडिया ने उन्हें काफी परेशान किया, वहीं समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान ने गैंगरेप को ‘राजनीतिक साजिश’ बताकर उन्हें कटघरे में खड़ा कर दिया. वैसे अपने इस बयान के बाद वह विवादों में घेरे में आ गए थे.

सुर्खियों, अटकलों और सामाजिक अलगाव ने परिवार को नोएडा के खोड़ा में अपने घर से दूर जाने के लिए मजबूर कर दिया था.

मां ने कहा , ‘हम यहां से चले गए क्योंकि पत्रकारों से लेकर राजनेताओं तक, सभी ने हमारा तमाशा बना दिया. सवाल उठाती पड़ोसियों की नजरों के बीच हम सांस नहीं ले पा रहे थे. हमारे लिए इस तरह से रह पाना मुश्किल हो गया था.’

उनके पति ने कहा, ‘ट्रायल चल रहा है, हम ज्यादा नहीं जानते हैं. सुनवाई के लिए अदालत जाते हैं, लेकिन इसमें से बहुत कुछ हमारी समझ से परे है.’

किशोर पीड़िता की मां ने गुजारिश करते हुए कहा, ‘अब वह 19 साल की है. वह एक सामान्य जीवन जीने की कोशिश कर रही है, लेकिन अतीत से आघात बार-बार वापस आ रहा है. हम बस यही चाहते हैं कि यह सब जल्द से जल्द खत्म हो जाए.’


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‘आसान शिकार’

समाचार चैनलों के जरिए पीड़ितों पर आरोप लगाने की घटना को बड़े ही ढंग से तैयार किया जाता है. इसका एक पहलू यह है कि कुछ पीड़ितों को कमजोर और निर्दोष के रूप में पेश किया जाता है, तो वहीं कुछ उनके साथ जो हुआ उसके लिए उसी को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है.

यह एक गंभीर मसला है. क्योंकि पीड़ितों को इस तरह से पेश करने से आम धारणाएं प्रभावित होती हैं और पीड़ितों की मदद लेने या शिकायत दर्ज करने की संभावना कम हो सकती है.

यहां तक कि दुर्भाग्य से कई बार अदालतें भी पीड़ित-दोष से ऊपर नहीं उठ पाती हैं.

उदाहरण के लिए जून 2020 के एक मामले को लें. कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा कि ‘एक भारतीय महिला को छेड़खानी के बाद चुप होकर सो जाना अशोभनीय है … इसी तरह से हमारी महिलाएं प्रतिक्रिया नहीं देती हैं जब वे बर्बाद हो जाती हैं.’ यह बात उन्होंने रेप के एक आरोपी को अग्रिम जमानत देते हुए कही थी.

फिर इस साल की शुरुआत में केरल की एक सत्र अदालत के एक न्यायाधीश ने कहा कि यौन उत्पीड़न का आरोप प्रथम दृष्टया टिक नहीं पाएगा, क्योंकि शिकायतकर्ता ने ‘एक ऐसी पोशाक पहन रखी थी,जो यौन उत्तेजक थी’. न्यायाधीश ने एक आरोपी को जमानत देते हुए यह बात कही थी. केरल उच्च न्यायालय ने बाद में जमानत आदेश को बरकरार रखा था, लेकिन उस टिप्पणी को हटा दिया गया.

सितंबर 2017 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने उन तीन छात्रों को जमानत दे दी थी, जिन्हें पहले एक कॉलेज की साथी के गैंगरेप के लिए ट्रायल कोर्ट ने दोषी ठहराया था और सजा सुनाई थी.

अदालत के आदेश में कहा गया है, ‘आरोपी युवा हैं और ऐसी कोई परेशान करने वाली हिंसा नहीं की गई थी, जो आम तौर पर ऐसी स्थितियों में देखने को मिलती है.’

आदेश में आगे उल्लेख किया गया था, ‘अगर इन युवाओं को लंबे समय के लिए जेल में बंद कर दिया गया तो यह एक विडंबना होगी, जो उन्हें उनकी शिक्षा, खुद को बनाने और सामान्य लोगों के रूप में समाज का हिस्सा बनने के अवसर से वंचित कर देगा.’

न्यायाधीशों ने शिकायतकर्ता के संबंध में ‘व्यभिचार’, ‘दुस्साहस’, और ‘यौन मुठभेड़ों में प्रयोग’ का भी संदर्भ दिया.

अदालत ने कहा, ‘बयान की फिर से सावधानीपूर्वक जांच एक अनैतिक रवैये और दृश्यरतिक(वोयएरिस्टिक) दिमाग से उपजी दुर्घटना की स्थिति का एक वैकल्पिक निष्कर्ष प्रदान करती है.’

आईआईटी गुवाहाटी की एक छात्रा के साथ 2021 के बलात्कार मामले में, गौहाटी उच्च न्यायालय ने आरोपी को जमानत देते हुए कहा कि उसके खिलाफ ‘स्पष्ट रूप से प्रथम दृष्टया मामला’ बनता है. लेकिन वह और पीड़िता दोनों ‘प्रतिभाशाली छात्र’ और ‘राज्य के भविष्य की संपत्ति’हैं.

विश्वनाथ ने समाज और इसकी प्रणालियों में ‘पितृसत्तात्मक’ सोच की व्यापकता की ओर इशारा किया.

उन्होंने कहा, ‘हमें एक लंबा रास्ता तय करना है. पीड़ित को शर्मसार करना, पूछताछ करना, महिलाओं के प्रति अभी भी समाज को पीछे की ओर ले जाने वाला रवैया है. और ऐसा सिर्फ बलात्कार के मामले में नहीं है, बल्कि महिलाओं के खिलाफ होने वाली सभी प्रकार की हिंसा के साथ है.’

विश्वनाथ ने कथित रूप से लिव-इन बॉयफ्रेंड के हाथों श्रद्धा वॉकर की हत्या की प्रतिक्रियाओं में इसे साफ तौर पर महसूस किया है.

उन्होंने कहा, ‘सोशल मीडिया पर कई लोगों ने उनकी पसंद पर सवाल उठाया और मूल रूप से उसे एक तरह से इसके लिए दोषी ठहराया. भले ही यौन हिंसा के शिकार लोगों के प्रति सामाजिक रवैये में कुछ बदलाव आया हो, लेकिन दूसरे स्तर पर ऐसी प्रतिक्रियाएं भी हैं जो उन महिलाओं को शर्मसार करती हैं जो अपने अपराधियों के खिलाफ आवाज उठाती हैं.’

(अनुवाद: ऋषभ राज | संपादन: ऋषभ राज)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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