नई दिल्ली: तिप्राह इंडिजिनस प्रोग्रेसिव रीजनल एलायंस (टिपरा मोथा) के प्रमुख प्रद्योत बिक्रम माणिक्य देबबर्मा का कहना है कि अपनी प्रमुख मांगों के साथ कोई समझौता करके और चुनाव-बाद गठबंधन के तहत सरकार में शामिल होने के बजाये उनकी पार्टी विपक्ष में बैठना पसंद करेगी.
पूर्व कांग्रेसी और त्रिपुरा के माणिक्य राजवंश के वारिस देबबर्मा ने दिप्रिंट को दिए एक खास इंटरव्यू में कहा कि राज्य में वाम-कांग्रेस गठबंधन ही उनका प्रमुख प्रतिद्वंद्वी है, जिसमें वाम मोर्चा आदिवासी क्षेत्रों में मजबूत दावेदारी जताता है और कांग्रेस बाकी सामान्य क्षेत्रों में.
2019 में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे देने वाले देबबर्मा का कहना है कि उनके लिए यह पार्टी आज भी विरोधी नहीं है और उनके मन में ‘राहुल और प्रियंका गांधी के लिए हमेशा एक सॉफ्ट कार्नर रहा है.’
उन्होंने कहा, ‘अगर देखा जाए तो सही मायने में राज्य में मैं ही असली कांग्रेस हूं क्योंकि मैं न तो वामदलों के साथ गया हूं और न ही भाजपा के साथ.’
त्रिपुरा उन नौ राज्यों में शामिल है जहां इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं. मोथा को अब राज्य में एक किंगमेकर के तौर पर देखा जा रहा है, और राष्ट्रीय दलों ने इसे अपने पाले में लाने की कोशिश भी की है, लेकिन इसने अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है. मोथा 60 सदस्यीय विधानसभा के लिए 43 सीटों पर अपने उम्मीदवार पहले ही घोषित कर चुका है.
यह पूछे जाने पर कि क्या वह चुनाव बाद दो प्रमुख दावेदारों—वाम-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा—में से किसी एक के साथ गठबंधन के लिए तैयार हैं, उन्होंने कहा कि वह केवल उसी सरकार का समर्थन करेंगे जो उनकी सभी मांगों को पूरा करने का वादा करेगी.
उन्होंने कहा, ‘अभी हम जीरो हैं. अगर हमने 30 सीटें भी हासिल कर लीं तो भी यही चाहेंगे कि बाकी दल खुद हमारे पास आकर उस अतिरिक्त एक सीट के लिए बात करें. मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि भले ही हमारे पास विधायकों की अच्छी संख्या हो जाए लेकिन सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्याबल न होने पर हम अपनी मांगों को लेकर कोई समझौता करने के बजाए विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे.’
मोथा प्रमुख ने कहा, ‘हममें से कोई तब तक मंत्रालय में नहीं बैठेगा जब तक कि हमारी मांगें पूरी नहीं होतीं और समस्या का कोई संवैधानिक समाधान नहीं पेश किया जाता. हम चाहेंगे कि वाम-कांग्रेस (गठबंधन) सरकार बनाएं और अगर वे हमारी मांगों का समर्थन करते हैं तो उन्हें बाहर से समर्थन देंगे. एक बार जब वे कोई संवैधानिक समाधान निकाल लेंगे तभी हम मंत्रालय संभालेंगे.’
यद्यपि दोनों पक्षों की तरफ से नजदीकी बढ़ाने की कोशिश की गई लेकिन देबबर्मा के त्रिपुरा के मूल जनजातीय लोगों के लिए अलग राज्य ‘ग्रेटर तिप्रालैंड’ के गठन को लेकर लिखित तौर पर प्रतिबद्धता जताने की मांग पर जोर देने की वजह से प्रतिबद्धता बातचीत नाकाम हो गई.
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‘कांग्रेस कभी मेरे लिए अछूत नहीं हो सकती’
देबबर्मा कांग्रेस नेताओं के परिवार से आते हैं. उनके माता-पिता दोनों कांग्रेस का हिस्सा रहे थे और उनकी मां राजमाता बिभू कुमारी देवी 10वीं लोकसभा के लिए त्रिपुरा ईस्ट निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर ही जीती थीं.
यह पूछे जाने पर कि वह राज्य में कांग्रेस-वामपंथी या भाजपा में से किसी अपना प्रमुख प्रतिद्वंद्वी मानते हैं, देबबर्मा ने कहा, ‘कांग्रेस पार्टी कभी मेरे लिए विरोधी दल नहीं हो सकती. वामपंथियों ने हमेशा हम पर निशाना साधा है लेकिन मैंने उन्हें अपना रुख नरम करते देखा है. इससे किसी भी तरह का परहेज नहीं है.’
भाजपा के संदर्भ में उन्होंने कहा कि दिल्ली के कई नेता त्रिपुरा के आदिवासी लोगों की मदद करना चाहते हैं, लेकिन ‘त्रिपुरा में स्थानीय भाजपा (और) उसके विचारों के खिलाफ जाने से कतराते हैं.’
उन्होंने आगे कहा कि प्रमुख प्रतिद्वंद्वी सीट दर सीट के हिसाब से अलग-अलग हैं. ‘आदिवासी क्षेत्र की अधिकांश सीटों पर मुख्य मुकाबला वाम दल कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ है. भाजपा तस्वीर में कहीं है ही नहीं और कांग्रेस दुर्भाग्य से वहां बहुत खराब स्थिति में है. सामान्य क्षेत्र की कुछ सीटों पर कांग्रेस की स्थिति मजबूत हो सकती है और कुछ पर भाजपा की.’
देबबर्मा इस बात से सहमत नहीं हैं कि मोथा और लेफ्ट या कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर एंटी-इनकंबेंसी वोटों को विभाजित कर सकती है, जिससे भाजपा को फायदा होगा.
उन्होंने कहा, ‘यदि आप देखें कि स्वायत्त जिला परिषद चुनावों में क्या हुआ, तो हमने वामपंथियों को बुरी तरह हरा दिया. वोट भाजपा को ट्रांसफर नहीं हुआ और न ही भाजपा के वोट लेफ्ट को गए. आदिवासी सामूहिक रूप से मतदान करते हैं. साथ ही जोड़ा कि 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान 30 सालों में पहली बार सामान्य क्षेत्रों में कांग्रेस को वामदलों से ज्यादा वोट मिले.
उसी साल बाद में उन्होंने पार्टी के तत्कालीन महासचिव और पूर्वोत्तर के प्रभारी लुइज़िन्हो फलेरियो के साथ मतभेदों को लेकर कांग्रेस छोड़ दी थी.
‘एक सीट से नहीं बंधना चाहता’
पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार की तरह देबबर्मा भी विधानसभा चुनाव से बाहर रहने की सोच रहे हैं.
उन्होंने कहा, ‘यह मेरे बारे में कभी था ही नहीं, बल्कि हमेशा मुद्दे से जुड़ा था. मैं जानता हूं कि प्रधानमंत्री, अमित शाह, (जेपी) नड्डा जी, स्मृति ईरानी जैसे नेता और कांग्रेस के लोग यहां प्रचार करेंगे. मैं हर निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव प्रचार करूंगा. मैं किसी एक सीट के ही फेर में नहीं पड़ना चाहता, जहां वे हमें घेर सकें.’
अकेले चुनाव लड़ने का फैसला करने से पहले मोथा नेताओं ने गुवाहाटी और नई दिल्ली में भाजपा नेताओं के साथ कई बैठकें की थीं.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘मैं भाजपा के साथ बात नहीं कर रहा था, मैं गृह मंत्रालय के संपर्क में था. मैंने भाजपा को बता दिया था कि मैं उसके साथ अलग-अलग नेताओं से बातचीत नहीं कर सकता. कांग्रेस में मैं (मल्लिकार्जुन) खड़गे जी से बात कर सकता हूं, और लेफ्ट में मैं (सीताराम) येचुरी जी से बात कर सकता हूं. लेकिन चूंकि भाजपा सत्ता में है, इसलिए बातचीत गृह मंत्रालय के साथ ही होनी चाहिए.’
उन्होंने बताया कि गठबंधन पर बातचीत के लिए उन्होंने असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा से मुलाकात की थी.
उन्होंने कहा, ‘लेकिन मैं बहुत स्पष्ट था, जब तक सार्वजनिक तौर पर कोई लिखित प्रतिबद्धता नहीं जताई जाती है, लोग उस पर विश्वास नहीं करेंगे. इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) को अतीत में इसी तरह के खोखले वादों से निराश किया जा चुका है.’
मोथा की आईपीएफटी के साथ भी बातचीत चल रही थी. लेकिन आदिवासी मतदाताओं के जनाधार पर निर्भर आईपीएफटी ने बाद में अपने पुराने सहयोगी दल भाजपा के साथ जाना चुना.
आईपीएफटी छह सीटों पर लड़ने की तैयारी में है, लेकिन देबबर्मा का कहना है कि ‘उनकी जमानत तक जब्त हो जाएगी.’
उनके मुताबिक, इस चुनाव में एक अन्य राजनीतिक दल के लिए संभावनाएं बेहद धूमिल हैं, और वह तृणमूल कांग्रेस है. गौरतलब है कि उन्होंने 2021 में इस पार्टी के साथ भी बैठकें की थीं.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘व्यक्तिगत तौर पर ममताजी के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है, हालांकि मैं उनसे कभी नहीं मिला. मैं अभिषेक से मिला था…उन्हें त्रिपुरा में कड़ा संघर्ष झेलना पड़ेगा.’
(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादनः आशा शाह )
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